सिनेमा, फंतासी और सामूहिक अवचेतन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :13 जुलाई 2015
एस.एस. राजामौली दक्षिण में लगातार 9 सफल फिल्में बना चुके हैं और उन्हें बाहुबली भाग एक बनाने में तीन वर्ष और 130 करोड़ रुपए लगे। भाग दो 2016 में प्रदर्शित होगा। यह फिल्म अनेक भाषाओं में डब की गई है और दक्षिण में पहले दिन इसका टिकिट चार हजार तक में बिका है। ज्ञातव्य है कि सन् 1947 में भारत में कुल 200 फिल्में बनी थीं, जिसमें मुंबइया फिल्में 150 और दक्षिण भारत में मात्र सौ फिल्में बनी थीं। आज मुंबइया फिल्मों की संख्या 150 ही है परंतु दक्षिण की चार भाषाओं में लगभग सात सौ फिल्में बनती हैं। भारत में कुल 9000 एकल थियेटर हैं और मल्टीप्लैक्स स्क्रीन 2000 हैं। एकल सिनेमा का पचास प्रतिशत दक्षिण भारत में है जबकि अधिक जनसंख्या वाले उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान व गुजरात में सबसे कम एकल सिनेमा हैं। पंजाब में तो अब एक भी नहीं बचा है। विगत सप्ताह ही तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने आदेश दिया है कि पूरे प्रांत में जिन सरकारी भवनों में कम काम है, उन्हें एक भवन में एकत्रित किया जाए और खाली भवनों में एकल सिनेमा स्थापित हों, जिनमें टिकिट दर 70 रुपए से अधिक नहीं हो। भारत के अन्य प्रांतों की सरकारें इस मामले में उदासीन हैं, क्योंकि उन्हें फिल्मों के सामूहिक अवचेतन पर प्रभाव का अनुमान ही नहीं है। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं कि कुछ फिल्मों की सामाजिक प्रतिबद्धता कितनी महत्वपूर्ण है। मसाला मनोरंजन भारतीय सिनेमा की मुख्यधारा है तथा गरीब लोगों का एक संबल है। गांव की चौपालों की किस्सागोई का स्वरूप है।
बहरहाल, राजामौली की 'बाहुबली' का प्रारंभ ही लगभग कर्ण के समान एक राजपुत्र का नदी की धारा में बहकर किनारे लगना और गांव की नि:संतान स्त्री द्वारा उसका पालना, महाभारत के कर्ण का राधा द्वारा किए पालन की तरह है, जिस कारण कर्ण ताउम्र राधेय कहलाते हैं। फिल्म में पहले एक घंटे का सारा घटनाक्रम एक विराट अत्यंत ऊंचे जलप्रपात के सामने घटित होता है। जो विशेष प्रभाव यूएफएक्स सिनेमाई यंत्रों का कमाल है। गौरतलब यही है कि दक्षिण भारत की मसाला फिल्मों में अतिरेक हमेशा रहता है, वे लार्जर दैन लाइफ नहीं वरन् लार्जेस्ट में यकीन करते हैं। भव्यता वहां लोकप्रिय है। याद आता है आजादी के तीन वर्ष पश्चात ही दक्षिण में 35 लाख की लागत की 'चंद्रलेखा' बनी थी। उस दौर में औसत फिल्म पांच लाख में बनती थी।
इस पहले भाग में ही वह शिशु जवान होकर बार-बार जलप्रपात के साथ खड़ी चट्टानों पर चढ़ने का प्रयास करता है और प्रेम कहानी भी वहीं प्रारंभ होती है। नायिका के प्रथम दर्शन में ही हम उसके बदन से चिपटी तितलियों में उड़ने पर उसे देखते हैं। दक्षिण के सिनेमा में शृंगार रस पुराने उदात्त शास्त्रों के वर्णन के समान होता है या राजा रवि वर्मा की पैंटिग्स की तरह होता है। मसलन नायिका के सिर पर पड़े पानी की बूंदें उसे गुदगुदा रही हैं। सच तो यह है कि पूरे भारत के सामूहिक अवचेतन के ठंडे से दिखने वाले तंदूर की राख के नीचे काम- इच्छाओं की चिंगारियां मौजूद होती हैं।
कहानी सदियों से आजमाई हुई है कि राजा का भाई षड्यंत्र रचता है और सिंहासन पर कब्जा जमाता है। धृतराष्ट्र और उसका पुत्र दुर्योधन सर्वकालीन पात्र हैं। धृतराष्ट्र का अंधत्व उसका सत्ता लोभ ही है, इसलिए धर्मवीर भारती के महान नाटक का नाम 'अंधायुग' है। यह अंधत्व सदियों से सत्तालोलुप रहना है। कहानी के आखिरी एक घंटे में प्रेम-कथा का लोप कर दिया गया है, क्योंकि अब युद्ध दृश्य प्रारंभ होते हैं। प्रेम और युद्ध का घनिष्ट संबंध है और प्राय: प्रेम नहीं कर पाने के कारण ही व्यक्ति तानाशाह होता है। खाप संस्थाएं प्रेम का विरोध इसलिए करती हैं कि प्रेम विचार प्रक्रिया को आलोकित करता है और स्वतंत्र विचार प्रक्रिया से ही खाप नुमा संस्थाओं को डर लगता है। युद्ध के दृश्यों में वही जलप्रपात वाला अतिरेक है। शत्रुओं का नाश होता है और पच्चीस वर्षों से कैद राजमाता मुक्त होती है। भारत कथा वाचकों और श्रोताओं का अनंत देश है और इस तरह फंतासी देखते-सुनते हम सभी उसके पात्र हो गए हैं। भारत एक विराट परदा है, जिस पर मायथोलॉजी की कथा अनंत समय से सुनाई और सुनी जा रहा है। इस प्रक्रिया में यथार्थ से हमारा न सिर्फ संपर्क टूटा, बल्कि अब तो वह हमें फंतासी लगता है।