सिनेमा में श्रद्धा दर्शक बैंक आैर करुणा दर्शक वर्ग / जयप्रकाश चौकसे

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सिनेमा में श्रद्धा दर्शक बैंक आैर करुणा दर्शक वर्ग
प्रकाशन तिथि : 26 अगस्त 2014


हॉलीवुड के भव्य बजट की सितारा जड़ित फिल्में बनाने वाले स्टूडियो हैरान हैं कि एलेक्स आैर स्टीफन केंड्रिक भाइयों ने चार मिलियन डॉलर में चार फिल्में बनाईं जिनकी आय 88 मिलियन डालर हुई। केंड्रिक भाइयों की फिल्में आधुनिक आैर रोशन ख्याल की फिल्में हैं जबकि बड़े स्टूडियो आैर कॉरपोरेट संस्थाएं श्रद्धा आधारित पारंपरिक फिल्में बनाती रही हैं। यहां श्रद्धा आधारित शब्द अपने व्यापक अर्थ में लिया जाए जैसे भूत-प्रेत की फिल्में भी इसी श्रेणी में आती हैं क्याेंकि वे सीधे-सीधे क्रिश्चिएनिटी का प्रचार करती हैं। इन फिल्मों के अंत में 'पवित्र जल' या 'क्रॉस' से भूत भागते दिखाते हैं। इन्हीं की प्रेरणा से विक्रम भट्ट की '1920' में हनुमान चालीसा से दुरात्मा को नष्ट किया जाता है। दुनिया के सारे देशों में सिनेमा का आधार श्रद्धा आधारित फिल्मों का दर्शक वर्ग रहा है। श्रद्धा आधारित मतलब सिर्फ धार्मिक फिल्में ही नहीं। आधुनिक पोशाक में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते पात्र भी उसी श्रद्धा आधारित विचार प्रक्रिया से संचालित होते हैं। सूरज बड़जात्या की सारी फिल्मों की विराट व्यवसायिक सफलता का आधार भी पौराणिक विचार प्रक्रिया में यकीन रखने वाले उनके वर्तमान पात्र हैं। 'हम साथ साथ हैं' तो सीधे-सीधे रामायण की कथा थी। केवल पोशाक परिवेश आधुनिक था। वामपंथी विचार-धारा वाले देशों की फिल्मों का आर्थिक आधार भी श्रद्धा आधारित दर्शक रहा।

सिनेमा में धार्मिक कथा नायकों वाली फिल्मों के साथ ही आम आदमी को नायक बनाकर भी खूब फिल्में बनाई गईं आैर यह मजबूत धारणा रही है कि सिनेमा अन्य 'राग दरबारी' माध्यमों से हटकर आम आदमी की संघर्ष गाथाएं प्रस्तुत करता रहा है। सिनेमा माध्यम के पहले कवि चार्ली चैपलिन ने आम आदमी को केंद्र में रखकर फिल्में बनाईं आैर अमेरिका के बाहर भी 'चैपलिनिस्क' फिल्में बहुत बनी हैं। दरअसल मानवीय करुणा भी सिनेमा दर्शकों में उतनी ही मजबूत रही है जितनी श्रद्धा रही हैं। सिनेमा ने मनुष्य मन के इंद्रधनुष के सभी रंगों को कम या अधिक मात्रा में प्रस्तुत किया है। प्रेम कहानियों पर सबसे अधिक फिल्में बनी हैं आैर मजे की बात है कि फिल्म किसी भी श्रेणी की हो, उसमें प्रेम-कथा अनिवार्य है। अर्जुुन योद्धा नहीं है, प्रेमी भी है, कृष्ण चक्र धारण नहीं करते वरन् बांसुरी भी बजाते हैं। इसी तरह बाइबिल प्रेरित फिल्मों में भी प्रेम कहानियां हैं, चाहे वे 'बेनहर' हो या 'सैमसन डिलाइला' आैर चर्च में काम कर रही नन की प्रेम कथाएं भी अनेक बार बनी हैं परंतु इन कथाओं में भी 'श्रद्धा दर्शक वर्ग' के लिए बहुत कुछ होता है। दशकों पूर्व बनी 'मिरेकल' में नन अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है तो परिसर में मरियम की मूर्ति अदृश्य हो जाती है। प्रेमी एक घायल सैनिक था आैर इलाज के लिए लाया गया था। वह राह में मरता है तो नन लौट आती है तथा मूर्ति भी जाती है। दरअसल मूर्ति ने भागी हुई नन का रूप धरके उसके भाग जाने को छुपाया था। नन के लौटते ही मूर्ति स्थान लेती है।

याद रखा जाए कि सिनेमा महंगा माध्यम है। वह उपन्यास या कविता लिखने से अलग है। उसमें पूंजी का लौटना जरूरी है लाभ कमाने का भी महत्व है। कला के प्रति अपनी आस्था से बंधे आैर सामाजिक सोद्देश्यता से प्रेरित फिल्मकार हमेशा दुविधा में रहे हैं कि लाभ कमाने के साथ अपनी बात भी कह सकें। ऐसा रास्ता उन्होंने खोजा आैर सफल भी हुए। अनेक फिल्मकारों ने दर्शकों को मजबूूर कर दिया कि वे अपने कवच, मुखौटे फेंक दें आैर सिनेमाई लहर में समर्पित हो जाएं। सामाजिक सोद्देश्यता, कला, करुणा की सारी फिल्मों की केंद्रीय ऊर्जा उन जीवन मूल्यों नैतिकता से आती हैं जिन्हें मजबूत करने के लिए धार्मिक आख्यान गढ़े गए। परंतु प्राय: इन मूल्यों आैर आदर्शों से अधिक मोह कथाओं के श्राप, वरदान आैर चमत्कार में उन्हें मिला आैर धीरे-धीरे वे श्रद्धा दर्शक हो गए जबकि जीवन मूल्यों के प्रति आस्था इस श्रद्धा से अलग नहीं होना चाहिए थी परंतु 'दुकानदारी' का आधार तो श्रद्धा ही है। व्यापार, लाभ हानि के दायरे के परे कुछ भी नहीं रहा आैर सिनेमा अब स्वयं एक माइथोलॉजी बन चुका है, उसमें भी वही नशा गया है। सिनेमा के इस लाभ प्रेरित रूप में अन्याय शोषण के खिलाफ लड़ने वाले नायक को भी ऐसा कर दिया है कि उसकी लड़ाकू छवि महज बॉक्स ऑफिस नुस्खा बन गई है क्योंकि 'विरोध' भी एक सिक्का बना दिया गया है।