सिनेमाई संसद और फिल्मी नेता / जयप्रकाश चौकसे
सिनेमाई संसद और फिल्मी नेता
प्रकाशन तिथि : 07 सितम्बर 2012
अंतरराष्ट्रीय ख्याति की पत्रिका 'टाइम' के मुखपृष्ठ पर आमिर खान की तस्वीर है और हमेशा की तरह पश्चिम की स्वीकृति और अनुशंसा को आतुर लोगों के लिए यह गौरव की बात है, परंतु इस कवर के न आने पर भी आमिर खान के कार्यक्रम 'सत्यमेव जयते' को काबिले तारीफ माना गया है। हर अच्छे कार्य के परिणाम के प्रति शंका करने वाले सनकी लोग यह कहते नहीं अघाते कि आमिर खान के कार्यक्रम से समाज में कोई सुधार नहीं आया है। उत्तंग लहरें किनारे की चट्टान पर सिर धुनकर लौट जाती हैं तो इसे लहरों की विफलता नहीं समझना चाहिए। लहरों की मार लगातार पडऩे से चट्टान टूटेगी। हर लहर पत्थर की भीतरी बुनावट के तंतुओं को विचलित करती है और टूटने की प्रक्रिया लंबी चलती है। आमिर खान द्वारा उठाए मुद्दों में से अधिकांश को गांधीजी ने अपने स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनाया था और उस जादुई दौर में कुछ लोगों पर प्रभाव भी पड़ा था। कुरीतियों को पूरी तरह से मिटाने में गांधीजी सफल नहीं हुए, परंतु इससे उनके प्रयास का महत्व नहीं घट जाता।
'टाइम' की कवर स्टोरी में कहा गया है कि भारतीय लोग चार अरब सिनेमा टिकट वर्षभर में खरीदकर विभिन्न भाषाओं में बनी हजार से अधिक फिल्में देखते हैं, जबकि अमेरिका में सालभर में लगभग १८० फिल्मों के लिए १.२ अरब सिनेमा टिकट बिकते हैं। स्पष्ट है कि सबसे बड़ा सिनेमा दर्शक वर्ग भारतीय लोगों का है, जबकि आज भी हजारों छोटे शहरों और कस्बों में सिनेमाघर नहीं हैं। एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों के देश में मात्र एक हजार सिनेमा ही हैं और अधिक जनसंख्या वाले प्रांतों में सबसे कम सिनेमाघर हैं, अत: हम सिने व्यवसाय में अभी बाल-अवस्था में हैं। इसके बावजूद सिनेमा के प्रति लोगों में अवर्णनीय जुनून है और सितारों को हमने जरूरत से अधिक महत्व दे दिया है। सबसे दुखद पहलू यह है कि सांस्कृतिक शून्य को सिनेमा की लोकप्रिय अपसंस्कृति से भरने का प्रयास किया जा रहा है। सितारों की लोकप्रियता ने स्वयं उनके लिए एक वैकल्पिक संसार रच दिया है और इन परिस्थितियों में आमिर खान के सामाजिक मुद्दे उठाने का महत्व है। कुरीतियों के लिए भारत की जमीन हमेशा उर्वर रही है, अच्छे विचारों के पौधे काल कवलित हो जाते हैं। दरअसल कुरीतियां ही अजर-अमर हैं। उनकी शक्ति भारतीय मन में विद्यमान है, जो पौराणिकता के धागों से बना है। कार्य-संस्कृति का अभाव हमारी अपनी पसंद है और हमारी कुंभकर्णी प्रवृत्तियों ने उसका पोषण किया है।
कुछ फिल्मी स्वयंभू विशेषज्ञों को भय है कि आमिर खान की सितारा लोकप्रियता उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों के कारण कम हो सकती है, क्योंकि अनेक समुदाय उनसे रूठे हुए हैं। यह निराधार भय है। बोफोर्स कांड में अमिताभ बच्चन का हाथ होने के तूफानी अफवाहों के दौर में उनकी 'शहंशाह' प्रदर्शित हुई थी और उसे देखने प्रारंभिक भीड़ उमड़ पड़ी थी। हमारे सितारा मोहित दर्शक अन्य मामलों के अतिरिक्त भार के साथ फिल्म देखने नहीं जाते। अगर दाऊद अपने जीवन से प्रेरित फिल्म में स्वयं अभिनय करे, तो भी उसके आलोचक फिल्म देखने जाएंगे। हमारे मनोरंजन के चुनाव अन्य क्षेत्रों से हमने अलग रखे हैं। संजय दत्त मुंबई बम कांड के कारण जेल गए और छूटने पर उनकी 'खलनायक' को पसंद किया गया। कुछ वर्ष पूर्व टेलीविजन पर बाल विवाह के खिलाफ एक लोकप्रिय सीरियल का प्रसारण हुआ और जिन प्रदेशों में वह अत्यंत सराहा गया, उन्हीं प्रदेशों में अगले वर्ष अधिक बाल विवाह संपन्न हुए। यह बात अलग है कि सारे सीरियल कुप्रथा के विरोध में खड़े किए जाते हैं और लोकप्रियता मिलते ही वे कुप्रथा का बचाव ही नहीं करते, वरन उसे मजबूत बना देते हैं।
यह गौरतलब है कि 'टाइम' के समय ही 'वॉशिंगटन पोस्ट' ने मनमोहन सिंह की आलोचना की है। यह हमारा कालखंड है कि अमेरिका की एक पत्रिका भारत के सितारे को नवाज रही है और एक अमेरिकी अखबार प्रधानमंत्री की आलोचना कर रहा है। सिनेमा संसद हो गया है और राजनीति सिनेमाई हो गई है, परंतु कुरीतियां, कुप्रथाएं और उनके लिए जनता का मोह हिमालय की तरह अडिग खड़ा है।