सिद्धि / अनुलता राज नायर

Gadya Kosh से
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वो मुझे दिखी अचानक उस शाम,एक बेदाग़ सुबह सी। जैसे एक ताज़ा हवा का झोंका मेरी दिन भर की बेताबियों और उदासियों को उड़ा ले चला हो। वो मेरे पीछे पीछे चल रही थी ,मुझे लगा कोई पीठ थपथपा कर मेरी सोयी तकदीर को जगा रहा है।

मैं पीपल के पत्ते की तरह पलट पलट उसे तक रहा था.......एक ही नज़र में मुझे उससे इश्क हो गया। लोग कहते हैं कि मुझे मानसिक चिकित्सक की ज़रुरत है और अपने इस इश्क ,इस बेताबी को देख कर मुझे उन सभी लोगों की बात सच मालूम हुई। मगर मुझे न पहले परवाह थी न अब है कि कोई मेरे बारे में क्या सोचता है।

अब मुझे तो उस लड़की के सिवा कुछ सूझता नहीं था। हर रोज़ वो इधर आया करती कुछ खरीदारी करने शायद। उसे देखता तो यूँ लगता मानों कुहासे को चीरती कोई धधकती किरण धरती पर आ गयी हो....अक्सर मेरी आँखें चुंधिया सी जातीं या क्या पता भावुकता के अतिरेक में पलकें भीग जाती हों।

मैं समझ नहीं पाया उसकी ओर अपने इस अपार आकर्षण की वजह। उसका सुन्दर होना एक वजह ज़रूर थी और उसे देख पाने के सिवा मैं उसको जानता कितना था !संभवतः उसकी प्रांजलता मुझे उसके रूप से ज्यादा आकर्षित कर रही थी।

न जाने कितने दिनों से मैं उसे तक रहा था। उसके विषय में कुछ जाने बिना ही मैं उसको पा लेना चाहता था।

मुझे यकीन था कि वो बेहद अकेली है और उसने जीवन में कभी स्नेह नहीं पाया है। मुझे लगता वो कोई शापित लड़की है जैसे अहिल्या,और उसका उद्धार मेरे हाथों ही होना है। या बेहद दुखी जिसके पास मुस्कुराने की कोई ठोस वजह नहीं और वो वजह मैं बनना चाहता था।

ये अलग बात है कि आज तक जीवन में मैंने अपने करीबी लोगों को आंसुओं के सिवा कुछ नहीं दिया था। मगर अब परिस्थितियां बदल चुकीं थीं,मैं बदल चुका था.....इन दिनों मुझे लगता था मैं कोई महापुरुष,महाज्ञानी या कोई सिद्धात्मा हो चला हूँ। अपने भीतर एक शक्ति और साथ ही शांति का एहसास होता था मुझे। लोगों ने इसे मेरा बावलापन कहा और मैं मुफ़्त के सलाह मशविरों, तानों और कटाक्षों से बचने को यहाँ सबसे दूर पहाड़ों पर चला आया था। इसे मेरा आज्ञातवास भी कह सकते हैं। क्यूंकि रक्त सम्बन्धियों के नाम पर एक चचेरे भाई भावज ही थे और उन्हें थोडा भी अंदाजा नहीं था कि मैं कहाँ हूँ। यूँ लापता होकर मैं ख़ुद को महान और त्यागी मानने लगा था।

खैर बात उस कोमलांगी की हो रही थी जिसने मेरे कई प्रयासों के बात भी कभी मेरी ओर ध्यान नहीं दिया....वो कहीं खोयी सी रहती थी। मुझे लगता था कि वो लड़की उदासियाँ जी रही थी और अब मैं जीना चाहता उसकी उदास ज़िन्दगी , उसके साथ। मगर इसके लिए सबसे ज़रूरी था कि हमारे बीच कोई संवाद उपजे।

वो ओस की अक्षुण्ण बूँद थी जिसे छूना पूर्णतया वर्जित था। वो मुझे देखती तक नहीं थी, बल्कि वो समाधिस्त योगिनी सी लगती थी या कोई नींद में चलती मासूम सी बच्ची।

उस रोज़ वो कुछ फल और पूजा की टोकरी में कुछ फूल लेकर जा रही थी कि उसका पाँव किसी पत्थर से टकराया और फल फूल बिखर गए। वो शांत भाव से उन्हें चुनने लगी ,उठा कर उन्हें फूंकती और वापस टोकरी में रखती जाती। अवसर पाकर मैं भी घुटनों के बल उसके करीब बैठ गया और फूलों और फलों को उठा कर फूंक फूंक कर उसकी टोकरी में डालने लगा।

उस रोज़ पहली बार उसने मुझे देखा और हौले से मुस्कुराई। मुझे लगा जैसे किसी पूजा की थाल में रखा सारा कपूर धू धू करके जल उठा हो और महक गया सारा वातावरण। और तभी उस कपूर से मेरी उँगलियाँ जल गयीं या शायद उसकी उँगलियों से छू गयी थी मेरी उँगलियाँ। एक पल को मैं अपराधबोध से ग्रस्त हो गया। मुझे वो लड़की पूर्णतया ईश्वर को समर्पित एक साध्वी सी लगती थी और मुझे लगा जैसे मेरे स्पर्श से उसका कोई व्रत भंग हो गया हो।

पर वो मेरे उस क्षणिक स्पर्श से अनजान थी,वाकई बहुत मासूम और निष्पाप थी वो।

उसे देखते ही मेरा उदास मन बेला चमेली हुआ जाता था...महकने लगता था अंतर्मन। मैं उसको पाना चाहता था कैसे भी...किसी भी शर्त पर।

मंदिर की देहरी पर बैठे बैठे मेरे दिन बीत रहे थे। चढ़ावे में आये फल ,फूल ,मेवे, मिष्ठान मुझे सेहतमंद रखने को काफी थे और बदले में मुझे पुजारी जी की मदद करनी होती थी बस। मैं आम पुरुषों की तरह शर्ट पैंट ही पहनता था फिर एक रोज़ पंडित जी ने धोती पकड़ा दी सो मजबूरन वेश बदल गया वरना मुझमें अपनी वेश भूषा से संन्यासी होने का भ्रम पैदा करने की बद्नियत नहीं थी। वैसे मैं नहीं समझता कि धोती पहनने से कोई सन्यासी समझा जा सकता है और फिर मुझे उस लड़की के सिवा किसी से सरोकार भी नहीं था और उसने तो मुझे कभी ठीक से देखा भी नहीं था।

मंदिर तक आना उसका नियम था और उसको तकना मेरा। मगर अब वो कभी कभार हौले से मुस्कुरा देती थी और मैं अपना विवेक एक बार फिर खो देता। कभी कभी तो मैं खुद से घबरा जाता कि उसको पाने की ज़िद्द कहीं मुझे किसी अमानवीय कृत्य की ओर न धकेल दे। मगर जैसा सुना था वैसा पाया कि प्रेम इंसान को अच्छाई की ओर ले जाता है सो थोड़े से प्रयास के बाद ही मेरे मन में नकारात्मक विचार आने बंद हो गए और मैं प्रेम को प्रेम से ही पाने के प्रयास करने लगा।

तकरीबन महीना बीतने आया और वो लड़की कभी एक शब्द भी नहीं बोली,उसकी कुछ मुस्कुराहटों के सिवा और कुछ हासिल नहीं हुआ था मुझे। मैंने संवाद स्थापित करने का हर संभव प्रयास किया मगर वो संवाद एकतरफा ही रहा।

उस रोज़ लड़की बड़ी अनमनी मालूम हुई....आज उसके पास फूलों की टोकरी भी नहीं थी ,वो सर झुकाए मंदिर में खडी रही और फिर वापस जाने को पलट गयी। मैंने उसका रास्ता रोकते हुए पूछा,

आज फूल नहीं ?

उसने न में सर हिलाया।

क्या नाराज़ हो भगवान् से ?

उसने नज़रें झुका लीं (मुझे लगा वो नाराज़ है भगवान् से )

मैंने पूछा,परेशान हो ?

उसने हाँ में सर हिलाया।

तकलीफ में हो ?

उसने फिर हामी भरी।

यहाँ क्या इलाज के सिलसिले में और पहाड़ी वातावरण के लिए आयी हो ?

उसने फिर हाँ में सर हिलाया और भागते हुए चली गयी।

ये मेरा उससे पहला वार्तालाप था,और उस रात मैं सो न सका और सारी रात जागती आँखों से सपने देखता रहा,बुनता रहा कई सुनहरे ख्वाब जिसमें वो फूल टांकती रही अपनी पूजा की टोकरी से।

एक दो रोज़ वो दिखी नहीं और मैं पागलों की तरह मंदिर के भीतर बाहर होता रहा। तीसरे दिन मुझसे रहा नहीं गया और मैं उसके घर की ओर चल पड़ा। छोटा सा हिस्सा किराये पर उठाया हुआ था किसी स्थानीय निवासी ने। मैंने सांकल खटखटाने को हाथ बढ़ाया ही था कि उसने दरवाज़ा खोल दिया और खुद बाहर आकर फिर बाहर से सांकल चढ़ा दी। उसने मेरी तरफ हैरत और प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा मानों अपनी प्रेयसी की खोज में आना कोई गुनाह हो। वो बिना कुछ कहे चल पड़ी और मैं पीछे पीछे हो लिया जैसे पाइड पाइपर ऑफ़ हेमलिन के पीछे चूहे।

वो मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गयी ,कुछ थकी और निराश सी।

मैंने उसके थोडा करीब बैठ कर दिलासा भरी निगाहों से देखा।

वो कुछ नहीं बोली। एकबारगी मुझे लगा कहीं वो गूंगी तो नहीं ?

वैसे शायद मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था....मैं प्रेम की पराकाष्ठा में जी रहा था।

मैंने उससे कहा कि मैं एक वैद्य हूँ ,सिद्ध वैद्य। और मेरी इस विद्या के बारे में कोई नहीं जानता।

वो एकटक मुझे तकती रही,और उन आँखों में एक आशा की किरण मैंने देखी।

मैंने फिर कहा ,कि तुम मुझे अपनी तकलीफ कहो,मैं तुम्हारे सारे कष्ट हर लूँगा।

लड़की पहली बार बोली, मैं अपने कष्ट आपको कैसे दे सकती हूँ ? और क्यूँ ?

मैं हाथ आया मौका खोना नहीं चाहता था और शायद मैं सच्चे ह्रदय से उसके कष्ट हरने को तैयार था ,बस मुझे ऐसी कोई विद्या आती नहीं थी।

मुझे एक सिद्द्धी प्राप्त है...लगभग हकलाते हुए मैंने एक दांव फेंका।

उसने हैरानी से मुझे देखा मगर कुछ कहा नहीं।

मुझे कुछ कुछ आभास हुआ कि लम्बे कष्टों को भोगते हुए इंसान का विवेक भी नष्ट हो जाता है और वो कैसे अक्सर ढोंगियों,साधु-सन्यासियों की शरण में जाता है। उसकी नज़रों में अविश्वास नहीं था इसलिए मेरा साहस और बढ़ गया।

मैंने कहा मैं किसी बीमार व्यक्ति के पास कुछ घंटे लेट कर ध्यान करता हूँ तो उसका रोग मेरे तन में आ जाता है और वो निरोगी हो जाता है, और फिर ईश्वर के प्रताप से मेरे तन से भी रोग चला जाता है। मैं बके जा रहा था ऊलजलूल क्यूंकि उस लड़की के सामीप्य की कल्पना ही मेरे भीतर रोमांच पैदा कर रही थी।

मैं प्रतीक्षा में था उसकी सहमती की।

लड़की बहुत देर कुछ सोचती रही फिर बोली आप कल मेरे घर आयेंगे ?

अँधा क्या चाहे दो आँख,मैंने झट हाँ कर दी और कल का इंतज़ार करने लगा।

अगले रोज़ तड़के उठ कर मैंने भगवान् का मंदिर बुहारा,फूल चढ़ाए और चित्त शांत करने को वहीं बैठ गया।

आँखें मूंदते ही मुझे लगा मेरे भीतर ईश्वर समा रहे हैं और एक अदृश्य शक्ति संचारित हो रही है। मेरा सर लुढ़क कर दीवार से टकराया....

शायद रात भर सोया न था और अब मुझे नींद के झोंके आ रहे थे। मैं कल जैसा उत्साहित भी महसूस नहीं कर रहा था। खैर मैं चल पड़ा उस लड़की के घर की ओर।

सांकल खटखटायी तो कच्ची हल्दी के रंग की साड़ी पहने, भीगे बाल लिए लड़की बाहर आयी और यकायक मेरे भीतर का सोया उत्साह जाग गया। मुझे अपने किये का जो थोड़ा अफ़सोस था वो जाता रहा।

लड़की मुझे भीतर ले गयी और एक निर्जीव से,पीले पत्ते की तरह एक शरीर के बाजू में बैठा दिया। मैंने प्रश्वाचक दृष्टि से उसको देखा।

वो धीरे से बुदबुदाई,ये हैं मेरे पति ,जिनका रोग कितने इलाज पर भी ठीक नहीं हो रहा।

मुझे लगा कि वाकई मैं सिद्ध पुरुष हूँ क्यूंकि अभी तो मैं मरीज़ के करीब लेटा भी नहीं था और मुझे भयंकर ज्वर और कमजोरी का एहसास हो रहा था।

मुझे लगा मेरे परिवार वाले मुझे यूँ ही पागल नहीं कहते थे।

अब मेरे पास कोई चारा नहीं था और मैं चुपचाप उस काया के समीप लेट गया।

अब मुझे न जाने कितने घंटे वहीं बिताने थे।

करीब आठ दस घंटों के बाद मैं वापस मंदिर चला आया।मन के साथ तन भी भारी था,मैं चुपचाप अपनी कोठरी में जाकर सो गया।

मेरी नींद खुली तो देखा वो लड़की मेरे करीब बैठी है, मैंने उठने की कोशिश की मगर उठ न सका। मुझे लगा मैं घंटों नहीं बल्कि बरसों की नींद से जागा हूँ। मेरा सारा बदन टूट रहा था और शायद तेज़ बुखार था।

मैंने अपने नसीब को कोसा कि जाने कौन सी संक्रमित काया के करीब मुझे लेटना पड़ा और अब मैं भी उसी हाल में हूँ।और वो काया अब भी वहीं पड़ी होगी, जस की तस।

मेरी ऑंखें फिर मुंदने लगीं,मुझे उस लड़की का स्पर्श अपने माथे पर महसूस हुआ। मुझे अपने आचरण पर ग्लानि हुई परन्तु मैं जान गया था कि ईश्वर ने मुझे स्वयं प्रायश्चित की ओर धकेल दिया है।

मैंने एक आखरी बार पलकें खोल उस लड़की की छवि अपनी पुतलियों में कैद की और फिर मेरी आँखें मुंदने लगीं। मुझे मालूम चल गया था कि अब मौत मेरे जीवन का श्रृंगार करने वाली है।

लड़की मेरे करीब आयी और मेरे कान में फुसफुसा के बोली, तुम्हारे पास कोई सिद्धी नहीं थी,न तुम कोई विद्या जानते थे।

सिद्धी क्या बुद्धि तक नहीं थी मेरे पास !! मैं मन ही मनबुदबुदाया...शायद ये मेरा मेरी आत्मा से संवाद था।

लड़की पूछ रही थी,

- क्यूँ बोला तुमने ऐसा जानलेवा झूठ ? क्यूँ ?? जो भी हो अब इस झूठ की कीमत तुम्हें चुकानी होगी.......उसके हिलते होंठ मैं देख रहा था और उसकी आवाज़ दूर ,बहुत दूर होती जा रही थी....