सिनेमा केवल सपने बेचने का ही माध्यम नहीं / नवल किशोर व्यास

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सिनेमा केवल सपने बेचने का ही माध्यम नहीं


हिन्दी सिनेमा ने दर्शको की सुप्त भावनाओं को जाग्रत करने की बजाय उनकी जीवित भावनाओं को सहलाने का काम ज्यादा किया। परदें पर चलती छविया दर्शक के व्यक्तिगत मनोविज्ञान को मात्र पुचकारती हैं। फिल्म के पात्र और कथानक को जब दर्शक खुद से जोडता है और कही ना कही अपनी अधूरी और अपूर्ण कामनाओं को काल्पनिक रूप से जीने का प्रयास भी सिनेमा के माध्यम से करता है। दर्शको के इस मनोविज्ञान का फायदा उठाने के लिये ही हिन्दी सिनेमा के हीरो की लार्जर देन लाइफ की छविया गढी जाती है और वैसे भी हमारा समाज संवेदनाओ का खुला बाजार है। संवेदनाओ के इसी बाजार से फिल्मकार किसी खास संवेदना को चुनते है और अपनी सिनेमाई रूचि के उपसंहार के साथ दोबारा उसी समाज को प्रस्तुत कर देते है। फिल्में अनुकरण करवाने वाला माध्यम है, समाज से लेने और देने का माध्यम है पर सिनेमा समाज से मात्र ग्रहण ही कर रहा है तो प्रश्न ये है कि वापिस समाज को लौटा क्या रहा है। 


दिल्ली के बहुचर्चित निर्भय कांड पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री को इसलिए बैन कर दिया गया क्योंकि खतरा था कि लोग इसके सबल पक्ष की बजाय कही उसके स्याह पक्ष को न पकड़ ले जबकि बैन हुई इस ड्राॅक्यूमेंट्री में दोषियों की वारदात के दौरान की मानसिक अवस्था पर किया गया शोध था जिसके कारण वें इस जघन्य अपराध की और बढे। सिनेमा में हुआ अदभुत प्रयोग था पर सेंसर का सोचना अलग था। सिनेमा को नाटक और साहित्य की तरह समाज के आइने के तौर पर माना जाना चाहिए परंतु जब जब इस आइने की सुविधाजनक स्थिति पर सवाल उठाये जाते है तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ढाल से बचने के प्रयास भी शुरू हो जाते है। इस विषय के प्रसारण से प्रतिकूल असर पडने की ही संभावना थी क्योंकि हमारे समाज में बुराई बंदूक की गोली की तरह चलती और फैलती है जबकि अच्छाई का प्रभाव, खुशबू जैसे धीरे धीरे होता है। समाज की नकारात्मकता को अपने सिनेमाई मुहावरो की साज सज्जा के साथ प्रस्तुत करना ही कला ना हो बल्कि उसके समाधान का मंथन भी इस कला का हिस्सा होना चाहिए। नकारात्मकता का प्रदर्शन बहुत संवेदनशीलता की मांग रखता है। बिना गहरे पैठ के नकारात्मक बातें या स्थितियों को सिनेमा की फण्डेबाजी के साथ पेश करने पर उसके प्रति दर्शको का अनुकरण करने की संभावना बढ जाती है इसलिए सिनेमा के कंधे पर भी विषय के प्रति ऐसी सामाजिक जिम्मेदारी तो होनी ही चाहिए। हिन्दी फिल्मों में बुराई को खत्म करने के लिए नकारात्मकता को जिस आइडियाॅलाॅजी की चासनी के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है वो किसी भी रूप में सही नही है। किसी भी नकारात्मक चरित्र को प्रस्तुत करते समय ये जरूर ध्यान रखना चाहिए कि इस चरित्र सेे लोग घृणा करें, प्रेम नही। अगर सिनेमा समस्या के समाधान का मंथन न भी निकाले तो सिनेंमा में नकारात्मकता का प्रदर्शन ऐसा हो कि वो प्रदर्शन नही बल्कि तीखे प्रश्न लगे। फिल्म की ढिशुम ढिशुम किसी समस्या का समाधान नही है पर विडंबना यही है कि हमारे सिनेमा में समस्याओ का समाधान यही है। इससे इतर भी विचार करना होगा क्योंकि आखिर फिल्में केवल सपने बेचने का माध्यम नही है जैसा कि सुभाष घई अक्सर कहते है।