सिनेमा विशेषज्ञ सर्वत्र विद्यमान / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 11 मार्च 2011
मुंबई में कमालिस्तान स्टूडियो बिकने के बाद खबर आई है कि फिल्मीस्तान स्टूडियो भी बिकने जा रहा है। विगत कुछ वर्षों में अनेक स्टूडियो बिक गए हैं और वहां गगनचुंबी इमारतें बन गई हैं। मुंबई में जमीनों के दाम आसमान छू रहे हैं और स्टूडियो के रखरखाव का खर्च इतना अधिक है कि लाभ की गुंजाइश कम है। दूसरी बात यह है कि लकड़ी और लेबर इतना महंगा है कि निर्माता बंगलों में ही शूटिंग करते हैं। अधिकांश भव्य फिल्मों की शूटिंग विदेशों में होती है और वहां भी भीतरी दृश्यों की शूटिंग के लिए भव्य इमारतें उपलब्ध हैं। आज मुंबई में फिल्मों से कई गुना अधिक शूटिंग टीवी सीरियल की होती है और उसके लिए आरे मिल्क कॉलोनी के निकट अलग व्यवस्था है। गोरेगांव में महाराष्ट्र सरकार द्वारा स्थापित फिल्म सिटी में दर्जन भर फ्लोर हैं। आज थोड़े से बचे हुए स्टूडियो इसलिए सक्रिय हैं कि मालिक के मन में सिनेमा के लिए मोह है। आर्थिक दृष्टिकोण से वे घाटे का काम कर रहे हैं। एक स्टूडियो में महंगे उपकरण होते हैं, जिनके रखरखाव के लिए विशेषज्ञों को मोटी तनख्वाह देना पड़ती है। फिल्म निर्माण प्रक्रिया में स्टूडियो महज एक छोटा सा हिस्सा है और उसके साथ रसायनशाला, संपादन सहूलियत इत्यादि ताम-झाम जुड़े हैं।
मुंबई में शूटिंग के बाद सितारे अपने व्यवसाय प्रबंधन के कार्य में लग जाते हैं। कई बार एक दिन में दो फिल्मों की शूटिंग भी करते हैं। उनके लिए मुंबई से ही विदेश जाना सुविधाजनक होता है। ये सितारे मुंबई से बाहर जाकर किसी छोटे शहर में शूटिंग के लिए जाना क्यों पसंद करेंगे? निर्माता भी पचास से अधिक लोगों के दूसरे शहर जाने का खर्च क्यों उठाएगा? भोजपुरी में हर वर्ष पचास से अधिक फिल्में बनती हैं, परंतु पटना में स्टूडियो नहीं है।
खबर है कि भोपाल में कुछ सिनेमा के स्वयंभू विशेषज्ञ सरकार से भोपाल में स्टूडियो बनाने की पहल में जुटे हैं। इससे सरकार को करोड़ों रुपए की हानि होगी और जमीन भी व्यर्थ हो जाएगी क्योंकि असफल निष्क्रिय स्टूडियो को कोल्ड स्टोरेज में बदलने में भी खर्च करना पड़ता है। इस तरह के प्रयास पंजाब और राजस्थान में असफल हो चुके हैं, जबकि उद्योग में पंजाब से आए हुए लोगों की संख्या हमेशा खूब रही है। प्रकाश झा भोपाल में दूसरी फिल्म बना रहे हैं और वे यहां स्टूडियो में काम करने नहीं आए थे, वरन पूरा शहर ही उनकी कथा की पृष्ठभूमि है। गुजरे हुए वक्त के कुछ सुपर सितारे राजनीति के क्षेत्र में अपनी पहुंच का लाभ उठाते हुए इस तरह की योजनाओं को बढ़ावा देते हैं।
मध्यप्रदेश से अधिक फिल्में छत्तीसगढ़ में बनती हैं, परंतु स्टूडियो की स्थापना बहुत खर्चीला मामला है और रखरखाव के लिए विशेषज्ञ भी अपना मुंबई का काम छोड़कर छोटे शहर में नहीं आना चाहते। उत्तरप्रदेश के नोएडा में स्टूडियो के लिए जमीनें आवंटित हुई थीं। वहां केवल टेलीविजन का कुछ काम होता है। गौरतलब मुद्दा यह है कि पिछड़े हुए प्रांतों को अपने साधन और सामथ्र्य अवाम की उन्नति वाली योजनाओं में लगाना चाहिए या ग्लैमर उद्योग के सितारों के आने की उम्मीद पर अपने साधन नष्ट करना चाहिए?
विगत वर्ष या उसके पहले इंदौर में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के नाम पर एक भौंडा स्वांग रचा गया और महीनों पहले उनको आगाह किया गया था। परंतु सलाह को अनदेखा कर जाने कितने लाख रुपए का अपव्यय हुआ। दरअसल इस समय भारत में ऐसे लोग खोजना कठिन हैं जो क्रिकेट, सिनेमा और सर्दी-जुकाम के विशेषज्ञ नहीं हों।