सिनेमाई दंगल और वीकेंड का जीवन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :04 जनवरी 2016
इस वर्ष क्रिकेट तमाशा समाप्त होने के बाद जून में रणबीर कपूर और कटरीना कैफ अभिनीत अनुराग बसु की 'जग्गा जासूस' के साथ 'हाउसफुल-3' लगने की संभावना है। ईद पर शाहरुख खान अभिनीत फरहान अख्तर की 'रईस' जिसमें पाकिस्तान की हीरोइन है और सलमान खान अभिनीत आदित्य चोपड़ा की 'सुल्तान' प्रदर्शित होगी। 12 अगस्त को आशुतोष गोवारिकर की 'मोहन जोदड़ो' और "रुस्तम' टकराने वाली है। दीपावली के पावन उत्सव पर करण जौहर की रणबीर कपूर, एेश्वर्या राय और अनुष्का अभिनीत 'एे दिल है मुश्किल' के साथ अजय देवगन की महत्वाकांक्षी 'शिवाय' का प्रदर्शन संभव है। दिसंबर के तीसरे सप्ताह में आमिर खान अभिनीत 'दंगल' और राजामौली की 'बाहुबली भाग दो' के लगने की प्रबल संभावना है अर्थात नया वर्ष हाथियों की भिड़ंत का वर्ष होगा और एकल सिनेमा के सदैव से दुखियारों को भी चुनाव की स्वतंत्रता होगी। मल्टीप्लेक्स के चार स्क्रीन में मजे से दो फिल्में लग सकती हैं और दर्शक के टिकिट मूल्य से अधिक पॉपकोर्न और शीतल शेय बेचने से कमाई होती है। मल्टी की कमाई में फिल्म ट्रेलर समान और पॉपकोर्न फिल्म के समान हो जाती है। यह उदारवाद का परिणाम है।
एकल सिनेमा ही 103 वर्ष के कथा फिल्म इतिहास में आर्थिक रीड़ की हड्डी रहा है, जो अब चरमरा गई है; क्योंकि समाज का रुख बदल गया है। एकल के दर्शक को मल्टी के दर्शक से कमतर आंका जाता है, जबकि उसकी सिनेमाई समझ जन्मजात है और मल्टी का दर्शक खुद को दिखाने या ताकाझांकी के लिए जाता है। वातानुकूलित साउंड प्रूफ मल्टी में पॉपकोर्न चबाने की ध्वनि टूटते समाज की बेसुरी धुन की तरह है और एकल सिनेमा में मूंगफली खाने की आवाज धरती की आवाज की तरह है। भारतीय सिनेमा उद्योग अपनी कथा में भले ही समाजवादी हो परंतु उसके माद्दे को उसी समय आंका जा सकता है, जब देश में तीस हजार एकल सिनेमा हों और यह काम पूंजीवादी ही कर सकते है, क्योंकि अब केवल उनकी आवाज में ही दम है। व्यवस्था ही उनकी है। इस वर्ष सितारा जड़ित भव्य फिल्मों का दंगल होगा और एकल सिनेमा की कमी भी रेखांकित होगी। हमारे हर प्रकार की चीज बेचने वाले कहीं भी अपनी दुकान खोलते हैं और उन पर शॉप एंड एस्टेब्लिशमेंट एक्ट लागू होता है। सिनेमाघर भी फिल्म उद्योग की दुकान है, फिर उसकी लाइसेंसिग प्रणाली इतनी जटिल क्यों है? किसी भी अधिकारी से बात करें तो वह बार्डर के प्रदर्शन के दौरान दिल्ली के सिनेमा में आग लगने का उदाहरण देता है। एक सौ तीन वर्ष के इतिहास में यह पहली दुर्घटना है और इसे बहाने की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
मुंबई के मंत्रालय भवन में ही आग लग गई थी। हर रहवासी के घर में आग लगने की खबरों का मामूली परीक्षण होता है और घरों में आग लगती है। दहेज नहीं मिलने के कारण कितनी महिलाएं जिंदा जलाई गई हैं और यह आग थमने का नाम ही नहीं लेती। पहले हजार सीट के सिनेमा बनते थे और आज मात्र डेढ़ सौ सीट के सिनेमा घर की आवश्यकता है। अत: दर्शकों की भीड़ से सार्वजनिक जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता। सच तो यह है कि सिनेमा घर में कितनी भी सीट लगी हों, भीड़ केवल पहले तीन दिन ही रहती है। यह वीकेंड उद्योग रह गया है। अाज जनता के पास मनोरंजन के बहुत विकल्प हैं। चौथे दिन तो खाली-खाली सीटे हैं और सिनेमाघर परिंदों का रैन बसेरे रह जाता है। सिनेमा ही नहीं पूरा सामाजिक जीवन वीकेंड बनकर रह गया है। प्राय: कॉर्पोरेट दफ्तर में शुक्रवार की शाम से बेचैनी छा जाती है। सबको पांच बजे का इंतजार सुबह दस बजे से शुरू हो जाता है और सोमवार को हैंगओवर लेकर लौटते हैं, जो वीकेंड में अधिक शराबनोशी का परिणाम है। मंगलवार और बुधवार को पूरी क्षमता से काम होता है और गुरुवार से ही वीकेंड का इंतजार शुरू हो जाता है। कभी तीज त्यौहर के कारण चार दिन का वीकेंड हो जाता है, जो सपनों के साकार होने की तरह है।
इस प्रवृति का कारण एक अनवरन ऊब और अकारण क्रोध है, क्योंकि हमने अपने काम को कभी धर्म माना ही नहीं। हमारे देश में प्रतिदिन गीता बाचने वाला भी कर्म के लिए तैयार नहीं है। संभवत: गीता में ही यह भी लिखा है कि मनुष्य का सारा कार्यकलाप और जीवन-मरण पहले से ही लिखा है, वह तो पटकथा मेंअपनी भूमिका भर का निर्वाह कर रहा है। ये सब गलत व्याख्याओं का परिणाम है।