सितारों का आत्मकेंद्रित संसार / जयप्रकाश चौकसे

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सितारों का आत्मकेंद्रित संसार
प्रकाशन तिथि : 23 दिसम्बर 2013


विगत कुछ वर्षों से शाहरुख खान अपनी अभिनीत, अन्य निर्माताओं द्वारा बनाई फिल्मों के सारे अधिकार खरीद रहे हैं जिन्हें वे अपनी निर्मित फिल्मों के साथ अपनी लायब्रेरी को सैटेलाइट प्रदर्शन के लिए कुछ सीमित समय के प्रदर्शन के अधिकार बेचेंगे। इस कारण उनकी असफल फिल्मों के निर्माताओं को अनअपेक्षित स्रोत से धन मिल रहा है, मसलन प्रवीण निश्चल की 'देशी बाबू विदेशी मेम' घोर असफल फिल्म थी और उन्हें करोड़ रुपए मिल गए। शाहरुख खान के काम में आदित्य चोपड़ा अपनी फिल्में कभी नहीं बेचेंगे परन्तु करण जौहर शायद उन्हें भेंट स्वरूप दे दें, क्योंकि वे ताउम्र कुवांरे रहने वाले हैं। ज्ञातव्य है कि आज अनेक सेवानिवृत्त निर्माताओं को आय का एकमात्र साधन पुरानी फिल्मों के सैटेलाइट अधिकार हैं जो हर पांच या सात साल बाद फिर बेचे जाते हैं अर्थात फिल्म अधिकार एक जायदाद है।

शाहरुख खान का उद्देश्य केवल अपने वंशजों के लिए भव्य जायदाद का निर्माण नहीं है वरन संभवत: यह उनके आत्मप्रेम की अभिव्यक्ति भी है। दरअसल सारे सितारों को स्वयं से बहुत गहरा प्रेम होता है। हर आम आदमी अपने जीवन को असाधारण समझता है परन्तु यह सितारों के आत्मप्रेम से अलग है। सितारे अपनी छवि से बहुत प्रेम करते हैं और अपनी सितारा हैसियत को दिव्य मानते हैं और इसी नाते उनका ख्याल है कि उन पर वे नियम लागू नहीं होते जो अवाम पर होते हैंं गोयाकि वे स्वयं को राजा ही मानते हैं और राजा की कोई पोशाक या अन्य चीज पर किसी और का अधिकार कैसे सहन कर सकते हैं। अत: अपनी रियासत के प्रति उनका लगाव उनके अहंकार का ही एक हिस्सा है। अगर हम सितारे के दृष्टिकोण से सोचें तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। वह हर तरह से आम आदमी की तरह है और अपनी सारी कमतरियों के बावजूद अत्यंत लोकप्रिय और सफल है। आम दर्शक के मन में सितारों के लिए जो उन्माद है, उसी के कारण वे स्वयं को राजा मानते हैं। अत: राजा को स्वयं का म्यूजियम रचने का अधिकार है।

एक जमाने में राजेश खन्ना की प्रबल इच्छा थी कि उनकी मृत्यु के पश्चात उनका बंगला उनका म्यूजियम बने जिसमें उनकी फिल्मों में पहनी पोशाकें, जूते इत्यादि रखे जाएं। सितारे के लिये यह मानना कठिन है कि फिल्म से अर्जित लोकप्रियता टिकने वाली चीज नही है और हर शुक्रवार खेल बदल जाता है।

अवैध वीडियो प्रदर्शन के स्वर्ण-काल में मनमोहन देसाई को लगा कि फिल्म उद्योग समाप्त होने जा रहा है। दरअसल उनकी अपनी कुछ घटिया फिल्में असफल हो गई तो उन्हें पूरा भरोसा हो गया कि तमाशा खत्म, इसलिए उन्होंने अपनी श्रेष्ठ फिल्म 'अमर अकबर एंथोनी' के अधिकार बेच दिए। अगर वे ऐसा नहीं करते तो उनके बेटे केतन देसाई को बहुत बड़ा सहारा मिल जाता।

पांचवे दशक में भगवान दादा सफल फिल्मकार थे परन्तु शराब के नशे में उन्होंने अपनी कलर फिल्म 'अलबेला' के अधिकार बेच दिए और बुढ़ापे में उन्हें झोपड़पट्टी में रहना पड़ा।

फिल्म जगत में बहुत कम सितारे यह समझते हैं कि जीवन की तरह लोकप्रियता भी अस्थायी है। दरअसल सितारे के लिए संतुलन बनाना कठिन है क्योंकि नींद में भी उसे तालियों की गडग़ड़ाहट सुनाई देती है। आम आदमी के सपनों और सितारों के सपनों में जमीन और आसमान का अंतर है। एक रोटी के सपने देखता है, दूसरा रोटी खाता ही नहीं है। सितारे सारे समय आत्मकेंद्रित रहते हैं, स्वयं को बिछाते, ओढ़ते और सोते हैं।