सिनेमा में लोकेशन का महत्व / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमा में लोकेशन का महत्व
प्रकाशन तिथि :02 मार्च 2015


तिग्माशु धूलिया,अजय बहल, सुजॉय घोष, श्रीराम राघवन, इत्यादि फिल्मकारों की नई पीढ़ी बहुत प्रतिभाशाली है और अब राजकुमार हीरानी सीनियर माने जाने चाहिए। हिंदुस्तानी सिनेमा में हर काल खंड में युवा प्रतिभाशाली लोग आकर विधा को संवारते हैं। सिनेमा की यात्रा विगत 103 वर्षों से ऐसी ही चल रही है। वर्तमान में लगभग सारा पूंजी निवेश कॉर्पोरेट से आता है और पूंजी के साथ उनकी शर्तो का पालन करना होता है। स्वतंत्र फिल्मकार अब नहीं के समान हैं। यूं भी सिनेमा पर बाजार का नियंत्रण कम या ज्यादा हमेशा रहा है। फिल्म विधा का यही कमाल है कि कठोर नियंत्रण के बाद भी फिल्मकार अपनी बात का संकेत उसमें शामिल कर लेता है और कॉर्पोरेट के टाई बांधने वाले उसे समझ ही नहीं पाते। हमारे फिल्मकारों ने अंग्रेज सेंसर की आंख में धूल झोंककर स्वतंत्रता का संदेश दिया है। कला संसार सूक्ष्म संकेतों में अभिव्यक्त होता है।

बहरहाल 21 फरवरी को मुंबई में पर्यटन सिनेमा एनक्लेव के अवसर पर भारतीय प्रांतों से अधिक विदेशी प्रतिनिधि मंडल आए थे। राकेश रोशन, मुकेश भट्‌ट इत्यादि कई निर्माता मौजूद थे। तिग्माशू धूलिया ने अपने संक्षिप्त सारगर्भित वक्तव्य में स्पष्ट किया कि अब तक उनकी सारी फिल्मों की शूटिंग भारत में हुई और संभवत: वे विदेश शूटिंग वाली फिल्में शायद ही बनाए। उनका विचार है कि भारत में अब तक शूटिंग किए गए स्थानों से हजार गुना अधिक लोकेशन ऐसे हैं जहां फिल्मकार गए ही नहीं। इस विराट देश में विविध लोकेशन उपलब्ध हैं। उनकी निर्माणाधीन फिल्म 'यारा' की कुछ शूटिंग उन्होंने भोपाल में की जो अद्‌भुत शहर है और वहां का प्रशासन तुरंत ही भरपूर सहयोग करता है औऱ वे बार-बार भोपाल में शूट करना पसंद करेंगे। काश मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ की सरकार ने अपने पर्यटन विभाग को प्रांतों के मनोहारी दृश्यों की पूरी जानकारी के साथ वहां भेजा होता।

हिंदुस्तान में बनी सारी सफलतम फिल्मों की शूटिंग भारत में ही हुई है और 'दुल्हनिया' इसका एकमात्र अपवाद है। वर्तमान दशक की कहानी, पानसिंह तोमर, विकी डोनर, वेडनेस डे, बुरे फंसे ओबामा, बदलापुर इत्यादि सभी फिल्में भारत में शूट हुई। दरअसल, लोकेशन मात्र के कारण कोई फिल्म सफल नहीं होती, सफलता निर्भर करती है इस बात पर कि क्या फिल्मकार दर्शक से भावनात्मक तादात्म्य बना पाया है और फिल्म का समग्र प्रभाव क्या है।

कभी-कभी फिल्मकार लोकेशन को एक पात्र बना देता है। आजादी के बाद के दशक में देव आनंद, गुरुदत्त, राजकपूर की फिल्मों में मुंबई एक पात्र सी हैसियत रखता था। हिंदुस्तान में मुंबई की रोमांटिक छवि उन फिल्मों ने ही गढ़ी है। चेतन आनंद की आखरी खत में नन्हा बालक मुंबई में भटक जाता है और सारे दृश्य यथार्थवादी ढंग से फिल्माए हैं। चेतन आनंद की ही 'हंसते जख्म' में बरसात के मौसम में मरीन ड्राइव क्वीन्स नेकलेस का मंत्रभुग्घ करने वाला फिल्मांकन हुआ है। बिमल रॉय की 'दो बीघा जमीन' में कलकत्ता एक पात्र की तरह है। शशीकपूर और अपर्णा सेन की '36 चौरंगी लेन' में प्रस्तुत कलकता जीवंत पात्र है।

सत्यजीत रॉय की 'कंचनजंघा' में हिमालय भी जीवंत पात्र की तरह प्रस्तुत हुआ है। इसी तरह ख्वाजा अहमद अब्बास की 'शहर और सपना' में भी मुंबई के अनघूए लोकेशन था। 'कहानी' तो कलकता की अातड़ियों में शूट की हुई फिल्म लगती है।

फिल्म में प्रस्तुत भूगोल यथार्थ के भूगोल से अलग होता है। अमेरिका की 1909 में बनी फिल्म में एक नाव में बैठे पात्रों का संघर्ष जारी है और वह धीरे-धीरे नियाग्रा जलप्रताप की और जा रही है। मृत्यु की और जाती नाव से जुड़े तनाव को ‌फिल्मकार ने बखूबी प्रस्तुत किया। दरअसल नाव के दृश्य किसी और शांत मंथर गति से जाती नदी में शूट किए हैं और नियाग्रा फाल के दृश्य संपादन से यूं जोड़े हैं कि समस्त प्रभाव नियाग्रा के पास शूट किए जाने का भ्रम पैदा हुआ। फिल्म निर्माण की कला ही मात्र यकीन दिलाने की कला है। अत: लोकेशन के मामले में यह चीटिंग सिनेमा विधा का हिस्सा है।

अब सिनेमा टेक्नोलॉजी इतनी विकसित है कि बिना किसी स्थान पर गए वहां के दृश्य कम्प्यूटर जनित छवियों से किए जा सकते हैं। रूस की सरकार ने "डॉ. जिवोगो" की शूटिंग की आज्ञा नहीं दी तो चतुर फिल्मकार ने स्वीडन में सैर लगाकर मॉस्को को जीवंत कर दिया। फिल्मों का यह खेल अब राजनीति में भी खेला जाता है कि जो दिखा रहे हैं, वह है ही नहीं और जो है, वह उन्हें दिखाना ही नहीं है। भ्रम रचना अब आसान हो गया है बात सिमट आई है कि आप कितने यकीन से झूठ वोल सकते हैं।