सिनेमा उद्योग चाहता है अपनी आजादी / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमा उद्योग चाहता है अपनी आजादी
प्रकाशन तिथि :15 अगस्त 2015


आज़ादी के वर्ष 1947 में कुल 285 फिल्में भारत में बनीं, जिनमें मुंबइया 150 और अन्य सभी क्षेत्रीय भाषा में बनी फिल्मों का योग 135 था परंतु आज़ादी के 68वें वर्ष में 1200 से अधिक फिल्म बनी हैं, जिनमें दक्षिण भारत की चार भाषाओं में 600 से अधिक फिल्में बनी हैं और मुंबई में 150 या अधिकतम 200 फिल्में ही बनती हैं और उनमें भी दक्षिण भाषाओं की डब की गई फिल्मों की संख्या कम नहीं हैं। हर वर्ष दक्षिण की सफल फिल्मों के मुंबइया संस्करण बनते हैं जैसे 'दृश्यम'। 'बजरंगी भाई जान' भी दक्षिण के विजयेंद्र प्रसाद की कहानी है। उनकी लिखी पटकथा पर दक्षिण की कई भाषाओं में लगी 'बाहुबली' आय के नए रिकॉर्ड बना रही है। लोकप्रिय व बहु प्रचारित बात है कि मुंबई भारतीय फिल्म उद्योग की राजधानी है। तथ्य यह है कि यह गौरव दक्षिण को दिया जाना चाहिए। भारत के 9000 एकल सिनेमाघरों में आधे से अधिक दक्षिण में हैं और वहां का उद्योग मुंबई से अधिक सुगठित व अनुशासनबद्ध है।

बिहार में भोजपुरी में 100 फिल्में प्रतिवर्ष बनती हैं। हाल ही में मराठी में बनी एक फिल्म ने महाराष्ट्र में एक सफल मुंबइया फिल्म से पहले दिन अधिक व्यवसाय किया। अब तो बंगाल में भी मसाला प्रभाव की फिल्में अधिक बनती हैं जबकि एक जमाने में बंगाल में उत्कृष्ट मूल्यों की फिल्में बनती थीं और सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, तपन सिन्हा की फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय गौरव प्राप्त था। एक दौर में बंगाल के फिल्मकारों और दर्शकों का दृष्टिकोण यह रहा कि बंगाल एक सांस्कृतिक राष्ट्र है और उनकी फिल्में भी उसी को संबोधित करती थीं। मराठी में उच्च मानवीय करुणा की फिल्में मुंबई और पुणे में अच्छा व्यवसाय करती हैं परंतु कोल्हापुर-सोलापुर बेल्ट और ग्रामीण क्षेत्र में मराठी मसाला फिल्में ही सफल रहती हैं। पंजाब में अब एक भी एकल थिएटर नहीं है। वहां केवल मल्टीप्लैक्स है। अब वह धर्मेंद्रनुमा फिल्मों का बेल्ट नहीं रहा। वहां पंजाबी की प्रतिवर्ष लगभग 20 फिल्में बनती हैं, जिनका व्यवसाय पंजाब से अधिक कनाडा में होता है।

मुंबई की मसाला फिल्म एक अजीबोगरीब चीज है, जिसमें नौटंकी, पारसी थिएटर, जत्रा और विविध क्षेत्रों की लोक संस्कृति का मेल है। मसाला फिल्म एक केलाइडोस्कोप की तरह है, जिसमें विविध रंगों और साइज के कांच के टुकड़े हैं तथा उसे गोल घुमाने पर नए पैटर्न दिखाई पड़ते हैं। आप जितनी बार घोल घुमाएंगे उतने विविध डिज़ाइन उसमें देखेंगे। इस मसाला फिल्म की अपनी ऊर्जा है, इसका तीव्र प्रवाह आपको अपना तर्क कुछ समय के लिए त्यागने को विवश करता है।

हमारी फिल्मों का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हमारी सफलतम फिल्म भी तीन करोड़ से अधिक दर्शक सिनेमाघर में नहीं देखते। इस तरह अधिकतम दर्शक की आर्थिक रीढ़ वाला उद्योग कम दर्शक का बनकर रह गया है और यह अलग सी माइनॉरिटी है। देश में हजारों कस्बे और 20 हजार आबादी के स्थान हैं, जहां सिनेमाघर नहीं हैं। प्रांतीय सरकारों ने सिनेमा लाइसेंस विधि को जटिल बना दिया है और हर वर्ष लाइसेंस नवीनीकरण का अर्थ है, हर वर्ष विविध विभागों को रिश्वत! सरकार सहायता भी अजीब ढंग से करती है। मसलन, मध्यप्रदेश व और प्रांतों में एकल सिनेमा में 100 रुपए तक टिकिट को मनोरंजन कर से मुक्त रखा है परंतु उसमें एक बाधा डाल दी कि वातानुकूलित सिनेमाघर को यह लाभ नहीं मिलेगा जबकि उसके मालिक ने दर्शक सुविधा के लिए अतिरिक्त धन लगाया है। जब अखिल भारत में सिनेमाघर ही नहीं हैं तो अखिल भारतीय फिल्म कैसे बनेगी?

कथा वाचकों व कथा श्रोताओं के इस देश में सिनेमा के लिए अंधा जुनून है परंतु हमने इसे भी कुछ सुविधा संपन्न का माध्यम बना दिया है। सिनेमा आधुनिक लोककथा है पर सबको उपलब्ध नहीं। जिस गीत को गली-चौबारे-चौपालों में गूंजना चाहिए था वह जाने कैसे राग दरबारी बना दिया गया। भारतीय सिनेमा अजीबोगरीब सामंतवादी स्वरूप में समाया है, इसे जाने कब आजादी मिलेगी? यह सिनेमा अधिक मायनों में 102 वर्ष का होने के बाद भी शैशव अवस्था में है। कुछ जुझारू लोगों ने प्रयास तो किए हैं परंतु वह 3 से बढ़कर 30 करोड़ दर्शक तक नहीं पहुंच पा रहा। एक सिनेमा आंदोलन की आवश्यकता है।