सिनेमा बॉक्स ऑफिस बनाम आंसू-मुस्कान / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
सिनेमा बॉक्स ऑफिस बनाम आंसू-मुस्कान
प्रकाशन तिथि :23 जुलाई 2015


कबीर खान और सलमान खान की फिल्म के बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड से कहीं अधिक जरूरी बात यह है कि फिल्म का भावनात्मक प्रभाव दर्शक पर क्या पड़ा, कितने लोगों की आंखें नम हुईं और पलकों पर नियंत्रण करके उन्होंने बहने के लिए बेकरार आंसुओं को रोका और कितने लोगों ने बिना संकोच आंसुओं को बहने दिया। इन भावनाओं और रोके या बहाए आंसुओं को तोलने का कोई यंत्र नहीं है, अत: इस आधार पर फिल्म का मूल्यांकन संभव नहीं है। दरअसल, सिनेमा का सार यह है कि वह दर्शकों को हंसाए, कभी-कभी रुलाए और श्रेष्ठतम है वह सिनेमा, जिसमें आंसुओं के मध्य से मुस्कुराहट को परदे पर प्रस्तुत किया जाए। हिंदुस्तानी सिनेमा की मूल धारा ही मुस्कुराहट या आंसू पर केंद्रित है।

सिनेमा को मूवी इसलिए नहीं कहते कि प्रदर्शन कक्ष में रीलें घूमती हैं या शूट करते समय कैमरे में निगेटिव घूमता है, जिसे निर्देशक कहता है 'रोलिंग'। सिनेमा को मूवी इसलिए कहते हैं कि सिनेमाघर में स्थिर बैठे दर्शक के हृदय में भावनाओं का ज्वार उठता है, यही मूवी का अर्थ और उसका उद्‌देश्य भी है। गौरतलब यह है कि क्या समाज और देश के भाग्यविधाता नेतागण भी कभी आंसू बहाते हैं? सत्ता और लोभ सबसे पहले मनुष्य के 'टीयर डक्ट' अर्थात आंसू निर्माण करने वाली नली को ही सुखा देते हैं। वह वक्त आपके घर की दहलीज पर दस्तक दे रहा है, जब आप रोने या हंसने के लिए तरस जाएंगे। भीतर ही भीतर भयावह सन्नाटा पैर पसार रहा है और यही बाजार की ताकत है कि उससे होने वाली हानि के प्रति आप लापरवाह हो जाते हैं। सामाजिक व्याधियों के लक्षण भूतों की तरह बेआवाज चलते हैं।

धन्यवाद लेखक विजयेंद्र प्रसाद, निर्देशक कबीर और निर्माता-नायक सलमान खान, आपने हमें मुस्कुराहट, आंसू और आंसू के मध्य से मुस्कान की भेंट दी। इन विलक्षण भावों का बॉक्स ऑफिस से कोई लेना-देना नहीं है। राजकुमार हीरानी भी यही काम एक दशक से कर रहे हैं। इसके साथ ही नवाजुद्‌दीन सिद्‌दीकी के अब्बा सुपुर्दे खाक हुए, हम उनके भी शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने हमें एक विलक्षण कलाकार दिया। नवाजुद्‌दीन के लिए संदेश है कि इस पर यकीन नहीं करना कि तुम्हारे अब्बा नहीं रहे, 'कौन कहता है कि पिता मर गए, वो तो हमेशा अपनी संतानों की सांसों में जिंदा रहते हैं।'

आलोचक और दर्शक सलमान खान के 'बजरंगी भाईजान' में अभिनय को सराह रहे हैं और बालिका हर्षाली तो हृदय में समा गई हैं। उन्हें यह जान लेना चाहिए कि सलमान खान के लिए यह भूमिका सबसे आसान रही, क्योंकि अपने यथार्थ जीवन में भी वे ऐसे ही हैं, अलबत्ता वॉन्टेड, किक, बॉडीगार्ड इत्यादि फिल्मों में उसे बहुत मेहनत करके अभिनय करना पड़ा, क्योंकि वह उन फिल्मों में प्रस्तुत चरित्रों की तरह नहीं है। इसी तरह उसे दबंग में भी कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ी, क्योंकि उसके व्यक्तित्व में 'बजरंगी' वाली मासूमियत व दबंगई घुलमिल गई है और उसकी दबंगई उसका अपना रक्षा कवच है, अपने ही भीतर के शत्रुओं के खिलाफ यह उसका डिफेन्स मैकेनिज्म है। उसकी दबंगई छिपकली की दुम की तरह है, जो वह शत्रु का ध्यान बिगाड़ने के लिए गिरा देती है, वह उसका डिटेचेबल अंग है। हम यह भी मान सकते हैं कि उसकी दबंगई शेर की दहाड़ की तरह है, क्योंकि शेर अपनी दहाड़ से शत्रु को डराता है। शेर सचमुच में आक्रामक नहीं है, उसका स्वरक्षा का भाव उसे आक्रामक बनाता है। जंगल के शेर, सांप इत्यादि मनुष्य से कम आक्रामक हैं और उनकी आक्रामकता उनकी स्वरक्षा का कदम है। प्रकृति ने हर प्राणी को डिफेन्स मैकेनिज्म दिया है।

यह फिल्म सलमान के लिए निर्णायक मोड़ है - सिनेमा और जीवन का भी। अब अगर उसे ऐसी 'रसिका' मिले जो अपने गहने बेचकर कहे कि 'मुन्नी' को घर छोड़ना शादी करने से ज्यादा जरूरी है, तो वह शादी कर लेगा। उसे हमेशा ही उसकी मां सलमा के मिजाज वाली 'रसिका' की तलाश थी। क्या कबीर खान मदद करेंगे? सलीम साहब ने सलमा खुद ही खोजी थी। इश्क एक वरदान है।