सिनेमा टिकट बेचने का बवाल क्यों? / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमा टिकट बेचने का बवाल क्यों?
प्रकाशन तिथि :26 जून 2017


मध्यप्रदेश के एक मंत्री सिनेमाघर में सलमान खान अभिनीत 'ट्यूबलाइट' के टिकट बेच रहे थे और मीडिया ने हंगामा बरपा दिया। मंत्री भार्गव उस सिनेमाघर के मालिक हैं और कोई व्यक्ति अपने संस्थान या कंपनी में काम करें तो इसमें गलत क्या है। एक किसान अपने खेत में हल चलाता है या एक व्यापारी तराजू पर तौलकर अपना माल बेच रहा है तो इसमें सनसनीखेज क्या है? मंत्री भार्गव साहब को अपने सिनेमाघर से लगाव है तो उनसे अनुरोध किया जा सकता है कि एकल सिनेमा में टिकट के दाम से पंद्रह रुपए प्रति टिकट एकल सिनेमा के रखरखाव के लिए दिया जाना चाहिए। हमारे देश में मात्र नौ हजार एकल सिनेमाघर सक्रिय हैं और उनकी संख्या घट रही है, अत: उन्हें बचाने के लिए सरकार को कई कदम उठाने चाहिए, क्योंकि एकल सिनेमाघरों के बंद होते ही, सिनेमा विधा को भारी क्षति पहुंचेगी। आम आदमी एकल सिनेमाघर में ही टिकट खरीद सकता है।

रोटी, कपड़ा और मकान के बाद मनोरंजन की आवश्यकता व महत्व को कमतर आंकने का अर्थ है अवाम की अवहेलना। सरकारें संभवत: यह बात नहीं जानतीं कि अवाम का सिनेमाघरों में जाना उनके अस्तित्व के लिए कितना जरूरी है। ये ही लोग सड़क पर आ गए और अपने अधिकार की बात उठाने लगे तो सरकारें हिल जाएंगी। सिनेमा के माध्यम से अवाम को अफीम चटाई जा रही है कि वे यथार्थ जीवन के दु:ख-दर्द को भूले रहें।

फिल्म में उठाए गए सवाल आम आदमी जल्दी ही भूल जाता है। मसलन कबीर खान व सलमान खान की फिल्म 'ट्यूबलाइट' में भारत में बसी एक चीनी लड़की यह कहती है कि उसका जन्म भारत में हुआ है और वह उतनी ही भारतीय है, जितने वे लोग जो उसकी नागरिकता पर सवाल उठा रहे हैं। दरअसल, देश में जन्मे इस्लाम धर्म के मानने वाले अनेक लोगों से भी इसी तरह के सवाल परोक्ष रूप से पूछे जा रहे हैं। राष्ट्रीयता की संकीर्ण परिभाषा ने विवाद खड़े कर दिए हैं। यह बात भी नई नहीं है। महान कवि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने महात्मा गांधी से कहा था कि राष्ट्रप्रेम की अलख जगाते समय यह स्मरण रखें कि इसका उग्र रूप देश को हानि पहुंचा सकता है। मानवीय करुणा मूल भावना है और अन्य सभी उसकी तुलना में कहीं ठहरती नहीं।

यह कितने दु:ख की बात है कि विज्ञान व टेक्नोलॉजी के शिखर दिनों में ज़हालत पनप रही है और उसकी वकालत करना लोकप्रिय भी माना जा रहा है। अंग्रेजी की कविता का शीर्षक है 'द मैन ही किल्ड।' इसमें एक सैनिक सोचता है कि सरहद पर उसने जिस व्यक्ति को मारा वह अगर सामान्य हालात में कहीं मिला होता तो संभवत: किसी रेस्तरां में हम कॉफी पीते हुए एक-दूसरे के मित्र बन जाते। साहित्य और सिनेमा में युद्ध विरोधी विषयों पर बहुत काम हुआ है। राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए युद्ध को सुर्खियों में रखा जाता है और सरहद पर हुई सामान्य घटनाओं को भी खूब प्रचारित किया जा रहा है। यह सब एक सोची-समझी साजिश के तहत किया जा रहा है ताकि अवाम का ध्यान अभाव से हट सके। क्या मंत्री महोदय द्वारा किए गए एक सामान्य काम को भी सुर्खियों में मात्र इसलिए लाया जा रहा है कि फिल्म का नायक अल्पसंख्यक वर्ग से आया है? नफरत फैलाने का काम बहुत पहले तय किए गए एजेंडे के तहत किया जा रहा है। नोटबंदी से हुई हानियों पर परदा डाला जा चुका है और अब किसान आत्महत्या भी इसी तरह हाशिये में चली जाएगी। सरकार की सबसे बड़ी सफलता यह है कि अवाम अब विरोध को गंभीरता से ही नहीं ले रहा है। अवाम के अवचेतन की यह इंजीनियरिंग सचमुच अत्यंत चिंतनीय बात बन गई है। इसमें गौरतलब यह भी है कि संभ‌वत: अवाम इसके लिए पहले से ही सहर्ष तैयार था। सरकार के चुस्त दिखने का कारण यह है कि अवाम सुस्त हो चुका है परंतु यह दशा हमेशा नहीं बनी रहेगी। कुंभकरण तक जागता है।