सिनेमाई अखाड़े में आमिर खान का धोबी पछाड़ / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमाई अखाड़े में आमिर खान का धोबी पछाड़
प्रकाशन तिथि :23 दिसम्बर 2016


'लगान' से लेकर 'दंगल' तक आमिर खान ने सामाजिक सोद्‌देश्यता वाली मनोरंजक फिल्में गढ़ी हैं और गंभीर समस्या उठाने वाली फिल्मों में हास्य की लहर को बनाए रखा है ताकि दर्शक को गुदगुदी होती रहे और उसे जीवन मूल्यों पर विचार करने की प्रेरणा भी मिले। उनकी फिल्में समानांतर सिनेमा, जैसा कि प्राय: परिभाषित किया जाता है, को मुख्यधारा में इस तरह शामिल और समाहित करती हैं कि दर्शक के हृदय को मथते हुए दिमाग को सोचने पर मजबूर करती रहे। जाने कब से नारी विमर्श पर पन्ने रंगे जा रहे हैं परंतु 'दंगल' इस पर एक सार्थक दलील होते हुए भी आपको प्रसन्न करती है। भारत में पुत्र को हमेशा पिता के हाथ में तलवार और पुत्री को सिर पर लटकती हुई छुरी की तरह इस कदर प्रस्तुत किया गया है कि जाने कितनी पुत्रियों का जन्म के बाद ही गला घोंट दिया जाता है और अगर उन्हें पाला भी जाता है तो रूखी-सूखी रोटियां खिलाई जाती हैं और पौष्टिक भोजन पुत्रों के लिए सुरक्षित रखा जाता है, क्योंकि वंश पुत्र ही चलाते हैं जैसी भ्रामक बातें हमारे पुराने आख्यानों ने सत्य की तरह अवचेतन में स्थापित कर दी हैं।

'दंगल' का पहलवान नायक भी इसी भ्रांति का शिकार है परंतु शीघ्र ही वह इससे ऊपर उठकर अपनी पुत्रियों के शारीरिक व चारित्रिक स्वरूप को मजबूत बनाने में जुट जाता है। तथाकथित पारम्परिक मूल्यों की प्रतिक्रियावादी ताकतें उसका विरोध करती हैं। कुछ समय पूर्व ही हमारे देश की सत्ता के शिखर ने बचकाना बयान दिया था कि 'बेटियां नहीं बचाओगे तो रोटियां कौन बेलेगा।' विगत हजारों वर्षों में महिला का इतना बड़ा अपमान किसी ने नहीं किया। कब से गुजर गया वह काला कालखंड जब महिला को चूल्हे-चौके की संकीर्ण सरहद में बांधकर रखा गया था। महिलाएं विमान चलाती हैं, प्रयोगशाला में शोध करती हैं, वे बैंकर भी हैं और हर क्षेत्र में निहायत ही बैंकेबल अर्थात विश्वसनीय मानी जाती हैं। भारत के अलावा बांग्लादेश, श्रीलंका और ब्रिटेन में महिलाएं प्रधानमंत्री पद पर रही हैं।

दशकों पूर्व सिमोन बूब्वा ने लिखा था कि मध्यम वर्ग की महिला जब बुर्जुआ प्रसाधन सामग्री को फेंककर अपने पूरे शारीरिक सौंदर्य के साथ अपने को सारे आवरणों से मुक्त करके सामने खड़ी हो जाती है तो अपने को बड़ा मर्द मानने वालों के पैर कांपने लगते हैं। सारा पाखंड समाप्त हो जाता है। जिस शरीर की कामना में लम्पट लोग सदा लार टपकाते रहते हैं, उस शरीर को आवरणों से मुक्त देखते हैं तो उसके ताप को सह नहीं पाते। कोई दुष्कर्म एक के साथ एक के बीच नहीं होता, समूह बनकर ही यह मर्दानगी उजागर होती है या महिला को बेहोश करके होता है।

बहरहाल, 'दंगल' पिता व पुत्रियों की कहानी है। यह उस साहसी व्यक्ति की कथा है, जिसे अपने सपनों पर यकीन है और वह उन्हें पूरा करने के लिए खुद को भी फना करने से पीछे नहीं हटता। हरियाणवी लहजे में बयां संवाद सीधे दिल में प्रवेश कर जाते हैं। यह भी गौरतलब है कि आमिर खान ने अपनी 'लगान' अवधी में बनाई थी और 'दंगल' में हरियाणवी अपनी संपूर्ण सार्थकता,संगीत व सौंदर्य के साथ प्रकट होती है। किसी धर्म विशेष के लोगों से उनकी भारतीयता पर प्रश्न उठाने वालों को यह जान लेना चाहिए कि आमिर खान अवधी एवं हरियाणवी में उजागर होते हैं जैसे उनके आदर्श पुरुष दिलीप कुमार 'गंगा जमना' में हुए थे।

बहरहाल, फिल्म में दो बहनों के संबंध को भी भावुकता की चाशनी में पगे लिजलिजेपन से बचाते हुए, एक मजबूती दी गई है और रेखांकित किया है कि 'बहनापा' कैसे सार्थकता पाता है। फिल्म में छोटी बहन ही अपनी गुमराह होती बड़ी बहन को उसका कर्तव्य स्मरण कराती है तथा क्लाइमैक्स की कुश्ती के पहले समझाइश देती है कि उनका पिता जरूर बूढ़ा हो गया है परंतु उसके सिखाए पैंतरे सदैव सफलता दिला सकते हैं। छोटे कस्बे की नायिका बड़े शहर की चकाचौंध में खो जाती है, बाजार की चमक-दमक उसे मंत्रमुग्ध करने लगती है। बाजार की बीन बजने पर सोचने-समझने वाले भी नाग की तरह डोलने है। ऐसे समय 'छुटकी' ही 'बड़की' को बाजार के मायाजाल से मुक्त कराती है।

दरअसल, 'दंगल' पारिवारिक रिश्तोंके धागों के उलझने और सुलझने की कथा है और कुश्ती तो केवल वह माध्यम है, जिससे रिश्तों की कथा बयां होती है। 'लगान' में जो क्रिकेट था, वही 'दंगल' में कुश्ती है और दोनों ही फिल्मों में मनुष्य की संकल्प शक्ति प्रदर्शित की गई है। दोनों ही फिल्मों में पराजय मुंह बाए खड़ी है और उसे विजय में बदला जाता है। दोनों ही फिल्में साधनहीन आम आदमी की भीतरी शक्ति की कहानियां हैं। आमिर खान दिमाग से सोचते हैं और दिल से काम करते हैं। आमिर खान पात्रों के लिए कलाकार के चयन पर बहुत ध्यान देते हैं। फिल्म की नायिका का शरीर चुस्त-दुरुस्त है अौर भावना अभिव्यक्त करना भी जानती है। अपनी पहली ही फिल्म में वह सदियों में कमाए हुए अनुभवी की तरह लगती है, जिसके लिए निर्देशक व निर्माता ने कितनी मेहनत की होगी इसकी कल्पना करना भी कठिन है। फिल्म के निर्देशक ने अपनी पहली फिल्म 'चिल्लर पार्टी' में जो आशा जगाई थी, वे उसे 'दंगल' में पूरा करते हैं और भविष्य में वे मनोरंजन का इतिहास ही लिखेंगे। फिल्म में कुश्ती संघ केवल रुकावट ही बनता है। सच तो यह है कि सारे संगठन ही मनुष्य को रोकते हैं। सरकार और उसके सारे मूढ़ दफ्तरों के बावजूद कुछ लोग अपने बलबूते सार्थकता अर्जित करते हैं। फिल्म बहुत कुछ कहती है।