सितारों की प्रतिष्ठा और धन का खेल / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 04 जून 2013
दीपिका पादुकोण की सितारा हैसियत अपने भूतपूर्व प्रेमी रणबीर कपूर के साथ की गई फिल्म से बढ़ गई है और उन्होंने अपनी आगामी फिल्म 'चेन्नई एक्सप्रेस' के प्रचार के लिए उसके निर्माण के बारे में अपने ब्लॉग में बहुत कुछ कहा है और इससे प्रेरित होकर फिल्म के नायक निर्माता शाहरुख खान भी चार महीने की खामोशी के बाद इस माध्यम में पुन: सक्रिय होते हुए फरमाते हैं कि धार्मिक असहिष्णुता, खोखली नारेबाजी और तथ्य जाने बिना फैसले तथा फतवे देने की प्रवृत्ति के कारण उन्होंने ट्वीट करना बंद कर दिया था। उनका कहना है कि मन पर लगे घाव भर जाने का यह अर्थ नहीं है कि वे आघात कभी लगे ही नहीं थे। उस समय की आहत भावना का अब आप पर नियंत्रण नहीं रहा - इस अर्थ में सारी बातों को लिया जा सकता है। स्पष्ट है कि शाहरुख खान अप्रिय घटनाओं को भूल नहीं पाते, परंतु धीरे-धीरे उनके प्रभाव से मुक्त होते हैं। दरअसल, उनकी 'चेन्नई एक्सप्रेस' का प्रदर्शन ईद पर होने जा रहा है और उसी दिन अक्षय कुमार अभिनीत 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई अगेन' भी लगने जा रही है, जिसकी निर्माता एकता कपूर हैं, जो प्रचार में माहिर हैं। शाहरुख खान की फिल्में अब सलमान खान की फिल्मों की तरह शुक्रवार को प्रदर्शित एकमात्र फिल्म नहीं होतीं, इसलिए उनका प्रचार बहुत समय और धन मांगता है।
जब से फिल्म उद्योग में पहले तीन दिन की आय महत्वपूर्ण हो गई है, तब से सितारों और निर्माताओं को प्रचार पर बहुत ध्यान देना पड़ता है। शाहरुख खान ने ही अपनी 'रा-वन' के समय प्रचार की सारी हदें पार कर दी थीं, परंतु फिल्म में दम नहीं होने के कारण आशानुरूप व्यवसाय नहीं हुआ। यह क्या कम है कि एक घटिया फिल्म अवाम की नापसंदगी के बावजूद सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर गई। हाल ही में रणबीर कपूर ने बयान दिया है कि प्रचार जैसे गैर सृजनशील काम में इतना वक्त तबाह किया जाए, इससे बेहतर है कि अभिनय के लिए मेहनताना कम कर दें। यह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि इस दौर में प्रथम सप्ताह की आय मात्र धन नहीं है, वह निर्माता और सितारे की नाक है, उनकी प्रतिष्ठा का सवाल है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने दशकों पूर्व एक कहानी लिखी थी, जिसमें आगरा के दो रईसों के बीच इस बात पर ठन जाती है कि मौसम की पहली ककड़ी कौन खरीदे। सामंतवाद के दौर में जमींदार कबूतर लड़ाने को अपनी प्रतिष्ठा समझते थे और इस तरह की सतही बातों में अनेक खानदान तबाह हो गए। जीवित मनुष्य के मांस के बाजार में तवायफ की नथनी उतारने के लिए मूर्ख रईसों ने हवेलियां तक बेच दीं। आज के पाठक को जानकारी देना आवश्यक है कि तवायफ की नथनी उतारने का अर्थ था उसकी देह की बाजार में खरीदी प्रारंभ हो गई है और पहला ग्राहक होने की होड़ में रईस तबाह हो जाते थे, परंतु तवायफ रईस नहीं होती थी, उसके मालिक को लाभ होता था। शरीर की धुनाई से उत्पन्न धन हमेशा मालिकों तक ही पहुंचता है।
बहरहाल, शाहरुख खान के कंधे का दूसरा ऑपरेशन हुआ है और उन्हें लगभग दो माह के लिए आराम का निर्देश डॉक्टर ने दिया था। अत: उनके लिए प्रचार केवल ब्लॉग द्वारा ही संभव है। दरअसल, सितारों का जीवन फूलों की सेज नहीं होता, उन्हें अलग किस्म की धुनाई से गुजरना होता है। अंतर केवल इतना है कि इस प्रक्रिया से उपजा धन भी उन्हीं के पास आता है। वह तवायफ नहीं है। आज पूरे समाज में ही धन का अर्थ बदल गया है। रुपए का भले ही अवमूल्यन हुआ हो, परंतु धन की लालसा और उसके साथ जबर्दस्ती जोड़ी गई प्रतिष्ठा ने सारे मानदंड बदल दिए हैं। अब तो मामला साबुन के विज्ञापन फिल्म की तरह 'मेरी कमीज उससे ज्यादा उजली है' तक पहुंच गया। आज सारे प्रमुख सितारे इतने अमीर हैं कि चंद करोड़ कम-ज्यादा से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, परंतु प्रतिष्ठा का प्रश्न अवश्य महत्वपूर्ण हो गया है। आज कोई भी फिल्मकार अपने जीवन और काम में किसी तरह का जोखिम नहीं उठाना चाहता है और जोखिम लेने की प्रवृत्ति घटने के कारण गुणवत्ता या कालातीत रचना बनाने की कोई आकांक्षा ही नहीं है। जब राज कपूर 'जागते रहो' बना रहे थे, उन्हें भलीभांति यह ज्ञान था कि अपनी लोकप्रिय छवि के खिलाफ पात्र अभिनीत करने का क्या अर्थ है। नायक फिल्म के अंत में अपना एकमात्र संवाद बोले तो फिल्म असफल हो सकती है। इस जानकारी के बावजूद उन्होंने फिल्म पूरी श्रद्धा और मेहनत से रची, क्योंकि उसे बनाने के बाद ही वे किसी नई फिल्म का आकल्पन कर सकते थे। सृजन प्रक्रिया ऐसा कोई जंक्शन नहीं है, जहां अनेक रेलें रुकें।