सिनेमाई राजमा बनाम पिज्ज़ा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :15 अप्रैल 2016
धर्मेंद्र के सुपुत्र सनी देओल के ज्येष्ट पुत्र को फिल्म में प्रस्तुत किया जा रहा है। धर्मेंद्र ने अपने पुत्र सनी को राहुल रवैल के निर्देशन में 'बेताब' में प्रस्तुत किया था परंतु सनी अपने पुत्र को स्वयं ही निर्देशित करने जा रहे हैं। इस तरह देओल परिवार की तीसरी पीढ़ी अभिनय क्षेत्र में आ रही है। मुंबई के जुहू स्थित धर्मेंद्र की कोठी को पंजाब का पिंड माना जाता रहा है और उसमें बंबईयत का प्रवेश नहीं हो पाया। धर्मेंद्र के सगे भाई अजीत सिंह का बेटा अभय पहला देओल था, जिसने स्वतंत्र फ्लैट में रहना पसंद किया। सनी ने अभय की इम्तियाज अली निर्देशित फिल्म में धन लगाया था और उसी कथा में फेरबदल कर इम्तियाज अली ने 'जब वी मेट' बनाई थी, जो इतने वर्षों बाद भी उनकी सबसे मनोरंजक व संतोष देने वाली फिल्म है। उनकी सबसे महत्वकांक्षी फिल्म 'रॉक स्टार' केवल रणवीर कपूर के जीवंत अभिनय के लिए याद की जाएगी और उनकी 'तमाशा' ने भी दर्शक को निराश ही किया।
इम्तियाज अली ने अपनी पहली फिल्म में ही ताज़गी और रिश्तों में नई ऊर्जा को प्रस्तुत किया था परंतु 'रॉकस्टार' और 'तमाशा' ने थोड़ा निराश किया। उन्होंने रणवीर कपूर की सहायता से राज कपूर की सुपुत्री रीमा के बेटे को अपने भाई की फिल्म में लिया और घोर असफलता ने बेचारे रीमा पुत्र का कॅरिअर लगभग चौपट ही कर दिया है। इम्तियाज अपने भाई को एक अवसर दिला रहे हैं परंतु रीमा के पुत्र के लिए वे कुछ नहीं करना चाहते। रीमा ने इस कड़वाहट से परिवार को बचाए रखा है। इम्तियाज दुविधाग्रस्त हैं और 'जब वी मेट' की सहज गीतात्मकता अब फिल्मों में नहीं ला पा रहे हैं। फिल्म भाषा और ग्रामर में प्रयोग की खातिर वे दिल को छूने वाली फिल्म नहीं बना पा रहे हैं। उनके पहले राम गोपाल वर्मा और अनुराग कश्यप भी फिल्म ग्रामर के प्रयोगों में सहज सिनेमाई भाषा भूल चुके थे। हमारे फिल्मकार सारा समय विदेशी फिल्म देखते रहते हैं और उन फिल्मों का गहरा प्रभाव उन पर पड़ता है। वे अपने उद्योग में बनी पुरानी फिल्में नहीं देखते और अपनी सोच के इस अर्थ में नॉन रेजीडेंट इंडियन माने जा सकते हैं। वे इस अर्थ में अाप्रवासी भारतीय हैं कि भारत में रहते हुए भी उनका मन विदेशी रंग में रमा रहता है। आर्थिक उदारवाद के बाद इस तरह के लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। वे लोग अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव में भारतीय चुनाव से अधिक रुचि लेते हैं।
भारत के अमीर भी अपनी कमाई को विदेश में रखने को सुरक्षित मानते हैं। उनकी संतानें भी विदेश में पढ़ती हैं। हमारे इस पश्चिमोन्मुखी दृष्टिकोण का कारण हमारे लंबे समय तक गुलाम रहने को देना त्रुटिपूर्ण है। हमारे अपने देश की अस्थिरता ही इसका असली कारण है। यह हमारी बीमार व्यवस्था का परिणाम है। हमने अपनी अधिकतम आबादी को मुफलिसी और भूखमरी की हालत में रखा है और चंद चुनिंदा लोगों के लिए सारी सुविधाएं उपलब्ध की हैं। असमानता, अन्याय और शोषण आधारित व्यवस्था में सबसे बड़ी हानि विश्वसनीयता की है। यह विश्वसनीयता का टूटना ही लोगों को पश्चिम की ओर धकेलता है। विश्वास और विज्ञान का सूर्य अगर पश्चिम से उगता है तो मुर्गे उसी के लिए बाग देंगे। एक दौर में आयकर अधिक था परंतु वह कोई कारण नहीं था, क्योंकि टैक्स चोरी तो हमने अंग्रेजों के दौर में ही प्रारंभ कर दी था परंतु उस दौर में इसे देशभक्ति माना गया! स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद इस 'देशभक्ति' ने विराट रूप ले लिया। गलत काम को किसी भी दौर में जायज ठहराने पर ये तो होना ही है। सिनेमाई अर्थ में इम्तियाज अली अब पश्चिम हो गए हैं। जब उन्होंने अभय देओल के साथ फिल्म की थी तो वे पूर्व थे। सनी देओल लस्सी पीने और राजमा-चावल खाने वाले पंजाबी हैं। अत: वे 'पूर्व' हो गए इम्तियाज अली से अपने बेटे की फिल्म नहीं बनवाएंगे, जो अब सिनेमाई दृष्टिकोण के लिहाज से 'पश्चिम' हो गए हैं। यहां 'पूर्व' और 'पश्चिम' का प्रयोग महज तकनीक बनाम कथा के द्वंद्व का द्योतक है और इसे संस्कृतियों से नहीं जोड़ा जा सकता। सिनेमा में तकनीक के हिमायती तो कथा को भी गैर-जरूरी मानते हैं। इनको एक-दूसरे का पूरक मानने के सिवाय कोई रास्त नहीं है। सिनेमा विधा के मुट्ठीभर जानकार तकनीक को कथा के ऊपर रख सकते हैं परंतु दर्शक कथा की खातिर ही फिल्म देखता है। भारत तो कथा-वाचकों और श्रोताओं का अनंत देश है। कथा का भावना पक्ष ही महत्वपूर्ण है।
यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि जैसे-जैसे फिल्मकार तकनीक को जानने लगता है, वैसे-वैसे वह अपनी गीतात्मकता छोड़ता जाता है। अधिकांश दर्शक फिल्म में गीतात्मकता के बहाव में बहते हैं। सिनेमा को 'मूव्हीज' इसलिए नहीं कहते कि उसकी रीलें चलती हैं वरन् सिनेमाघर में सीट पर स्थिर बैठे दर्शक के मन में भावना दौड़ती है। उसकी शारीरिक स्थिरता में सिनेमा की गति मौजूद है जैसे घूमता लट्टू ऊपर से देखने पर स्थिर नज़र आता है। सिनेमा की कविता, उसके गद्य और ग्रामर पर भारी पड़ती है। कोई आश्चर्य नहीं कि संसार की सारी महान किताबें पद्य में रची गई हैं।