सिनेमाई खिड़की से विश्व दर्शन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :09 मार्च 2018
दिल्ली के अनन्य प्रकाशन द्वारा जारी की गई राकेश मित्तल [[1]] की किताब 'विश्व सिनेमा की सौ सर्वश्रेष्ठ फिल्में' अपने ढाई सौ पेज में जानकारियों का समुद्र समाहित किए हुए है। टेक्नोलॉजी ने यह संभव कर दिया है कि कस्बाई व्यक्ति भी मोबाइल पर ताजा फिल्में देख सकता है परंतु मील का पत्थर सिद्ध हुई फिल्मों को खोजना पड़ता है। राकेश मित्तल की किताब दर्शक का पथ प्रदर्शन कर सकती है। इसे पढ़कर इसमें वर्णित फिल्मों को देखने की इच्छा पैदा हो सकती है। किताब के अनुक्रम में ही फिल्म के नाम के साथ उसका केन्द्रीय विचार प्रकट करने वाली पंक्तियां ही सब कुछ उजागर कर देती है। ये पंक्तियां कविता की तरह लगती हैं, बानगी प्रस्तुत है-
'अभिजात्य समाज की आचार संहिता', 'एक तबाह होते शहर का प्रतिरोध', 'रिश्तों में उलझी संवेदनाएं', 'निर्मम व्यवस्था का शिकार आम आदमी', 'दर्द की लहरों पर उम्मीद की कश्ती', 'ईश्वरीय सत्ता को शैतान की चुनौती', 'उखड़ती सांसों में बिखरती ज़िंदगी', 'एक विघटित समाज की पीड़ा', 'अध्यात्म के स्वरों में मृत्यु का ज्ञान', 'पीढ़ियों के टकराव में रिश्तों की उलझनें', 'स्त्री के मशीन हो जाने की दुविधा', 'रिश्तों के पहाड़ चढ़ता डाकिया', 'महल की खामोश सिसकियां', 'बोलती आंखों की रहस्यमयी खामोशी', 'जीवन रथ का उल्टा पहिया', 'लालच के समुद्र में उफनती आकांक्षाएं'। इन पंक्तियों को सिलसिला देने पर यह कविता लगती है। इन पंक्तियों से आप क्यूबिक नुमा दिमागी खेल खेल सकते हैं।
राकेश मित्तल ने विज्ञान में स्नातक डिग्री हासिल की, वकालत की परीक्षा भी पास की, चार्टर्ड अकाउन्टेंट बनने का इम्तिहान कठिन होता है। बमुश्किल दस प्रतिशत लोग ही सफल होते हैं। इस परीक्षा में असफल होने वाले कई लोग इस व्यवसाय में आ गए हैं। अब जीएसटी लागू होने के बाद चार्टर्ड अकाउन्टेंट की मांग भी बढ़ गई है। वकील का बनाया बजट है तो अनेक प्रकरण अदालत जाएंगे ही। इस तरह की शैक्षणिक पृष्ठभूमि वाले राकेश मित्तल को सिनेमा से इश्क हो गया है, लंबी मुद्दत से यह मर्ज चल रहा है। इस मर्ज की विशेषता है कि 'सबक जिसको याद हुआ उसे छुट्टी न मिली'। राकेश मित्तल ने अपने मर्ज का दर्द अकेले न सहते हुए, अनेक को शामिल कर लिया। वे चुनिंदा फिल्मों का प्रदर्शन करते हैं। उन्होंने एक फिल्म क्लब का निर्माण किया है जिसके अधिकारी भी वे हैं, मुनीम भी हैं और डाकिया भी हैं। वे अकेले ही सिने क्लब के सारे कार्य करते हैं। सदस्य का सालाना शुल्क समाप्त होने के बाद भी उसे निमंत्रित किया जाता है। इस तरह सिनेमाई इश्क के मारे सारे लोग विरल फिल्में देखते हैं।
अनेक दशक पूर्व सत्यजीत रे ने कलकत्ता में फिल्म क्लब का गठन किया था और कालांतर में वे श्रेष्ठ फिल्मकार बन गए। राकेश मित्तल के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। वे यूरोप की लगभग तीस एनजीओ संस्थाओं के चार्टर्ड अकाउन्टेंट हैं। इसलिए उन्होंने यूरोप के अनेक दौरे किए हैं और उनके पासपोर्ट पर लगे ठप्पे उनकी यायावर प्रवृत्ति का प्रमाण पत्र है। एक सामान्य व्यक्ति जितनी बार बाजार जाता है, उतनी यूरोप यात्राएं वे कर चुके हैं। पुस्तक में वर्णित अनेक फिल्में उन्होंने अपनी ऐसी ही यात्राओं में देखी हैं। आंकड़ों के व्यवसाय में तल्लीन इस व्यक्ति ने अपनी संवेदनाएं खोई नहीं हैं। गौरतलब यह यक्ष प्रश्न है कि क्या सिनेमा ने उन्हें संवेदनशील बनाया है या संवेदना के ज्वार उन्हें सिनेमा तट लाते रहे हैं। इस बाजार युग में सेल्समैन बनना आसान है परन्तु सिनेमाघर के अंधेरे में किरण परी के दर्शन आसान नहीं हैं। राकेश मित्तल को तो सिनेमाई किरण परी से इश्क ही हो गया है। के. आसिफ की 'लव एंड गॉड' के एक दृश्य में हाकिम नमाज अदा कर रहा है और उसके सामने से लैला के जुनून में डूबा मजनूं गुजरता है तो हाकिम नाराज होकर उसे डांटता है।
मजनूं जवाब देता है कि लैला की याद में बदहवास उसने एक नमाजी को दखल पहुंचाया है परंतु यह वह नमाजी है कि सजदे में झुके हुए भी एक आदमी का सामने से जाना उसे दिख गया। अगर उसे खुदा से सच्चा प्रेम होता तो उसे कोई और नज़र ही नहीं आता। यह दृश्य पटकथा में लिखा था और शूट भी किया गया था परंतु के. आसिफ की मृत्यु के बाद केसी बोकाड़िया ने अपनी समझ से जैसे-तैसे आधी-अधूरी फिल्म का प्रदर्शन कर दिया। केसी बोकाड़िया ने साहस दिखाया परंतु उनके पास के. आसिफ का माद्दा और नज़रिया नहीं था। इसलिए यह दृश्य शामिल नहीं किया गया।