सिनेमा, साहित्य और संगीत की महिमा / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमा, साहित्य और संगीत की महिमा
प्रकाशन तिथि :16 जनवरी 2016


मानवीय भावनाओंका इन्द्रधनुष भौगोलिक सरहदों पर तैनात आग उगलने वाली तोपों को ठेंगा दिखाकर पूरे विश्व की मनुष्यता से जुड़ता है। साहित्य और सिनेमा भी इसी इन्द्रधनुष के रंग हैं। जापान के अकिरा कुरोसोवा की मंहगी फिल्म 'कागामूशा' में अमेरिका के स्टीवन स्पीलबर्ग ने धन लगाया। पाकिस्तान के शोएब मंसूर की 'बोल' में फ्रांस की सरकार ने धन लगाया और अब ईरोस के साथ मिलकर वे करीना कपूर को लेकर फिल्म बना रहे हैं। यह शोएब मंसूर का साहस है कि वे पाकिस्तानी समाज पर इस्लाम द्वारा लादी गई कुरीतियों के खिलाफ बनाई जाने वाली फिल्में पाकिस्तान में ही शूट करते हैं।

ईरान के यथार्थवादी फिल्मकारों को भी विश्वभर से धन मिल जाता है। हमारे अपने फिल्म उद्योग ने कभी भारतीय सरकारों से धन नहीं लिया वरन आयकर, कस्टम मनोरंजन कर के नाम पर अरबों रूपए दिए और सरकार की फिल्म्स डिवीजन की लघु फिल्मों को अपने खर्च पर चलाया और उसकी फीस भी फिल्म्स डिवीजन को दी, जो विगत साठ वर्षों में 45,000 करोड़ हो चुकी है। आज भी इस उद्योग को सरकारों से धन नहीं चाहिए। उसकी दो छोटी मांगे हैं। एक तो उसे तर्कहीन सेंसरशिप से बचाएं और प्रांतीय सरकारें सिनेमा लाइसेंसिंग को सरल करें। मुझे खुशी है कि भोपाल में अधिकारी मनोज कुमार ने मुझे नई लाइसेंसिंग का प्रारूप बनाने का कहा है, जिसे वे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को स्वयं विचार के लिए सौपेंगे। आज भारत में सिर्फ 9 हजार एकल सिनेमा हैं और अनेक छोटे शहर और कस्बे इनसे वंचित हैं। अगर 30 हजार एकल सिनेमाघर बनें तो भारतीय फिल्म के प्रथम सप्ताह की आय 3,000 करोड़ पहुंचेगी। तब कितना अधिक आयकर और कस्टम सरकार को मिलेगा। आज तक भारतीय फिल्मों की संभावित अपार आय का अनुमान ही नहीं लगाया गया है। बड़े औद्यौगिक घराने फिल्म निर्माण में पैसा लगाकर सितारों की दासता कर रहे हैं। वे अगर एकल सिनेमा शृंखला खड़ी करें तो सितारे उनकी दासता करेंगे। क्या मुकेश और अनिल अंबानी तथा टाटा समूह इत्यादि शक्तिशाली लोगों औद्योगिक घरानों तक कोई यह बात पहुंचाएगा?

पहले कटरीना कैफ ने अपना स्थान बनाया, फिर श्रीलंका की जैकलीन फर्नाडीज़ ने अपना कोना बनाया और अब ईरान की गोलशिफ्त फरहानी अनूप सिंह की फिल्म 'मंत्र सांग ऑफ स्कोर्पिओ' में काम कर रही हैं। नए लिखाए जा रहे सरकारी इतिहास में शायद यह तथ्य खारिज किया जाएगा कि बाबर के साथ पर्शियन संस्कृति और घुलनशील भारतीय संस्कृति के संगम से गंगा-जमुना संस्कृति बनी, जिसने भारतीय वास्तुशास्त्र के साथ पर्शियन आर्कीटेक्चर को मिलाकर ताजमहल जैसे अनेक अजूबों का निर्माण किया और संगीत तथा साहित्य के क्षेत्र में भी इस संस्कृति ने कमाल की कृतियां बनाई। ध्रुपद गायन शैली भी इसी का सुखद परिणाम है।

भारतीय हिंदी सिनेमा का यह निराला ढंग है कि दक्षिण बंगाल की प्रतिभाशाली अभिनेत्रियां यहां सहज स्वीकार हो गईं परंतु नायक वहां से आयात नहीं किए। कैटरीना कैफ और जैकलीन, शर्मिला टैगोर और सुचित्रा सेन, पद्मिनी, जयाप्रदा, वैजयंतीमाला और श्रीदेवी के लिए दक्षिण से मुंबई तक रेड कारपेट बिछाया गया परंतु उत्तम कुमार, कमल हासन को जगह नहीं दी। नायक प्रधान सिनेमा और देश में ये तो होना ही था। यहां तक कि 1922 में मिनाली नामक कलाकार के साथ मूक फिल्में रचीं और आस्ट्रेलिया में जन्मी नाडिया की अनेक फिल्में सफल रहीं।

बहरहाल, पर्शिया की नायिका फिल्म में एक गायिका बनी है, जिसके स्वर से बीमारियां ठीक हो जाती हैं। हम तो जानते हैं कि संगीत बजाने पर पौधे जल्दी लहलहाते हैं, राग गाकर वर्षा कराई जा सकती है। नाद संसार सबसे विराट है। हमारे इंदौर में कैंसर के डॉक्टर मधुसुदन द्विवेदी ने कैंसर अस्पताल में 24 घंटे संगीत बजाने की व्यवस्था की थी। अभीहमारा मेडिकल संसार और हमारी गूंगी, बहरी, अंधी सरकारें क्या जाने कि साहित्य और संगीत ही मनुष्य नामक पशु को सुसंस्कृत कर पाए हैं। आज अन्याय आधारित व्यवस्था ने भारत को गरीब बना दिया है परंतु जब तक लता मंगेशकर हैं, हम अमीर हैं।