सिनेमा में पूंजी निवेशक की भूमिका / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :12 दिसम्बर 2007
कुछ दिन पूर्व ‘इंडिया टुडे’ के संस्थापक श्री वीवी पुरी का देहावसान हो गया। मीडिया किंग होते हुए भी उन्होंने कभी स्वयं को प्रचारित नहीं किया और उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कभी कुछ प्रकाशित नहीं हुआ। इस फिल्म कॉलम में उन्हें आदरांजलि प्रस्तुत की जा रही है, क्योंकि एक जमाने में पुरी साहब फिल्मों में पूंजी निवेश करते थे। राज कपूर की ‘आग’ को व्यावसायिक सफलता नहीं मिली, परंतु पारखी पुरी साहब ने राज कपूर से 50 प्रतिशत लाभ के आधार पर पूंजी निवेश का अनुबंध किया और ‘बरसात’ से ‘जागते रहो’ तक की फिल्मों में उन्होंने पूंजी लगाई। उन्होंने बलदेवराज चोपड़ा की फिल्मों में भी धन लगाया। हिंदुस्तानी सिनेमा में ‘कलर’ के आते ही सामाजिक प्रतिबद्धता हाशिए पर फेंक दी गई और इसी मोड़ पर पुरी साहब ने फिल्में छोड़ दीं। 1970 में राज कपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ की असफलता के बाद पुरी साहब ने राज कपूर के साथ बनाई 6 फिल्मों पर से अपने अधिकार हटा लिए और पूरा स्वामित्व राज कपूर का हो गया।
‘इंडिया टुडे’ में भी फिल्मों की तरह उनका आग्रह सामाजिक प्रतिबद्धता का रहा है और आज भी उन्हीं आदर्श मूल्यों का निर्वाह हो रहा है। उन्होंने ‘इंडिया टुडे’ में मासिक न्यूज वीडियो भी प्रारंभ किया था, जो एक प्रकार से आज प्रचलित न्यूज चैनल का पूर्वानुमान माना जा सकता है।
आज फिल्म उद्योग में कारपोरेट और बैंक का धन उपलब्ध है, परंतु चौथे और पांचवें दशक में जब विपुल प्रतिभा मौजूद थीं, तब धन मिलना मुश्किल होता था। उस दौर में विभाजन के बाद मुंबई आए सिंधी और पंजाबी लोग फिल्म में पूंजी निवेश के लिए आगे आए और उनकी ब्याज की दर बहुत ऊंची थी। उस दौर में पुरी ने सुरक्षित ब्याज के बदले लाभ और हानि में भागीदारी की तथा जोखिम भी उठाया।
सातवें दशक में हिंदुजा परिवार ने फिल्म पूंजी निवेश क्षेत्र में राज कपूर की ‘बॉबी’ से प्रवेश किया। उसी दौर में जीएन शाह बहुत बड़े पूंजी निवेशक के रूप में उभरे। 1985 से भरत भाई शाह ने प्रवेश किया। इसके अतिरिक्त कई एजेंट ऐसे थे, जो अनेक व्यापारियों से थोड़ी-थोड़ी पूंजी लेकर इकट्ठा किया हुआ धन 36 प्रतिशत ब्याज पर निर्माता को देते थे और फिल्म निर्माण में विलंब के कारण तीसरे वर्ष लिए लाख पर ब्याज देने के बाद कुछ भी हाथ में नहीं आता था। पुरी साहब के अतिरिक्त किसी भी पूंजी निवेशक का आग्रह सामाजिक प्रतिबद्धता का नहीं रहा।
यह एक अत्यंत लोकप्रिय भ्रम है कि अपराध जगत ने स्वयं की छवि को गरिमामंडित करने के उद्देश्य से फिल्मों में धन लगाया। दरअसल उन्होंने कभी धन लगाया ही नहीं। वे केवल सफल व्यक्ति से धन ऐंठते थे, जैसा कि अन्य क्षेत्रों में भी करते थे। अपराध जगत के लोग अपनी जवानी में सितारों के प्रशंसक रहे, अत: ताकत आते ही उनसे मेल-जोल बढ़ाने के प्रयास उन्होंने किए।
1927 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए पैरियर रिपोर्ट के अधिकारियों को दादा साहब फाल्के ने बताया था कि फिल्मों का बजट बढ़ते ही इसकी सामाजिक प्रतिबद्धता घटेगी और गलत मूल्यों में यकीन करने वालों का पैसा फिल्मों को तमाशे में तब्दील कर देगा। फिल्मों के जनक के अनुमान गलत नहीं थे। बहरहाल, किसी भी संस्था ने फिल्मों में पूंजी के प्रवाह पर शोध नहीं किया। इस तरह के शोध से सिनेमा और समाज के बदलते स्वरूप पर रोशनी पड़ सकती है।