सिने कैमरा और मनुष्य का मस्तिष्क / जयप्रकाश चौकसे

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सिने कैमरा और मनुष्य का मस्तिष्क
प्रकाशन तिथि : 24 अप्रैल 2019


वर्ष 1839 में स्थिर छायांकन के कैमरे के आविष्कार के बाद ही फ्रांस, इंग्लैंड और अमेरिका में चलते-फिरते मनुष्यों की तस्वीर ले सकने वाला कैमरा बनाने के प्रयास होने लगे। इंग्लैंड में इस प्रयोजन से प्रयास हो रहे थे कि ऐसा कैमरा बीमारियों के निदान में उपयोगी हो सकता है। लाभ से संचालित अमेरिका में यह आशा थी कि इस तरह का कैमरा उद्योग में निगरानी का काम कर सकता है परंतु फ्रांस में इसे कथा कहने के माध्यम के रूप में खोजा जा रहा था। बहरहाल, लुमियर बंधुओं ने 1895 में चलते-फिरते मनुष्यों के चित्र ले सकने वाले मूवी कैमरे का आविष्कार कर लिया।

इस ऐतिहासिक ईजाद के कुछ दिन बाद ही फ्रांस के दार्शनिक बर्गसन ने मैकेनिकल कैमरे और मनुष्य के मस्तिष्क में कुछ समानता को रेखांकित किया। बर्गसन का कथन था कि मनुष्य की आंखें मशीनी कैमरे के लेन्स की तरह है। आंख से लिए चित्र मस्तिष्क में स्थिर चित्रों की तरह संकलित होते हैं और कोई विचार उन्हें चलायमान कर देता है। यह विचार ही ऊर्जा है। कैमरे का एक नया उपयोग सामने आया है। न्यूजीलैंड में हिंसा की घटना को अंजाम देने वाले अपने साथ एक वीडियोग्राफर भी ले गए थे। इसी तरह श्रीलंका में भी उपद्रवी अपने साथ वीडियोग्राफर ले गए थे। ये तमाम हिंसक लोग सगर्व वीडियो से लिए चित्र इंटरनेट पर डालते हैं। इस तरह वे अपने अपराध के सबूतों का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं और उन्हें इस पर गर्व भी है। वे मुतमइन हैं कि उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाएगा और वे अदालत में प्रस्तुत नहीं किए जाएंगे। लुमियर बंधुओं की आत्माएं बेचैन और परेशान होंगी कि उनके आविष्कार का उपयोग इस तरह किया जा रहा है।

कैमरे की खोज के प्रारंभिक कालखंड में मान्यता थी कि कैमरा झूठ नहीं बोलता परंतु ट्रिक फोटोग्राफी ने इस मान्यता को भी ध्वस्त कर दिया। आज तो ऐसा भी होता है कि किसी आम सभा में हम देखते हैं कि हजारों की भीड़ उपस्थित थी परंतु यथार्थ में वहां मुट्‌ठीभर लोग ही मौजूद होते हैं। ब्रिटिश फिल्म 'ब्लो अप' में एक कैमरामैन हाइड पार्क में कुछ चित्र लेता है। घर आकर वह निगेटिव को डेवलप करके उनके ब्लो अप बनाता है। ब्लो अप में झाड़ियों के पीछे एक लाश नज़र आती है। वह घटनास्थल पर जाता है। वहां कुछ नहीं है। वह पुलिस के दफ्तर जाता है, जहां बताया जाता है कि उस रोज किसी व्यक्ति के गुम होने की कोई रिपोर्ट नहीं है। कैमरामैन हरसंभव प्रयास करता है परंतु कहीं कोई कत्ल का समाचार नहीं है। किसी कब्रगाह में कोई दफन भी नहीं हुआ है। अगली सुबह वह पुन: हाइड पार्क जाता है, जहां कुछ लोग पूरी गंभीरता से टेनिस खेलने का स्वांग कर रहे हैं परंतु उनके हाथ में कोई रेकैट नहीं, कहीं कोई गेंद भी नहीं है परंतु खेल बदस्तूर जारी रहता है। उसे समझ में आ जाता है कि जीवन भी टेनिस के इस खेल की तरह एक स्वांग ही है। यह अत्यंत सारगर्भित दार्शनिक फिल्म मानी गई है। आज हम भी जीने का स्वांग ही कर रहे हैं। सारा जीवन एक दु:स्वप्न है। सहिष्णुता इस कदर घट गई है कि महान विवेकानंद के विचारों को दोहराने पर भी कुछ लोग खफा हो जाते हैं।

बर्गसन को अनुमान भी नहीं था कि मस्तिष्क और कैमरे की कार्यप्रणाली समान है। यह कहना असत्य होगा कि धमकियों से डर नहीं लगता या परिवार के सारे सदस्य परेशां नहीं होते। परिवार के जीवन सरोवर में एक छोटा-सा कंकर भी लहरों की गति में इजाफा कर देता है। निदा फाज़ली की पंक्तियां हैं, 'चारों ओर चट्‌टानें घायल, बीच में काली रात/ रात के मुंह में सूरज/ सूरज में कैदी सब हाथ/ जीवन शोरभरा सन्नाटा, जंजीरों की लंबाई तक है सारा सैर-सपाटा।'