सिनेमा के सदाबहार टोटके / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 16 अप्रैल 2013
एकता कपूर और विशाल भारद्वाज ने मिलकर बनाई है 'एक थी डायन', जिसमें जाने कितने तत्व विशाल के नोए (अंधकार) सिनेमा के हैं और कितने एकता कपूर के हैं, यह बताना कठिन है। मार्केटिंग पर तो एकता की मोहर है। एकता ने पारिवारिक रिश्तों के जाल के नाम पर अंधविश्वास और कुरीतियों को मजबूत किया है। वह व्यवसाय पक्ष के प्रति इतनी समर्पित है कि उसे नैतिकता के कोई प्रश्न चुभते ही नहीं, समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, यह उनकी चिंता कभी नहीं रही। इस तरह की एकाग्रता और स्वयं को समूचे समाज से अलग-थलग रखना कोई मामूली काम नहीं है। विशाल भारद्वाज की पिछली फिल्में असफल रही हैं और एक और 'बॉक्स ऑफिस खून' शायद माफ न हो, भले ही वे 'सात खून माफ' और 'मंडोला-बिजली' जैसे हादसे रच चुके हों।
हॉलीवुड में जब किसी फिल्मकार की फिल्में असफल होती हैं और अगली फिल्म के विषय के बारे में संशय में हो तो उसे याद दिलाया जाता है कि सुरक्षित खेल केवल 'वेस्टर्न' है। यह हॉलीवुड का वह सिनेमा है, जिसमें घुड़सवार नायक बोलता बाद में है और गोली पहले मारता है। इसी 'वेस्टर्न' ढांचे के सबसे सफल नायक जॉन वेन हुए हैं और आज के प्रसिद्ध फिल्मकार क्लिन्ट ईस्टवुड ने अपना कॅरिअर वेस्टर्न के नायक के रूप में ही किया था और 'फॉर ए फ्यू मोर डॉलर्स' नामक कल्ट फिल्म भी बनी है। इतना ही नहीं, आज के महान टोरीन्टीनो की ताजा फिल्म 'जेंगो अनचेन्ज्ड' भी वेस्टर्न ही है। ठीक इसी तरह हिंदुस्तानी सिनेमा में भूत-प्रेत का रहस्य, रोमांच प्राय: सफल रहता है और उसमें सेक्स का 'एकताई तड़का' तो कमाल होता है।
एकता कपूर ने अपना उद्देश्य कभी छुपाया नहीं, परंतु विशाल भारद्वाज स्वयं को जागरूक और बौद्धिकता से लबरेज फिल्मकार मानते हैं, अत: उनका 'डायन' बनाना थोड़ा चौंकाता है। क्या वे नहीं जानते कि अनगिनत नारियों पर डायन होने का भ्रम पैदा करके उन्हें निर्ममता से मार दिया गया है। स्त्री को देवी स्वरूप में भले ही प्रस्तुत करने की चेष्टा करें, परंतु उसे डायन की तरह तो मत बेचो। क्या सिनेमा के परदे पर या समाज में स्त्री का मात्र स्त्री होना यथेष्ट नहीं है?
बहरहाल, 'एक थी डायन' में नायक इमरान हाशमी एक जादूगर है और स्टेज पर जादू के तमाशे पेश करता है, परंतु बचपन की किसी स्मृति के कारण उसे डायन त्रास देती रहती है और उसके अवचेतन का कोई रहस्य उसे सर्वत्र डायन दिखाई देने का भ्रम पैदा करता है। इस तरह 'डायन' को आवश्यक कर लिया गया है और सेंसर ने भी इसे सबको देखने का प्रमाण-पत्र जारी कर दिया है। फिल्मकार ने हरसंभव प्रयत्न किया है कि उसकी कथा प्रामाणिक है और इस 'डायन' के लिए आप उसे दोष नहीं दे सकते। दवा के नाम पर कैप्सूल में शक्कर भरकर मरीज को दी जाती है, जिसे प्लेसेबू कहते हैं और मरीज कभी-कभी इसे खाकर चंगे भी हो जाते हैं। शरीर स्वयं को निरोग रखने की प्रक्रिया सतत जारी रखता है, जिसके कारण कुछ 'टोटकों' पर लोगों को यकीन हो जाता है। फिल्मकार बॉक्स ऑफिस की खातिर कुरीति और अंधविश्वास को प्लेसेबू का नाम दे रहा है।
बहरहाल, मजेदार बात यह है कि २८ दिसंबर, १८९५ को पेरिस में पहली बार सिनेमा का प्रदर्शन हुआ तो दर्शकों में जॉर्ज मेलिए नामक जादूगर भी उपस्थित था और उसका विश्वास था कि यह नया माध्यम फंतासी रचने के लिए बना है, जबकि आविष्कार करने वाले लूमियर बंधु इसे यथार्थ चित्रण का माध्यम मानते थे। बहरहाल विगत सौ वर्षों में इस माध्यम द्वारा फंतासी भी रची गई है और यथार्थ भी प्रस्तुत हुआ है। भारत में कथा फिल्म के जनक गोविंद धुंडीराज फाल्के ने भी अपनी युवा अवस्था में जादू की ट्रिक्स सीखी थीं और वे इसका प्रदर्शन भी करते थे। जादूगर सामूहिक सम्मोहन की विधि भी अपनाते हैं, परंतु सारे तमाशे का आधार 'ट्रिक्स' ही होती है। सिनेमा और ट्रिक्स आधारित जादू में यह समानता है कि दोनों ही यकीन दिलाने की कलाएं हैं। कुछ फिल्मकार हमें इंसानियत में यकीन रखने का उपदेश देते हैं और कुछ मनुष्य को भूत-प्रेत और डायन पर यकीन दिलाना चाहते हैं। बॉक्स ऑफिस का यह पुराना आजमाया हुआ खेल है कि फिल्म की आखिरी रील में अपने तमाशे को जायज और नैतिक ठहरा दोतथा पहली पंद्रह रीलों में कुरीतियों को भुनाते रहो।