सिद्धि / राजेन्द्र यादव
माँ-शक्ति को लगता है कि ये जूतियां पहनकर उन्हें सचमुच कुछ हो जाता है। उन्होंने मंत्र-सिद्धि की बात सुनी थी, भीतर से विश्वास नहीं था। जैसे उसी विश्वास की स्थापना के लिए ये जूतियां उन्हें मिली हैं। पांव में जूतियां डालकर व आंखें बंद करके कुछ न सोचने का प्रयास करती हैं तभी भास होता है : जैसे वर्तमान का वह क्षण, जहां वे खड़ी हैं, एक ऐसा बिंदु है जिसके आगे और पीछे वे दूर-दूर तक ‘देख’ सकती हैं। ये जूतियां उन्हें एक ऐसा शुभ्र स्फटिक-स्तंभ लगतीं, जिस पर खड़े होकर उन्हें चारों ओर दिशाओं के अंत तक के दृश्य साफ-साफ दिखाई देने लगते...दूर क्षितिजों में झांई मारते, बस्ती-मकानों के धब्बे, नदी की रुपहली धारा, पेड़ों के झुरमुट और धुंध में टंका सूरज का निस्तेज गोला...जैसे वे एक नीची उड़ान के विमान पर बैठी, सभी कुछ को आश्चर्य और पुलक से ‘देखती’ हैं...
वे दर्शन देते समय केवल आधा घंटे के लिए उन जूतियों को पहनतीं और फिर जाने कैसे ‘हाल’ में पहुंच जातीं। उस क्षण उन्हें खुद पता नहीं होता, वे क्या बोल रही हैं। हाँ, कहीं कुछ दूर देखती जातीं और उसे ही शब्द देने की कोशिश करती रहतीं...सैकड़ों लोग लाइन में लगे अपनी-अपनी बारी पर चरणों में लेटे होते...उनकी कृपा-दृष्टि की भीख मांगते रहते...बीमारी, कष्ट, बुरे नक्षत्रों से बचाव और आकांक्षित प्रश्नों के उत्तर की प्रार्थनाएं करते रहते। उन्हें खुद होश नहीं होता, वे कहां से बोल रही हैं। जैसे उनका ऊर्ध्वांग किसी जादू से काटकर, हवाओं में ऊपर-ऊपर उठता जाता, वे खुद हवा की तरह हल्की होती जातीं। उन्हें लगता, जैसे वे केवल शब्दाकार हैं; जो कुछ देख रही हैं, उसका स्वरानुवाद हैं। अपने इस अमूर्त रूपांतरण पर उन्हें स्वयं भी बेहद आश्चर्य होता। क्या इसे ही आदमी को, मूर्त को, माध्यम में बदलना कहते हैं? लोग कहते, उन्हें भूत-भविष्य सभी कुछ आर-पार दिखाई देता है। वे महासिद्ध हैं, यही चर्चा उस समय चारों ओर फैली हुई थी। और यह सब जूतियों के कारण ही होता है, इस सच्चाई का बोध खुद उनके लिए संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है।...वे किसी को बता भी तो नहीं सकतीं कि ये जूतियां उन्हें कहां से मिलीं। हो सकता है, स्वयं उन्होंने ही कहा हो, या वैसे ही किंदवंती की तरह कथा फैल गई हो कि ये उनके गुरु महाराज की इष्टदेवी की पादुकाएं हैं, मां-शक्ति की साधना से प्रसन्न होकर गुरु महाराज ने अपने स्वार्गारोहण से पहले उन्हें देते हुए कहा था, ‘‘शक्ति, इनकी गरिमा की रक्षा तुम्हारा दायित्व है...’’ माँ-शक्ति मन-ही-मन हंसती हैं : हां, उनके गुरु महाराज का ही तो प्रसाद है ये...और आज वे उन्हें गीता-रामायण से भी अधिक पवित्र-भाव से, सच्ची श्रद्धा के साथ मखमल में लपेटकर रखती हैं, गुलाब और चंदन की पंखुड़ियों के बीच...केवल ‘दर्शन’ देने के समय उस आधा घंटे ही उन्हें पहनती हैं और फिर जैसे उनका चेहरा किसी भीतरी तेज से पिघलने लगता है...आसमान से लटके एक बहुत लंबी रस्सियोंवाले झूले में धीरे-धीरे इस क्षितिज से उस क्षितिज की ओर जाने लगती हैं। उन्हें मालूम है, उनके जाने-अनजाने कई लोगों ने उन्हीं की तरह पावन गंगाजल से पांव-हाथ धोकर मखमली बस्ते को माथे से लगाया है, परम श्रद्धा से डरते-डरते जूतियों में पांव डालकर आंखें मूंदने और ‘ध्यान’ करने की कोशिश की है, मगर किसी को कुछ नहीं होता...ईमानदारी से यह उनके लिए अभिनय नहीं है, न चमत्कार दिखाकर श्रद्धा-विद्ध लोगों का विश्वास वसूलने को कोई आध्यात्मिक षड्यन्त्र है। अनुभूति की यह सिर्फ ऐसी स्थिति है, जिसकी परिभाषा वे स्वयं नहीं कर पातीं। जब लोग उनके चरणों में पड़े इन जूतियों से माथा रगड़ते होते हैं, उनकी शरण और आशीर्वाद के छत्र के नीचे जीवन उत्सर्ग कर देने की विह्वल गुहारें लगाते होते हैं, तो उनकी बंद आंखों से निश्शब्द आंसू झरते रहते हैं, सिंहासन के हत्थों पर उनकी मुट्ठियां ऐसी कस जाती हैं कि उन्हें पीस डालेंगी, बेबस-सी सांस जोर-जोर से चलने लगती हैं और पोर-पोर एक अजीब शीतल आग में कबाब की तरह भूना जाने लगता है। तब वे जवाब नहीं दे पातीं, सिर्फ कराहती हैं-और यह अनुभूति उन्हें कहीं किसी बहुत पुराने भूले हुए की याद दिलाती है...किसी और जन्म की कोई बात। मगर यह भी उन्हें मालूम है कि उस ‘सुख’ को तो उन्होंने कभी वास्तव में जाना ही नहीं...नारी शरीर पाने की यातना भोगी है। उस ब्रह्मानंद के बारे में सिर्फ सुना है।
बहुत कम आयु में जब उन्होंने संन्यास लेने का संकल्प लिया तो ये हल्के गेरुआ वस्त्र धारण करने के साथ-साथ आचमनी, कमंडल, रुद्राक्ष इत्यादि सभी चीजों की आवश्यकता हुई। ये चीजें नई भी ली जा सकती थीं। मगर लगा, बहुत पुरानी होंगी, तो प्रभाव अच्छा पड़ेगा। हो सकता है किसी सच्चे योगी की प्रसादी की तरह ही ये वस्तुएं मिल जाएं। इसी खोज में उन्होंने ऐसी दुकानों के चक्कर लगाए जहां बहुत पुरानी वस्तुएं भी मिलती थीं। वहाँ एक बुजुर्ग मियांजी किसी और को इन जूतियों के बारे में विस्तार से बता रहे थे, ‘‘जनाब, ये जोहराबाई की जूतियां हैं। आपने तो हुज़ूर, उनका नाम भी नहीं सुना होगा। देखा हमने भी नहीं है। मगर कहते हैं, शहर के बड़े-बड़े घमंडी, अजीमुशान माथे इन पर रगड़े गए हैं, सोने-चांदी और जवाहरातों की बारिशें हुई हैं और उन्होंने मलिकाए-आलम की तरह शान से अपने जमाने के बड़े-से-बड़े रईस तीसमारखांओं को इशारों पर नचाया है। सुनते हैं, नाचना-गाना खास नहीं जानती थीं, मगर कोई हुनर था। जिसको एक बार कभी उनके साथ हम-बिस्तर होने का नियाज मिला, कसम खुदा की, वह जिंदगी-भर फिर कभी उस दरवाजे से गया ही नहीं। मालूम नहीं, कितने अमीर-उमरा, रईस और खानदानी इन जूतियों को छाती से लगाए-लगाए फकीर हो गए, पागल और सौहार्द हो गए। यकीन मानिए, लोगों ने खुदकुशियां की हैं, दर-दर की ठोकरें खाई हैं और कुत्तों की तरह सालों दरवाजे के बाहर खड़े रहे हैं...वक्त होता है साहब, हर चीज का। आज इन गंदी, मैली और चीथड़े जैसी जूतियों को देखकर कोई क्या तो इसकी कीमत समझेगा और क्या इनके दाम लगाएगा...? हम तो कहेंगे साहब, जोहराबाई जोगन थी, जोगन...’’,
‘जोगन’ शब्द झनझनाया मां-शक्ति की चेतना में। जोहराबाई और उसके ‘यश-वर्णन’ की शर्म से वे अभी उबर भी नहीं पाई थीं कि ‘जोगन’ शब्द तीर की तरह लगा...मगर हिम्मत नहीं पड़ी। अगले दिन फिर किसी को साथ लेकर गईं। मियाँजी नहीं थे, उनका लड़का था। इधर-उधर कुछ देखती-टटोलती रहीं और चुपचाप जूतियों को कागज में लिपटवाया, जो पैसा मांगा, दिया और इस तरह झेंपती हुई छिपाकर ले गईं, जैसे अश्लील चित्रों की किताब हो...! अकेले में कमरा बंद करके देखा डरते-डरते : बहुत पुरानी, धूल-भरी, सिकुड़ी-मुचड़ी घिसी-घिसाई जूतियां थीं। कभी उन पर खूबसूरत जरदोजी का काम रहा होगा, अब तो काले-काले जाले-से रह गए थे। निश्चय ही मियांजी ने बातों का जाल खड़ा करके बहुत बेकार और दो कौड़ी की जूतियां भिड़ा दी हैं। मगर फिर यों ही, कुतूहलवश पांवों में फंसाया : सख्त थीं और चुभती थीं। फिर सोचा, जो कुछ भी मियांजी ने कहा, उसमें दस प्रतिशत भी सच रहा, तो ऐसा क्या था जोहराबाई के पास? वह हुनर कैसा होता है जो आदमी को हमेशा-हमेशा के लिए गुलाम बना ले? किस उम्र से, कैसे और कब तक साधा होगा जोहराबाई ने उस सिद्धि को?...और धीरे-धीरे वे किसी अनजान जोहराबाई के कोठे पर जा पहुंचीं...कहीं बहुत दूर से कानों में तबले और धुंघरू की आवाजें आने लगीं...और वे जैसे अपने-आप से उठकर कहीं पीछे और पीछे कुहासे में डूबती चली गईं : उन्हें लगा, उनके आगे एक रेशमी पारदर्शी पर्दोंवाला पलंग है-मसहरी की जालियों जैसा अंधेरा है और भीतर गुंथी हुई दो छायाएं हैं; गहरी सांसें, उत्तेजक सीत्कारें और आक्रामक कराहें हैं...
और फिर हमेशा ही यही होने लगा। ये जूतियां पहनतीं और उन्हें लगता, जैसे कोई बेहद मुलायम हाथों से उन्हें उठाकर वर्तमान से नोच लेता और किसी रहस्यमय लोक में फेंक देता है। वे अपने और जोहराबाई के अतीत की यात्रा पर निकल पड़तीं...फिर यह भेद भी जैसे गायब हो गया...किसी ने कभी बचपन में उन्हें सिंड्रैला नाम की लड़की की कहानी सुनाई थी और सचमुच मानने लगी थीं कि जरूर उस लड़की के साथ ऐसा ही हुआ होगा...जोहराबाई भी बहुत सुंदर रही होगी-लोग कहते हैं, वे खुद भी कम सुंदर नहीं हैं...लेकिन सुंदर होने की सार्थकता को जोहराबाई ने कैसे और किस बिंदु पर सिद्ध किया...?
झंकृत चेतना की ऐसी ही एक मूर्च्छना में उनके भीतर एक सवाल उठा : वर्तमान से उखड़कर सिर्फ अतीत की ही यात्रा क्यों हो? सपने सिर्फ एक ही दिशा में तो नहीं जाते...भविष्य की ओर भी तो जाते हैं! जा सकते हैं? और क्या काल में अतीत, वर्तमान, भविष्य जैसे विभाजन हैं? उन्हें लगता है, जैसे काल एक ऐसा ठंडा, पथराई बर्फ-सा फैलाव है जिसे हम सिर्फ अपनी स्थिति से, जहां और जिस बिंदु पर खड़े हैं, वहीं से बांट लेते हैं...वहां शायद ऐसा कुछ भी नहीं है-एक बार अगर आदमी अपने गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो सके, तो वह काल के इस फैलाव में कहीं भी, कितना भी जा सकता है...
इस निचाट सूने निर्जन फैलाव में तैरते हुए-से भटकना उन्हें बेहद-बेहद अच्छा लगता...मगर जैसे ही उन्हें लगता कि इस ‘भटकाव’ को समझ पाने, हृदयंगम कर सकनेवाली ‘भाषा’ उनकी पकड़ से छूट रही है, तो डूबते हुए आदमी की घुटन और बेचैनी से ‘लौटने’ को छटपटाने लगतीं...तब लगता, जैसे वे एक हवाई जहाज से कूद पड़ी हैं और छतरी खुल नहीं रही है...
तब अक्सर उन्हें अहसास होता जैसे वर्तमान एक कील है जो समय के चौड़े तख्ते पर उन्हें ईसा की तरह ठोंके हुए है : लेकिन जूतयां पैरों में हैं, इसी अनुभूति से यह कील ढीली होने लगती है और वे हल्की होकर हवा में तैरने लगती हैं...उस क्षण उन्हें बिलकुल भी भान नहीं रहता कि सिंहासन के हत्थों पर उनकी पकड़ कितनी कस गई है, या दांतों की पंक्तियां कैसे एक-दूसरे से जकड़ गई हैं, खूबसूरत चेहरा कितनी ऐंठन और पीड़ा से लाल हो जाता है...वे तो जोहराबाई के उस ‘गुरु’ को महसूस करना चाहती हैं, जो आदमी को हमेशा-हमेशा के लिए ‘कील’ देता है...पुरुष को किसी भी दूसरी प्रकृति के लिए एकदम निकम्मा और नपुंसक बना देता है...।
आज उन्होंने उन जूतियों पर सुंदर मखमल के गिलाफ़ सी लिए हैं, और अपने लंबे गेरुआ चोग़े से हमेशा उन्हें ढके रहती हैं, और जब कोई जिज्ञासु उनसे पूछता है कि वे साधना के किस स्तर पर सिद्धि की किस ऊंचाई तक पहुंच गई हैं, तो इस प्रश्न का अर्थ नहीं समझ पातीं। कोई जवाब उन्हें सूझता ही नहीं...कैसे दें उस ‘विलक्षण’ को शब्द? वे केवल मन-ही-मन यही कह पाती हैं, पता नहीं किस योगिनी, तपस्विनी की पादुकाएँ हैं कि मैं ‘मैं’ नहीं रह जाती, मुझे अपना होश ही नहीं रहता, शरीर गरमाती बर्फ की तरह पिघलता महसूस होता है, कानों में घुंघरू, झालर-घंटे से बजते सुनाई देते हैं...एक अजीब सुगंधित-सा कोहरा...चारों तरफ सिर्फ एक उजास...अंधेरों से लिपटता-सा एक उजाला, धुएँ में गुँथी एक लपट...
फिर चौंककर सहसा ‘चुप’ हो जाती हैं : कैसी घिसी-पिटी-सी बातें वे कह रही हैं...फिर होश आता है, कह कहां रही हैं। यह सब तो उनके भीतर ‘घटित’ हो रहा है...