सिनेमा में राजनीति और राजनीति में नौटंकी / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमा में राजनीति और राजनीति में नौटंकी
प्रकाशन तिथि : 27 अगस्त 2013


भारत में सबसे अधिक लोकप्रिय सिनेमा, क्रिकेट और राजनीति हैं, जिनमें आज सबसे कम कलंकित सिनेमा है, जिसे स्वतंत्रता के समय बड़े नेताओं ने 'पाप का संसार' कहा था। टेलीविजन पर चुनाव समीक्षा की लोकप्रियता देखकर मनोहर श्याम जोशी ने कहा था कि हमें काल्पनिक चुनाव की समीक्षा का प्रायोजित कार्यक्रम प्राय: करते रहना चाहिए। यह कितने आश्चर्य की बात है कि सिनेमाघर में वातावरण शांत है और संसद अशांत और अनुशासनहीन भी है। विगत चार वर्षों में 77 प्रतिशत समय विरोधी पक्ष के बहिर्गमन के कारण नष्ट हुआ है। क्या अन्य क्षेत्रों की तरह काम छोड़कर जाने वाले सांसदों का वेतन काटा जा सकता है। इंग्लैंड की संसद के इतिहास में एक भी दिन कार्य ठप नहीं हुआ और वहां सशक्त विरोध तथ्यपरक आंकड़ों सहित प्रस्तुत किया जाता है।

सिनेमा में राजनीति और क्रिकेट व्यापार के घोटालों पर फिल्में बनती रही हैं और समाज में आए परिवर्तन के संकेत भी प्रस्तुत किए जाते हैं। वर्तमान दशक में देशप्रेम की फिल्में भी आधुनिक सिनेमाई मुहावरों में नए ढंग से बनाई जा रही हैं। अब सिनेमा सतह के भीतर प्रवेश का प्रयास कर रहा है और शूजित सरकार की 'मद्रास कैफे' बिना किसी व्यावसायिक समझौते के बनाई गई है तथा उसका सफलता से चलना दर्शक के वयस्क होने का प्रमाण है, परंतु हुल्लड़बाज अपने बचपन से बाज नहीं आते और विवेक की स्वतंत्रता खो देने वाली व्यवस्था भी तमाशबीन ही बनी रहती है।

अगले सप्ताह प्रकाश झा की 'सत्याग्रह' प्रदर्शित होने जा रही है तो अगले माह टेलीविजन पर अनिल कपूर द्वारा निर्मित सीरियल '24' आ रहा है, जिसके अनेक पात्र राजनीति से जुड़े हैं। शेखर कपूर द्वारा एंकर किया गया 'प्रधानमंत्री' भी एबीपी स्टार न्यूज पर दिखाया जा रहा है, गोया कि मनोरंजन माध्यम राजनीति को अनदेखा नहीं कर रहा है और शीघ्र ही राजनीति भी हमारे मनोरंजन जगत के बॉक्स आफिस पर सिक्के की तरह जम सकती है।

'मद्रास कैफे' में राजीव गांधी की हत्या के षडयंत्र में स्पष्ट संकेत है कि चंद्रास्वामी, अमेरिका का एक 'हिटमैन' और लिट्टे शामिल थे, परंतु सबसे अधिक दुख की बात यह है कि व्यवस्था का ढीलापन और आला अधिकारियों के अनिर्णय के कारण राजीव गांधी की हत्या नहीं रोकी जा सकी। ज्ञातव्य है कि इस कॉलम में 'कन्फेशंस ऑफ एन इकोनॉमिक हिट मैन' लेखक जॉन पर्किंस का जिक्र किया जा चुका है कि कैसे अमेरिकन संस्था प्रगति को बेकरार देशों को दोषपूर्ण विकास का मॉडल बेचती है और कालांतर में विदेशी कर्ज न चुका पाने पर देश की खनिज संपत्ति विदेशियों के हाथ लग जाती है।

व्यवस्था में दीमक लगने के कारण नैतिक मूल्यों का पतन और सांस्कृतिक शून्य है, परंतु विगत कुछ वर्षों में यह भयावह तथ्य उभरकर आया है कि अनेक अफसर अपनी व्यक्तिगत राजनीतिक आस्था के आधार पर निर्णय लेने लगे हैं और अपने पद के लिए ली गई समर्पण की शपथ को भूल चुके हैं। पुलिस अफसर निर्जन स्थान पर अपनी जाति के अपराधी को छोड़ देता है, फौजी आतंकवादी के बहाने मासूमों की हत्या अपने व्यक्तिगत राजनीतिक पूर्वग्रह के कारण कर देते हैं। इस विषय पर 'शौर्या' नामक फिल्म में आंकड़े और तथ्य भी दिए गए हैं। याद कीजिए 'बैकेट' पर आधारित ऋषिकेश मुखर्जी की 'नमक हराम', जिसमें मजदूर नेता बनते ही नायक अपने निकटतम मित्र के खिलाफ न्यायसंगत कदम उठाता है।

विगत वर्षों में व्यवस्था का एक अंग दूसरे के खिलाफ कार्य कर रहा है और व्यवस्था की मोटर के चारों पहिए एक-दूसरे की विपरीत दिशा में जा रहे हैं, ब्रेक विफल है, कारबोरेटर अपने काम छोड़ चुका है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सत्य की जगह सनसनी बेच रहा है। प्राय: देश की दुर्दशा के लिए नेता और व्यवस्था पर आरोप लगाए जाते हैं, परंतु आम आदमी ही नेता चुनता है और परीक्षाएं पास करके अफसर बनता है। यही आदमी विरोध कर रहा है, उस व्यवस्था का, जिसका वह स्वयं एक अंग और प्रमुख कर्ता है। बाजार शक्तियों ने आम आदमी को एक नारे में बदल दिया है, एक खरीदार में बदल दिया है, जो स्वयं सिक्के की तरह खर्च हो रहा है। राजनीतिक दलों के लिए सत्ता ही साध्य है और राजनीतिक आदर्श का लोप हो गया है। कीमतों के दौर में नैतिक मूल्य खो गए हैं। कुरीतियों और अंधविश्वास ने धर्म को लील लिया है। दरअसल, यह हर व्यक्ति के लिए आत्मावलोकन का अवसर है। कोई आश्चर्य नहीं कि इस विराट नौटंकी के दौर में कुछ सार्थक फिल्में बन रही हैं।