सिनेमा उद्योग की मृत्यु की आशंका / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :29 अक्तूबर 2015
पहले यह तय किया गया था कि संजय भंसाली की आगामी फिल्म 18 दिसंबर को प्रदर्शित होगी और शाहरुख खान तथा रोहित शेट्टी की फिल्म 25 दिसंबर को प्रदर्शित होगी परंतु भंसाली के दिल्ली वितरक ने एकल सिनेमा के साथ दो सप्ताह का अनुबंध किया ताकि शाहरुख की फिल्म 25 दिसंबर को एकल सिनेमा न पा सके। जब ये बातें शाहरुख तक पहुंचीं तो पठान जिद पर आ गया कि अब वह भी 18 दिसंबर को ही प्रदर्शित करेगा। मल्टीप्लैक्स में दोनों भव्य फिल्मों को समान स्क्रीन टाइम मिलेगा। परंतु एकल सिनेमा का संकट है। भारत में मात्र नौ हजार एकल सिनेमा है और प्रांतीय सरकारों तथा केंद्र के द्वारा मनोरंजन उद्योग को नज़रअंदाज किया जाता रहा है। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ सरकारों ने 100 रुपए तक के टिकट पर मनोरंजन कर मुक्ति दी है परंतु मध्यप्रदेश सरकार ने वातानुकूलित एकल सिनेमा को छूट से वंचित किया है। पंजाब एकमात्र प्रांत है, जिसने मनोरंजन कर नामक जजिया अपने प्रांत में समाप्त किया है।
हिंदुस्तानी सिनेमा अपने 102 वर्ष के इतिहास में 85 वर्षों तक एकल सिनेमा से प्राप्त आय पर जीवित रहा है और अब एकल सिनेमा का अस्तित्व ही संकट में है। सरकार के सामने कई राष्ट्रीय महत्व की समस्याएं हैं और सबसे बड़ी समस्या अवाम के मन से भय हटाकर, देश में सुरक्षा का वातावरण बनाना है। महंगाई के कारण गरीब को दाल मयस्सर नहीं और व्यापारियों की दान-दक्षिणा पर चलने वाली तमाम सरकारें अपने दान दाता को रुष्ट नहीं कर सकतीं। भारत की चुनाव प्रक्रिया को सरल-सस्ता बनाने की आवश्यकता है। असली मुद्दा यह है कि सरकार केवल लाक्षणिक इलाज करती है और मूल रोग को कायम रखती है। आज भारत में 30 हजार एकल सिनेमा की आवश्यकता है परंतु लाइसेंस देने की प्रक्रिया के चक्रव्यूह को समाप्त नहीं किया जा रहा है। आज के अभावों, सर्वत्र व्याप्त भय और अन्य कारणों से उत्पन्न समस्या से लड़ाई आवश्यक है परंतु मनोरंजन उद्योग को मात्र मनोरंजन कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। हिंदुस्तान की मसाला फिल्म में सामाजिक सौद्देश्यता हमेशा मौजूद रही है और टेक्नोलॉजी के विकास के बाद भी आम आदमी सिनेमा को बहुत प्रेम करता है। मनोरंजन अपने आप में महत्वपूर्ण आवश्यकता है, जिसका स्थान रोटी, कपड़ा, मकान के बाद चौथे नंबर पर है। हमारी अत्यंत फूहड़ फिल्मों में भी कुछ क्षण सामाजिक सौद्देश्यता के रहते हैं। हिंदुस्तानी फिल्म संगीत में शास्त्रीयता के साथ लोक धुनें भी रही हैं और दशकों से वे दु:खी अवाम का सहारा रही हैं। दरअसल, हिंदुस्तानी सिनेमा में नौटंकी, पारसी थिएटर, जत्रा इत्यादि अन्य विधाओं के तत्व मौजदू रहे हैं और सिनेमा के केलिडोस्कोप में विविध रंगों और आकार के रंगीन कांच के टुकड़े होने से उसे थोड़ा घुमाने पर उसमें विविध डिज़ाइन उभर आते हैं। सिनेमा कमोबेश मायथोलॉजी की तरह हो गया है। हिंदुस्तानी सिनेमा को पलायनवादी कहा जाता है। युद्ध नीति में आक्रमण की योजना का पहला हिस्सा है, संकट पर वापसी के रास्ते तैयार रखना। इसी तरह जीवन संग्राम में निहत्था जूझने वाला आम आदमी अपने लिए आवश्यक 'पलायन' के क्षण सिनेमा में खोजता है। सिनेमा मनुष्य अवचेतन की एक गिज़ा है और इसी कारण अनेक कठिनाइयों के बावजूद यह उद्योग जीवित रहा है और उसका सबसे बड़ा सम्बल हमेशा आम आदमी रहा है। फिल्में हजारों वॉट की रोशनी में बनाई जाती है परंतु सिनेमा घर के अंधेरे में दिखाया जाता है और यह एकमात्र विधा है , जिसमें सिनेमाघर में मौजूद तमाम लोग एक ही दृश्य पर तालियां सारे देश के सिनेमाघरों में बजाते हैं। एक उपन्यास के हजार पाठक उस पर हजार राय रख सकते हैं परंतु सिनेमा उद्योग आम आदमी के बहुमत पर चलता है। वर्षों पूर्व संभवत: फिल्म 'तिरंगा' में एक वीर पुलिस वाले की शहादत पर मंत्रीजी कहते हैं कि वे दिल्ली में जांच कमीशन बैठाएंगे और दिल्ली इंसाफ करेगी तब नाना पाटेकर का संवाद है, 'दिल्ली कुछ नहीं करती, बस खामोश रहती है।'
पूरे भारत के सिनेमाघरों में इस दृश्य पर तालियां पड़ीं, क्योंकि कुछ दिन पूर्व ही बाबरी मस्जिद ध्वस्त हुई थी अर्थात आम आदमी ने उस काम को अमान्य कर दिया। यही सिनेमा कुछ वर्षों में समाप्त हो सकता है। अगर सिनेमा और आम आदमी का डीएनए मिलाया जाए तो क समानताएं मिलेंगी। क्या इसका अर्थ यह है कि सिनेमा और आम आदमी दोनों के ही बुरे दिन आ गए हैं।