सिनेमाई 'कोर्ट' में वकील जॉली / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :16 फरवरी 2017
हाल ही में प्रदर्शित सुभाष कपूर की फिल्म 'जॉली एलएलबी-2' एवं कुछ ही वर्ष पूर्व प्रदर्शित मराठी भाषा में बनी 'कोर्ट' एक ही तथ्य को रेखांकित करती हैं कि अदालतों से न्याय मिलना कितना कठिन और महंगा प्रयास है परंतु अंततोगत्वा मिल तो जाता है। इसका यह अर्थ कतई नहीं कि 'जॉली' 'कोर्ट' की नकल है परंतु श्रीलाल शुक्ल के 'राग दरबारी' में प्रस्तुत अदालत हमारी व्यवस्था 'राग' का 'स्थायी' है। मराठी भाषा में बनी 'कोर्ट' के फिल्मकार चैतन्य ताम्हाणे फिल्म बनाते समय मात्र 25 वर्ष के थे और अपनी इस फिल्म को बनाते समय उन्होंने अपनी कड़वी कुनैननुमा फिल्म पर चीनी की कोई परत नहीं चढ़ाई, बॉक्स ऑफिस की खातिर कोई समझौता भी नहीं किया। विदेशों में इस तरह के विषयों पर प्राय: वृत्तचित्र बनाया जाता है या वॉटरगेट पर आधारित सनसनीखेज फिल्म बनाई जाती है। ताम्हाणे दोनों ही राहतों से बचे हैं।
चैतन्य ताम्हाणे की 'कोर्ट' में दलित लोक कवि अपने वर्ग के उत्थान के प्रेरणा गीत गांव-गांव जाकर गाता है। उसके गीतों से व्यवस्था घबरा जाती है और उन्हें लगता है कि युवा वर्ग इन गीतों से प्रेरित होकर विद्रोह कर सकता है। अत: तय किया जाता है कि नारायण नामक इस लोक-गायक को किसी आपराधिक प्रकरण में फंसाया जाए। उन्हीं दिनों सड़क पर लोहे का पट (मैनहोल) हटाकर सफाई कर्मचारी भीतर जाकर सफाई का काम करते थे। उस बदबूदार जगह जाने के पूर्व वे शराब पीते थे ताकि नशे की गफलत में अपना काम कर सकें। अपने होशोहवास में कोई व्यक्ति उस बदबूदार नर्क में प्रवेश नहीं कर सकता। अाश्चर्य है कि आज इस तरह के कर्मचारी को गैस मास्क सरकार नहीं देती और इसके लिए नारायण के गीतों को दोषी माना जाता है और अजीबोगरीब मुकदमा कायम किया जाता है।
जब ज्वलंत समस्याओं पर भावना की गहराई से 'मसान,' 'वेडनेस डे,' 'ब्लैक फ्रायडे' और 'जॉली एलएलबी-2' की तरह फिल्में प्रदर्शित होती हैं तो सिनेमाघर संसद या कोर्ट की तरह हो जाते हैं और महत्वपूर्ण मुद्दे जेरे बहस होते हैं। सिनेमाघर प्राय: जलसाघर की तरह होते हैं, कभी-कभी कोठे की तरह भी होते हैं। कुछ फिल्मों में कोठियां भी कोठों की तरह दर्शक को दिखाई देती हैं। 'जॉली 2' में एक संवाद है कि जब भी दो लोगों में विवाद होता है और वे किसी नतीजे पर पहुंचते हुए नहीं लगते हैं तो कहते हैं कि अदालत जाएंगे गोयाकि अदालत आखिरी आशा है परंतु राजनीतिक दबाव जज पर भी डाले जाते हैं। जब कुएं में ही भांग पड़ी हो तो क्या कर सकते हैं।
अदालत और उसके फैसले कई तरह के हो सकते हैं। महान सोक्रेटीज पर आरोप थे कि वे अपने तर्क के रास्ते पर युवा वर्ग को गुमराह कर रहे हैं। उन्हें जहर पीने के लिए बाध्य किया गया। हम तो मीराबाई को भी जहर पीने के लिए बाध्य कर चुके हैं। जिस शोधकर्ता ने धरती को गोल कहा था, उसे भी पागल करार दिया गया था। नए रास्तों के अन्वेषण में खतरे तो होते ही हैं। चैतन्य ताम्हाणे की 'कोर्ट' हो या सुभाष कपूर की 'जॉली एलएलबी 2' हो इन फिल्मों ने कितना व्यवसाय किया या कितने इनाम प्रायोजित तमाशों में जीते यह महत्वपूर्ण नहीं है। इनका महत्व यह है कि ये दर्शक को सोचने और अपने भीतर झांकने की प्रेरणा देती हैं। इन फिल्मों में प्रस्तुत मुज़रिम के कटघरे में दरअसल हम सब खड़े हैं। नागरिकों के नैतिक मूल्यों से देश बनता है। भ्रष्ट नागरिकों द्वारा चुने हुए नेता कैसे दूध के धुले हो सकते हैं? हम जब भी एक उंगली किसी आरोपी की ओर उठाते है तो स्वत: चार उंगलियां स्वयं की ओर उठ जाती हैं। यह भी प्रचलित है कि पहला पत्थर वह मारे जिसने कभी कोई गुनाह नहीं किया हो।दरअसल, शोध का विषय यह है कि एक महान एवं प्राचीन सांस्कृतिक विरासत के उत्तराधिकारी हम इतने संकीर्ण व बौने कैसे हो गए? कहीं एेसा तो नहीं कि हमने ही उस संस्कृति को रोमेंटेसाइज करके उसके अफसाने रच लिए हैं, क्योंकि किस्सागोई तो हमारे रक्त में है।
रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां हैं, 'समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याज, जो तटस्थ है, समय लिखेगा उनका भी अपराध।' समाज में न सही सिनेमाई कोर्ट में ही सही, जॉली वकील का मौजूद रहना शुभ है।