सिनेमा के भारतीय मुहावरे की तलाश / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :05 फरवरी 2016
कथा फिल्मों के प्रारंभिक दौर में बहुत कम शहरों में सिनेमाघर थे। कई शहरों में रंगमंच के लिए भवनों का इस्तेमाल फिल्म दिखाने के लिए किया गया और यह इस भयावह भविष्य के भी संकेत थे कि सिनेमा रंगमंच विधा को भारी हानि पहुंचाएगा। उसी दौर में कुछ उद्यमी लोगों ने एक ट्रक में पोर्टेबल प्रोजेक्टर, कनातें इत्यादि के साथ शहर दर शहर, गांव दर गांव टूरिंग टॉकीज का व्यापार शुरू कर दिया। सोहराब मोदी ने भी टूरिंग टॉकीज का काम किया और वे फिल्म निर्माण की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने इतिहास प्रेरित काल्पनिक कथाओं पर फिल्में बनाई जैसे 'सिकंदर,' 'पुकार' इत्यादि और इसी विधा में जब उन्होंने भव्य बजट की 'झांसी की रानी' बनाई तो उसकी असफलता ने उन्हें बहुत हानि पहुंचाई। असफलता का मूल कारण था उनकी पत्नी मेहताब को रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका देना। उनसे हिंदुस्तानी भाषा भी ठीक से बोली नहीं जाती थी। उस दिन से ही यह देशभक्ति का महान विषय संवेदनशील फिल्मकार की प्रतीक्षा में बैठा है। कुछ समय पूर्व केतन मेहता ने प्रयास किया था परंतु उन्हें धन नहीं मिल पाया। बहरहाल, टूरिंग टॉकीज ने सिनेमा को अनेक शहरों-कस्बों तक पहुंचाया और उनकी सफलता से प्रेरित कई लोगों ने स्थायी सिनेमाघरों की स्थापना की परंतु मात्र नौ हजार एकल सिनेमा यथेष्ट नहीं हैं और हजारों कस्बों में मुनाफा कमाने की संभावना है परंतु लायसेंसिंग प्रणाली की जटिलता और आर्थिक उदारवाद के कारण बढ़ी हुई जमीनों की कीमत के कारण यह संभव नहीं हो पा रहा है। हाल में मध्यप्रदेश सरकार ने अपने उस नियम को सुधारा, जिसमें वातानुकूलित सिनेमाघरों को रियायत नहीं थी। तमिलनाडु सरकार का प्रयास है कि एक शहर के कुछ सरकारी विभागों को एक ही भवन में लाएं और खाली भवनों में सिनेमाघर बनाएं। दरअसल, 25 हजार एकल सिनेमाघर बनने पर फिल्म की आय 5000 करोड़ तक पहुंचेगी।
जब देश का अवाम अनेक कठिनाइयों से गुजर रहा है और लाखों लोग फुटपाथ पर जीवन गुजारते है, तब सरकारें सिनेमा उद्योग पर ही क्यों मेहरबान हों, जबकि आर्गेनिक खेती को अनिवार्य नहीं करने पर अवाम की सेहत टूटती जा रही है। सब्जी, फलों इत्यादि में जहर के अंश समाए हैं और प्रदूषण के कारण देश का स्वास्थ्य गिर रहा है। यह भ्रम भी नहीं टूट पा रहा है कि आर्गेनिक खेती महंगी है। ऐसा भी नहीं है कि सर्वत्र प्रयास नहीं हो रहे हैं परंतु सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के कारण सरकार की सहायता अवाम तक पहुंच ही नहीं पाती। भ्रष्टाचार का मुद्दा केवल पैसे का नहीं है, यह नैतिक मूल्यों के पतन अौर सांस्कृतिक पतन से जुड़ा है। शिक्षा प्रणाली के दोष से जुड़ा है। आप शिक्षण संस्थाओं से बाहर आते बच्चों के मुरझाए चेहरे देखिए। अपने वजन का बस्ता लादे, कमर झुकाए, उनींदी अांखों वाले मासूमों को देखकर दिल दहल जाता है कि यह हमारे भविष्य का लुटा कारवां जा रहा है। यह कारवां है कि भविष्य की झांकियों का गुबार हमारी निस्तेज आंखों के सामने से गुजर रहा है?
सिनेमा के माध्यम का सही इस्तेमाल होने पर जीवन मूल्य और सांस्कृतिक पुनर्जागरण संभव है परंतु यह एकमात्र उपाय नहीं है। सरकार को इसमें रुचि इसलिए लेनी चाहिए कि एकल सिनेमा के इर्दगिर्द बाजार उभर आता है। इस बाजार का लाभ वृहत समाज को मिल सकता है। सिनेमाघरों का एक संदिग्ध लाभ यह भी है कि अवाम का जो हुजूम इस जलसाघर में जमा है, उसका सड़कों पर आकर सड़क की संसद का भयावह अराजक दौर शुरू हो सकता है। सरकार का दायित्व है की मोटी-मोटी बातों वाली किताब पाठ्यक्रम में शामिल कर दे। भावी पीढ़ियों का यह ज्ञान संवेदनशील दर्शकों की पीढ़ियों का निर्माण करेगा। अवाम में से फिल्मकार आएंगे, सिनेमा का ठेठ भारतीय मुहावरा गढ़ेंगे।
यह अजीब बात है कि टूरिंग टॉकीज समाप्त हो गए और मंत्रिमंडल की बैठकें टूरिंग की जा रही हंै। हाल में नौका विहार के साथ गरीब प्रांत की समस्याअों पर बात हुई और एक बैठक अन्य नयनाभिराम जगह पर हो रही है। आप पहाड़ों, झीलों और गांवों में मंत्रिमंडल की बैठक करें परंतु उसका सीधा प्रसारण होना चाहिए ताकि अवाम भी समझ सके कि कैसे मंत्रिमंडल उनके लिए चिंतित है। ऐसा तो नहीं कि वहां केवल आपसी हंसी-ठठ्ठा हो रहा है?