सिनेमा में भारतीय मुहावरे की खोज / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमा में भारतीय मुहावरे की खोज
प्रकाशन तिथि :01 मार्च 2016


आदित्य चोपड़ा ने विगत दो दशकों में अनेक फिल्मों का निर्माण किया है और नए निर्देशकों और कलाकारों को अवसर दिया है, परन्तु स्वयं केवल तीन फिल्मों का निर्देशन किया है- 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे', 'मोहब्बतें' और 'रब ने बनाई जोड़ी' और अब अपनी चौथी फिल्म निर्देशित करने जा रहे हैं। रणवीरसिंह अभिनीत 'बेफिक्रे' की अधिकांश शूटिंग फ्रांस में होगी। इस फिल्म की निर्माण पूर्व की तैयारी विगत एक वर्ष से चल रही है। उनकी टीम के कुछ सदस्यों ने शूटिंग की पूरी तैयारी कर ली है। एक होटल में उन्हें कुछ दिन शूटिंग करनी थी परन्तु उन्हीं दिनों दो शादियों ने होटल आरक्षित किया था। आदित्य चोपड़ा के सहायक ने शादियों के अायोजकों को अन्य होटल में जाने का अनुरोध किया और एवज में कुछ यूरो डॉलर भी प्रदान किए। अादित्य चोपड़ा निर्माण पूर्व तैयारियों पर बहुत ध्यान देते हैं और सब काम योजनाबद्ध तरीेके से करते हैं। उन्हें यह भी ज्ञात है कि फ्रांस की सरकार अपने देश में शूटिंग करने पर कुछ मुआवजा भी देती है। यूरोप की सरकारें अपने देश में शूटिंग को बढ़ावा देती हैं, क्योंकि शूटिंग यूनिट के दर्जनों लोग उनके देश में धन खर्च करते हैं जिनसे उनकी इकोनॉमी को मदद मिलती है, लोकल टेक्नीशियनों काे भी काम मिलता है। फिल्म यूनिट में कम से कम पचास से अधिकतम 150 लोग होते हैं और उनके द्वारा किए गए खर्च से वहां के बाजार को लाभ पहुंचता है। इसलिए यूरोप के अनेक देश विदेशी यूनिट द्वारा की गई शूटिंग को बढ़ावा देने के लिए खर्च की गई राशि का कुछ प्रतिशत निर्माता को लौटाती है।

यह आर्थिक पक्ष विदेश में शूटिंग करने का निर्णायक तत्व नहीं है। कहानी की मांग हो कि विदेश में शूटिंग आवश्यक हो तभी विदेश जाना चाहिए। विगत दो दशकों में उन भारतीय लोगों की संख्या बढ़ी है जो विदेशों में नौकरी करते हैं। इस समय एक करोड़ चालीस लाख लोग विदेशों में बस गए हैं और किसी देश के इतने व्यक्ति विदेशों में नहीं बसे हैं। इन अनिवासी भारतीय लाेगों के कारण हमारी फिल्मों का विदेश क्षेत्र में अच्छा व्यवसाय हो रहा है। इन अप्रवासी लोगों की बढ़ती संख्या के कारण फिल्मों को स्वरूप ही बदल रहा है। विगत बीस वर्षों में 'लगान' को छोड़कर किसी भी फिल्म का कोई सम्बंध गांवों से नहीं रहा है। अप्रवासी भारतीय दर्शक की रुचियां महानगरीय हैं, उन्हें ग्रामीण भारत की फिल्में पसंद नहीं हैं। आज कोई 'मदर इंडिया' बनाने का नहीं सोचता। इस विरोधाभास पर गौर करें कि महानगरीय फिल्में बनाकर उन्हें छोटे शहरों और कस्बों के दर्शकों को आप दिखाना चाहते हैं।

विदेश के नयनाभिराम दृश्य भी भारतीय दर्शकों को लुभाते हैं। इसके साथ ही हमारा असंतोष भी बढ़ता है कि हमारे देश की यह हालत क्यों है? भारतीय सिनेमा का असली संकट यह है कि अधिकांश निर्माता विदेशी फिल्मों से प्रेिरत होकर अपनी फिल्में बनाते हैं क्योंकि भारतीय सिनेमा में भारत का अभाव ही सबसे चिंतनीय बात है। भारत में कथाओं का अभाव नहीं है परन्तु कलाकारों के अवचेतन से भारत ही नदारद हो चुका है। इतने दशकों बाद भी भारतीय सिनेमा ने अपना मुहावरा नहीं गढ़ा है। भारत के सिनेमा शास्त्र की शिक्षा देने वाली संस्थाएं भी अपने छात्रों विदेशी सिनेमा के माध्यम से सिनेमा शास्त्र पढ़ाते हैं। सिनेमा के पाठ्यक्रम की सारी किताबें भी विदेशों से ली गई हैं।

भारत में सबसे अधिक फिल्में बनती हैं और दुनिया भर में भारतीय दर्शकों की संख्या सबसे अधिक हैं। इसके बावजूद भी भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली फिल्में नहीं बनती हैं। सत्यजीत रॉय की ठेठ बंगाली फिल्मों को पूरी दुनिया के दर्शकों ने सराहा। हमारी वे फिल्मे ही सराही गई हैं जिनमें भारत की झलक देखने को मिली है। आजकल तो छात्र भी अपने घर में विदेशी फिल्मे ही देखना पसंद करते हैं। इन बातों का यह निष्कर्ष नहीं निकालें कि यह भारतीयता की दलील है। आजकल बात-बात पर लोगों पर राष्ट्रद्राेही होने का आरोप लग जाता है और यह उससे बचने का प्रयास नहीं है वरन सीधी सी बात है कि हर देश अपनी फिल्मों में अपनी संस्कृति की झलक प्रस्तुत करता है और भारतीय सिनेमा ने इसे नजरअंदाज किया है और अब ऐसे दर्शक भी बना दिए हैं जो फिल्मों में सिटीऔर सेक्स देखना चाहते हैं। दरअसल हमारी स्कूली शिक्षा में ही फिल्म निर्माण और फिल्म देखने के प्राथमिक जानकारियों का समावेश करना चाहिए।