सिनेमाघरों कि विविधता / जयप्रकाश चौकसे
सिनेमाघरों की विविधता
प्रकाशन तिथि : 30 जुलाई 2012
अमेरिका में कथा फिल्मों का विकास तेजी से हुआ और वहां के लोगों का भव्यता के प्रति आग्रह भी रहा है- बड़ी कारें, बड़ा बर्गर, बड़ा बंगला और ऊंची भव्य इमारतें। इसी तरह सिनेमा में भी 'लार्जर दैन लाइफ' पात्रों, परिवेश और इमारतों का समावेश हुआ। नायक साधारण पात्र नहीं, वरन एक ही समय में अनेक लोगों को पीटने में सक्षम होता। इसी तर्ज पर दुनिया के तमाम देशों में 'लार्जर दैन लाइफ' नायकों को प्रस्तुत किया गया। आम आदमी भी 'लार्जर दैन लाइफ' पात्रों के कारनामों में स्वयं की कमतरी को भुलाने का प्रयास करता है।
आज सिनेमा में 'लार्जर' शब्द फिल्म के प्रदर्शन क्षेत्र का प्रेरक मंत्र बनने जा रहा है। मुंबई के वडाला क्षेत्र में मनमोहन शेट्टी ने एक आइमैक्स विधा का सिनेमाघर बनाया था, जिसके हॉल में सिनेमा का परदा आधी छत को घेरता हुआ नीचे तक फैला हुआ था। आइमैक्स विधा में 6 कैमरों से शूट की गई विराट छवि 6 प्रोजेक्शन मशीनों द्वारा दिखाई जाती थी। गौरतलब है कि इस विधा के सिनेमाघर प्राय: गोलाकार होते हैं और ऐसा आभास दिया जाता है, मानो गोल दुनिया के बीच रंगमंच है। इसमें शेक्सपीयर की ये पंक्तियां चरितार्थ होती हैं कि पूरी दुनिया एक रंगमंच है और हम सभी यहां अपनी-अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं। उस समय तक दुनिया में ८५ आइमैक्स सिनेमाघर थे, जिनके लिए ४५ मिनट की फिल्में रची जाती थीं, क्योंकि मनुष्य विशेष कोचनुमा सीट पर सीधे लेटकर फिल्म देखता था। इस दशा में 45 मिनट से ज्यादा लेटना सेहत के लिए हानिकारक हो सकता था।
अब आइमैक्स टेक्नोलॉजी में प्रगति हुई है और एक ही मशीन से विराट आकृति दिखाई जा सकती है। अब शूटिंग भी एक ही कैमरे से होती है जो खास इसके लिए बनाया गया है। अब लेटकर देखने वाली कुर्सियों को बदला जा सकता है। परदा भी आधी छत से बड़ा होता है और सामने लगाया जा सकता है। इसमेें बैठा दर्शक स्वयं को पात्र के निकट पाता है और तमाशे के अंग बन जाने का उसे भ्रम होता है। आजकल वडाला, मुंबई में क्रिस्टोफर नोलन की 'डार्क नाइट राइजेस' चल रही है और हर शो हाउसफुल जा रहा है, जबकि शहर के अन्य सिनेमाघरों में फिल्म को चालीस प्रतिशत दर्शक मिल रहे हैं।
इस विधा में ढली जेम्स कैमरॉन की 'अवतार' वडाला में १९ सप्ताह तक चली। बेंगलुरु में भी ऐसा ही सिनेमाघर है। अत: अब अनेक कॉर्पोरेट कंपनियां इसी तरह का सिनेमाघर बना रही हैं या मल्टीप्लैक्स परिसर में एक सिनेमाघर इस तरह का बनाया जा रहा है। विदेशों में भी यह विधा दिन प्रतिदिन लोकप्रिय हो रही है।
भारत में अब तक किसी निर्माता का ध्यान इस ओर नहीं गया है। सोहेल की सलमान खान अभिनीत 'शेर खान' को इसी ढंग से फिल्माने के लिए अमेरिका के विशेषज्ञ से बात की जा रही है। संभवत: आमिर अभिनीत आदित्य चोपड़ा की 'धूम ३' भी इसी तरह बनाई जा रही है। इस आइमैक्स में फिल्म देखना एक विरल अनुभव है। टेलीविजन पर फिल्म देखने के अभ्यस्त व्यक्ति को इस भव्यता की कल्पना नहीं हो सकती।
टेक्नोलॉजी निरंतर नए आविष्कार करती है। वह गर्भवती सर्पिणी की तरह कतार में अनेक अंडे देती है और पेट खाली होने पर लौटकर अपने ही अंडे खाने लगती है। कतार से बाहर लुढ़के कुछ अंडे बच जाते हैं। टेक्नोलॉजी से जन्मी सिनेमा की विधा ऐसी ही कतार से लुढ़ककर अपनी निज रूप बदलने की क्षमता के कारण ही अपने सौ वर्ष का सफर पार कर चुकी है और आज भी उसका आकर्षण कम नहीं हुआ है। इस बात में गौरतलब यह है कि कतार से हट जाने में ही बचे रहने की संभावना है। अत: यह फॉर्मूले के खिलाफ है। हिंदुस्तानी सिनेमा के सौ वर्षों में भी अधिकतम सफल फिल्में लीक से हटकर बनी फिल्में हैं।
राजनीति में भी वोटर का भेडिय़ाधसान ही कहर ढाता है। चुनाव जीतने के बाद क्षेत्र का नेता अपने कार्यकताओं और सहायकों को झोपड़-पट्टी के विकास की आज्ञा दिलाते हुए अपने ही क्षेत्र को भीड़भरा गंदला क्षेत्र बना देता है। उसके छुटभैये ही कानून तोड़ते हैं और वह उनकी रक्षा करता है। अपने दुर्भाग्य के लिए किसी को दोष देना आसान और सरल है, जबकि हम स्वयं सबसे बड़े दोषी हैं। हम न केवल जाति, धर्म या किसी अन्य दबाव के कारण अपना मत गलत लोगों को देते हैं, वरन उनके लिए भीड़ और हवा भी बनाते हैं।
बहरहाल, आइमैक्स विधा में विज्ञान फंतासी और सुपरनायकों की फिल्में ही अच्छी लगती हैं। आम जीवन पर बनाई गई यथार्थपरक फिल्म को भव्यता की आवश्यकता नहीं है। अत: सिनेमाघरों में विविधता रहेगी। विगत सौ वर्षों में अनेक परिवर्तन हुए हैं और सिनेमा उनके समावेश की अपनी क्षमा के कारण जीवित रहा है। उसका लचीलापन ही उसकी शक्ति है। हजारों साल पुराने महाकाव्य भी 'लार्जर दैन लाइफ' पात्र प्रस्तुत करते हैं और अवाम की उनमें रुचि है।