सिनेमा : घरेलू उद्योग / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 12 अक्तूबर 2013
एकसाथ दो समाचार पढ़ें, जिनका गहरा रिश्ता है मनोरंजन जगत के वर्तमान और भविष्य से। पहली खबर यह है कि दुबई में शाहरुख खान की फराह निर्देशित हैप्पी न्यू इयर की शूटिंग के लिए दीपिका पादुकोण के साथ उनकी शारीरिक कसरत के शिक्षक उनके साथ गए थे जिनका दैनिक मेहनताना पैंतीस हजार है तथा रहने इत्यादि के खर्च मिलाकर संभवत: नब्बे हजार प्रतिदिन होगा। दीपिका ही नहीं, सभी शिखर सितारों के साथ आधा दर्जन सहायक जाते हैं और उनका खर्च निर्माता ही उठाता है।
दूसरी खबर 'ओपन' नामक पत्रिका में लेहन्दुम जी. भूटिया द्वारा मिली है कि असम के युवा अनुभवहीन केनी बासुमत्यारी ने 'लोकल कुंग फू' नामक फिल्म मात्र 95000 में बनाई है जितना धन दीपिका के एक ट्रेनर पर खर्च होता है। इस युवा ने फिल्में देखकर एक पटकथा लिखी, जिसे कोई निर्माता सुनना भी नहीं चाहता था। उसके जोश को देखकर उसकी मां ने अपने जीवन की संचित संपत्ति साठ हजार रुपए उसे दिए और परिवार के अन्य सदस्यों से पैंतीस हजार लिए। इस तरह कुल जमा पूंजी 95 हजार में से उसने कैनन 550 डी नामक डिजिटल कैमरा 44 हजार रुपए में खरीदा और अन्य उपकरणों पर खर्च करने के बाद उसके पास मात्र 28 हजार बचे।
उसने जैकी चेन की फिल्मों की तर्ज पर कुंग फू मार्शल आट्र्स की फिल्म नवसीखिए युवाओं को लेकर बनाई और नायिका संगीता नायर, जो वहां रेडियो की न्यूजरीडर थी, को मात्र तीन हजार रुपए दिए। अन्य किसी कलाकार ने धन नहीं लिया। गोयाकि एक शहर के कुछ स्थानों पर शूटिंग करके फिल्म बनाई गई, जिसे पीवीआर मल्टीप्लैक्स के मालिकों ने पसंद किया और उसके डिजिटाइलेशन इत्यादि पर खर्च दो लाख का आया तथा चुनिंदा शहरों में फिल्म दिखाने की योजना है।
वर्तमान में अगर एक सितारे के ट्रेनर पर 95 हजार रुपए प्रतिदिन का खर्च आता है तो उतनी धनराशि में एक पूरी फिल्म भी बन जाती है। ज्ञातव्य है कि दशकों पूर्व राम गोपाल वर्मा भी वीडियो लायब्रेरी चलाते थे और उनकी पटकथा 'शिवा' पर फिल्म बन गई। दरअसल भारत में प्रतिभा और जोश का अभाव नहीं है, अभाव उस पैशन का है जो आदमी से सब कुछ करा लेता है। इसके साथ ही टेक्नोलॉजी ने भी उपकरण आम आदमी के बजट के भीतर खरीदे जाने वाले बना लिए हैं तथा ऑनलाइन सभी प्रकार की जानकारियां उपलब्ध हैं और इस अमूर्त गुरु को दक्षिणा में अंगूठा भी नहीं देना पड़ता, वरन् आप इसे अंगूठा दिखा भी सकते हैं। भारत में सिनेमा एक नशा है और इसके अभ्यस्त लोग अपने सीमित साधनों से भी ऐसी ही फिल्म बना सकते हैं जिसे व्यावसायिक ढंग से प्रदर्शित किया जा सकता है।
यह संभव है कि असम के केनी की तरह कुछ लोग सार्थक प्रयास करें। इस यथार्थ से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस तरह 95 हजार में गढ़ी दस में से नौ फिल्मों को पीवीआर जैसी कंपनी का समर्थन नहीं मिला या उनमें कोई गुणवत्ता ही न हो तो हजार प्रयासों में से अगर एक भी युवा जुनून रखने वाला फिल्मकार उभरकर आता है तो मनोरंजन जगत का विकास ही होगा।
ज्ञातव्य है कि केरल में शादी ब्याह में काम आने वाले उपकरण से ढाई लाख में फिल्में गढ़ी जाती हैं और वीडियो कैसेट को परिवार वाले एक दिन के लिए सौ रुपए में लेते हैं और इस तरह घर-घर प्रदर्शन करने पर पांच लाख की आय प्राप्त होती है। गोयाकि लागत के बराबर मुनाफा होता है जो सितारा जडि़त भव्य फिल्मों में हो पाना कठिन है।
मुद्दा है देश में मौजूद प्रतिभा को स्वयं के प्रयासों से प्रगति करने का। कई ग्रामीण लोगों ने अपने छोटे खेतों में 'कैश क्रॉप' लगाकर धन कमाया है। बात जाकर टिकती है स्वतंत्र एवं मौलिक सोच पर तथा अपने विश्वास को पूरा करने की क्षमता होने पर। इस देश की जनता चाहे तो सरकार के बिना ही देश का स्वदेशी तर्ज पर नया निर्माण कर सकती है।