सितारों के घर से दूर घर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :12 दिसम्बर 2016
मुंबई फिल्म उद्योग से जुड़े सफल लोग मुंबई से कुछ दूरी पर अपने लिए एक घर बनाते हैं और सप्ताहांत भी वहीं बिताते हैं। पनवेल और पंचगनी में सितारों के फार्म हाउस हैं। राखी भी अधिकांश समय अपने पनवेल स्थित फार्म हाउस मंे बिताती हैं। राजकुमार ने एक ऐसी जगह अपना घर बनाया था, जहां नाव पर बैठकर ही जाया जा सकता था। राजकुमार के अभिनय से अधिक उनके सनकीपन के किस्से चर्चा में रहते थे। सितारा छवि गढ़ने का आजमाया हुआ तरीका है कि सितारे को सामान्य व्यक्ति से अलग स्वरूप में प्रचारित किया जाए। इसके विपरीत नेताओं की प्रचारित छवि उन्हंे आम आदमी की तरह दिखाने की होती है। आम आदमी को दोनों ही छवियां ठगने के लिए गढ़ी जाती है। प्राय: नेता सगर्व बताते हैं कि वे कितने गरीब परिवार से आए हैं। नदी पार कर प्रतिदिन पाठशाला जाते थे। गली में लगे खम्बे की लाइट के नीचे पढ़ते थे। कष्ट का अतिरेक प्रस्तुत किया जाता है, क्योंकि उन्हें सहानुभूति प्राप्त करना है। स्वयं पर विश्वास करने वाले किसी भी व्यक्ति को सहानुभूति पसंद नहीं आ सकती। दया घातक हथियार भी हो सकती है। समान अवसर नहीं उपलब्ध कराने की नीति का पालन किया जाता है ताकि दया और सहानुभूति का दिखावा किया जा सके।
दया को धर्म से भी जोड़ दिया गया है ताकि समान अवसर नहीं देने को न्यायसंगत ठहराया जा सके। दरअसल, गरीबी को बनाए रखने के लिए बड़े जतन किए गए हैं। सेवकों के अभाव में धनाढ्य व्यक्ति का जीवन अत्यंत कठिन हो सकता है। इन्हीं मूल्यों को फिल्में में भी प्रस्तुत किया जाता है, क्योंकि असमानता व अन्याय आधारित ढांचा बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि अमेिरका जैसे पूंजीवादी देशों की फिल्मों में भी धनाढ्य नायक की छवि कम ही गढ़ी गई है। इसका एक अार्थिक कारण यह है कि सिनेमा देखने वाले गरीब या मध्यम वर्ग के लोग हैं। अमीरों के पास मनोरंजन के अनेक साधन हैं। राजा, महाराजा और शहंशाह गुलाम को मदांध हाथी से लड़ने पर मजबूर करते थे। दरअसल, इस क्रूरता में राजा, महाराजा और शहंशाह ही मदांध हाथी हैं। सजा से अधिक नशीला कोई पदार्थ नहीं हो सकता। गुलाब के इत्र की खोज करने वाली नूरजहां को भी हाथी बनाम निहत्थे गुलाम का खेल देखने में आनंद आता था। सम्राट अशोक भी अत्यंत क्रूर व्यक्ति था और बौद्ध धर्म स्वीकार करने के पहले उसने अपने ही भाइयों का कत्ल किया है। तख्त या तख्ता को मुगल शासन से ही जोड़कर रखा गया है, जबकि सम्राट अशोक की क्रूरता को उतना प्रचारित नहीं किया गया है। साधन संपन्न और साधनहीन ये दो ही वर्ग हैं और अन्य श्रेणीकरण महज एक परदा है। सत्ता प्राय: निरंकुश ही होती है।
अदूर गोपालकृष्णन की एक फिल्म में सर्वहारा वर्ग की सफल क्रांति के बाद एक शोषित के हाथ में तलवार है और शोषण करने वाला सिर झुकाए दंडवत कर रहा है परंतु वह उसे मार नहीं पाता। उसके हाथ कांपने लगते हैं, क्योंकि गुलामी उसके अवचेतन में गहरे रूप में पैठी हुई है। ठीक इसी तरह महिमा मंडित गरीबी भी हमारी विचार प्रक्रिया का हिस्सा बना दी गई है। रूखी-सूखी खाकर पत्थर की सेज पर सोने को आध्यात्मिक आनंद बना दिया गया है। दरअसल, साधनहीन और साधन-संपन्न दोनों ही वर्ग भीतर से बहुत भयभीत हैं और सारा खेल डर बनाम डर का है। फिल्में भी इसी तरह की गढ़ी जाती है। इस व्यवस्था का ही एक हिस्सा सिनेमा भी है। आक्रोश की फिल्में भी लोकप्रिय रही हैं परंतु यह आक्रोश अमीर के चाय की प्याली के तूफान से अधिक कुछ नहीं है।
कभी-कभी फिल्मों का असर भी हुआ है। मिडनाइड एक्सप्रेस में खाड़ी देशों की जेलों के विवरण के बाद वहां एक परिवर्तन आया है। हर देश की जेल उस देश के राजनीतिक ढांचे की छाया मात्र होती है। भारतीय जेलों में हजारों कैदी एेसे हैं, जिनके विरुद्ध कोई आरोप-पत्र नहीं बन पाया है और उन्हें न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया गया है। हाल ही में सत्ता ने उच्चतम न्यायालय को भी बड़े परदेदारी के साथ धमकाया है।
बहरहाल, सितारों के घर से दूर घर भी उनकी मजबूरी को ही अभिव्यक्त कर रहे हैं कि उन्हें धन कमाने के िलए प्रदूषण की मारी मुंबई में ही काम करना है और सुकून के लिए 'घर से दूर घर' जाकर रहना है। महानगरों की प्रदूषित हवा के आदी हमारे फेफड़े, शुद्ध हवा से अपरिचित हो चुके हैं और उसमें कुछ असामान्य महसूस करते हैं। पूरी दुनिया को ही गैस चैम्बर बनाया जा रहा है।