सिनेमा आस्वाद का महत्व / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमा आस्वाद का महत्व

प्रकाशन तिथि : 24 सितम्बर 2012

सूरत के सेठ पी.टी. महिला कॉलेज के साहित्य विभाग ने सिनेमा और साहित्य पर दो-दिवसीय सेमिनार आयोजित किया था, जिसमें विषय पर गंभीरता से विचार किया गया और उनके सुवनियर में कुछ शोधपत्रों का सारांश भी प्रकाशित किया गया। ये सारे सारांश अत्यंत सारगर्भित हैं। परेश नायक 'मिर्च मसाला' के निर्माण के समय केतन मेहता के सहायक रहे हैं और उन्होंने कुछ फिल्में भी बनाई हैं। उन्होंने बताया कि मूल-कथा में तंबाकू के कारखाने में काम करने वाली महिलाओं की कथा है, परंतु केतन ने लाल मिर्च का कारखाना प्रस्तुत करके अपने कम्युनिस्ट अनुयायी होने का संकेत दिया और उस संघर्ष को गहराई दे दी। पुणे की सुश्री गायत्री चटर्जी यूरोप के सिनेमा की गहरी जानकारी रखती हैं।

साहित्य का इतिहास पुराना है और वाल्मीकि की 'रामायण' और वेदव्यास की 'महाभारत' को भी साहित्य मानें तो इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। सिनेमा विधा मात्र एक सदी पुरानी है और इतिहास में एक सदी पलक झपकने की तरह होती है। मशीन की कोख से जन्मे इस माध्यम में असीम संभावनाएं हैं। गुजश्ता सदी के सारे विरोधाभास और विसंगतियों को इस माध्यम ने बखूबी प्रस्तुत किया है। आज टेक्नोलॉजी ने इस माध्यम को इतना शक्तिशाली बना दिया है कि तमाम साहित्यकारों के सामने चुनौती है कि आप ऐसी कोई कल्पना नहीं कर सकते, जिसे इस माध्यम में प्रस्तुत न किया जा सके। मनुष्य अवचेतन रहस्य से भरा है और उसमें सदियों के मानवीय अनुभव का खजाना है। सिनेमा इस अवचेतन को भी बिंब एवं ध्वनि से अभिव्यक्त कर सकता है। क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म 'इंसेप्शन' में एक पात्र दूसरों के अवचेतन पर कब्जा जमाने की क्षमता रखता है। इस फिल्म में चंद सदियों की झलक दिखाने के लिए निर्देशक ने एक छोटा-सा प्रयोगवादी दृश्य रचा है कि लिफ्ट का दरवाजा खुलता है और आप उदाहरणार्थ सोलहवीं सदी की झलक देखते हैं। लिफ्ट अगली मंजिल पर कोई और नजारा दिखाती है।

ज्ञातव्य है कि वर्ष १८९५ में सिनेमा के आविष्कार के कुछ समय बाद फ्रांस के दार्शनिक हेनरी बर्गसन ने कुछ इस आशय की बात कही कि सिनेमा का कैमरा मनुष्य के दिमाग की तरह काम करता है। मनुष्य की आंखों से लिए चित्र स्थिर चित्रों की तरह मनुष्य की याद में संग्रहित होते हैं और किसी विचार की ऊर्जा से वे चलायमान होकर सार्थक हो जाते हैं।

बर्गसन और मैक्सिम गोर्की से लेकर रबिंद्रनाथ टैगोर तक अनेक साहित्यकार इस विधा से जुड़े हैं और उन्होंने सक्रिय योगदान दिया है तथा सिनेमा माध्यम ने भी अपने साहित्यकार प्रस्तुत किए हैं, जैसे चार्ली चैपलिन और सत्यजीत राय।

गौरतलब यह है कि साहित्य की किताब एक व्यक्ति अकेला बैठकर पढ़ता है या ज्यादा से ज्यादा कुछ लोग सामूहिक पठन कर सकते हैं, परंतु फिल्म को एक ही समय में सैकड़ों लोग देखते हैं और सिनेमा माध्यम की ताकत ही उन सबको एक साथ संबोधित करती है। सामूहिक अवचेतन के साथ भावनात्मक तादात्म्य बनाती है फिल्म। इसी तरह नाटक का मंचन भी अनेक दर्शक देखते हैं और उसमें भी अभिनय के माध्यम से रचनाकार की बात अनेक दर्शकों तक पहुंचती है। नाटक भी अपने ढंग से पात्र के अवचेतन को प्रस्तुत करता है। मसलन गिरीश कर्नाड के 'हयवदन' में पति-पत्नी सो रहे हैं और मंच पर रखी दो गुडिय़ाएं (कलाकारों द्वारा अभिनीत गुडिय़ाएं) उनके सपनों को विवरण दे रही हैं। बड़ौदा से आए वक्ता श्री पारेख, जो नाटक पढ़ाते हैं, ने 'अंधा युग' के एक संवाद की दो ढंग से प्रभावोत्पादक अदायगी करके नाटक और टेलीविजन में नारी विमर्श पर बात की।

कुछ इस तरह की बात भी की गई है कि साहित्य का प्रभाव सिनेमा से ज्यादा है और लंबे समय तक कायम रहता है। साहित्य या सिनेमा का प्रभाव पाठक या दर्शक की अपनी संवेदन ग्रहण करने की शक्ति पर निर्भर करता है। संवेदनशील पाठक और दर्शक पर दोनों ही विधाओं का प्रभाव समान रूप से पड़ता है। साहित्य की शक्ति पाठकों द्वारा की गई व्याख्याओं से समृद्ध होती है। साहित्य की व्याख्या प्रकाशित होती है, परंतु सिनेमा की व्याख्याएं कम प्रकाशित हुई हैं। अगर शेक्सपीयर के 'हैमलेट' की दुविधा पर अनेक किताबें प्रकाशित हुई हैं तो 'सिटीजन केन' पर भी ढेरों किताबें लिखी गई हैं। भारत में इस तरह के साहित्य की कमी है। आम दर्शक व्याख्या करता है, परंतु वह जाहिर नहीं होती।

दरअसल भारत में स्कूल तथा कॉलेज में सिनेमा आस्वाद कोपाठ्यक्रम में शामिल करने पर सिनेमा की समझ रखने वाले दर्शकों की पीढिय़ां तैयार होंगी और गुणवत्ता वाली फिल्मों की सफलता फिल्मकारों के लिए प्रेरक सिद्ध होगी। फिल्म की व्याख्याएं प्रकाशित होंगी और आज जिस पावन माध्यम को नशे में बदल दिया गया है, वह समाज सुधार का सार्थक रास्ता बनेगा।