सिन्दूरी भोर: एक दृष्टि / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
विश्व-काव्य में हाइकु अपना स्थान निरन्तर उच्च से उच्चतर बनाता जा रहा है। विधा के विस्तार के साथ एक ख़तरा हमेशा बना रहता है-वह है , अल्पकाल में यश-कामना के लिए लालायित रहने वाला वर्ग रचना-कर्म की गम्भीरता के स्थान पर तात्कालिक विषयों पर स्तरहीन रचनाओं का अम्बार लगाने में आगे रहता है। हाइकु-सृजन लघुकाय विधा होने के कारण सरल नहीं, केवल श्रमसाध्य नहीं अर्थात् यान्त्रिक नहीं है। भावानुभव की गहनता, संवेदना की तरलता, कल्पना का औत्सुक्य, सन्तुलित एवं भावसिंचित वैचारिकता और भाषिक संयम हाइकु को संवेद्य और सम्प्रेष्य बनाते हैं। दरिद्र वैचारिकता, स्तरहीन भाषा और व्यर्थ का वाग्जाल अपनाकर कुछ अकवि हाइकु की आत्मा का संहार कर रहे हैं। यहाँ मैं किसी नए-पुराने रचनाकार की बात नहीं कर रहा हूँ। इनमें वे रचनाकार भी शामिल हैं, जो सृजन में ठस होने के बावजूद स्वय को पुरोधा समझने का भ्रम पाले हुए हैं। नए रचनाकारों की एक पीढ़ी अपने अनुभूत जीवन और सृजन के माध्यम से पाठकों को प्रभावित कर रही है। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि कुछ ऐसे भी रचनाकार सामने आए हैं, जिन्होंने अपने गुणात्मक रचनाकर्म से बड़े वर्ग को प्रभावित किया है। उनमें से कृष्णा वर्मा का नाम भी है। इनका संग्रह -अम्बर बाँचे पाती(688 हाइकु) वर्ष 2014 में सामने आया। अभी सिन्दूरी भोर (1070 हाइकु) मेरे सामने है। जहाँ तक मेरी जानकारी है,अप्रवासी भारतीय रचनाकारों में आपका हाइकु-सृजन सर्वाधिक है।
मानव के लिए प्रकृति सदैव आकर्षण और कौतूहल का विषय रही है। भारतीय वाङ्मय में वेदों से लेकर उपनिषद् और गीता तक, बाल्मीकि रामायण से लेकर कालिदास के काव्य तक प्रकृति सदा अभिभूत करती रही है। चाहे वे मधु वाता ॠतायते , शन्नों तपतु सूर्य: , स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव जैसे मन्त्र हों, चाहे अन्य संस्कृत साहित्य से लेकर हिन्दी काव्य-संसार हो; प्रकृति का समावेश प्रमुखता से हुआ है। सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथिवी, आकाश, नदी, समुद्र, वायु, मेघ , प्रभात, साँझ, रात्रि , ॠतुएँ , नदी , बादल समुद्र आलम्बन से लेकर उद्दीपन तक, प्रतीक से लेकर मानवीकरण तक प्राकृतिक वैभव बिखरा पड़ा है।
प्रलय की काल रात्रि व्यतीत होने पर मनु ने जिस उषा काल को देखा, तो उसका स्वरूप-‘ऊषा सुनहले तीर बरसती,जयलक्ष्मी-सी उदित हुई’ के रूप में सामने आता है। कृष्णा के संग्रह का पहला हाइकु है-
सिंदूरी भोर/ हरियाले खेतों में/पुरवा- शोर।
इसी के साथ भोर अनेक रूपों में चित्रायित है-कहीं वह खिलती भोर है , तो कहीं सजी-सँवरी है । कहीं ठिठुरी भोर है-
खिलती भोर / झील में अक्स देख/होती विभोर।
सजी-सँवरी/नारंगी ओढ़नी में/दुल्हन भोर।
ठिठुरी भोर/नभ के आँचल में/दुबक, सोए।
जब शैतानी सूझती है, तो वह –शैतान भोर/पेड़ों की फुनगी के/माथे जा चढ़े।
कहीं जाते-जाते चाँद भोर के कान में कुछ गोपनीय बात कह जाता है-भोर के कान/रात बीती कहता/प्रहरी चाँद।
भोर के बाद का दृश्य धीरे-धीरे विस्तार पाता है । पूरी सृष्टि उत्सवधर्मी होकर खिल उठती है, कण-कण उल्लास से भर उठता है। पंछी चहक उठते हैं। पूरा वातावरण संगीतमय हो जाता है। कवयित्री ने भोर और उसके बाद के मनोरम दृश्य की विविध भंगिमाएँ प्रस्तुत की हैं। चतुर्दिक् आदिम सौन्दर्य बिखरा है-
स्वर्ण रश्मियाँ/ कण-कण उल्लास /दिव्य प्रकाश।
भोर नहाई/ ललित लालिमा में/चिहुँके पंछी।
नारंगी भोर/ खग-मृग हर्षित/धरा विभोर।
छिटकी भोर/पंछी का कलरव/करे विभोर।
चहुँदिश में /आदिम सौन्दर्य की /अनंत राशि।
भोर किरण का सौन्दर्य और भी अद्भुत है। लगता है जैसे चारों तरफ़ कुमकुम बिखरा हो, पूरब दिशा में लगता है जैसे आलोक ने अँगड़ाई ली हो-
भोर किरण/छिटके कुमकुम/ नभ आँचल।
जगा पूरब/स्वर्णिम आलोक ने/ली अँगड़ाई।
एक ओर भोर का सौन्दर्य है, तो दूसरी ओर साँझ का दृश्य भी कम नयानाभिराम नहीं है। शाम भी आती है, तो बहुत -सी पुरानी यादें घिर आती हैं। यादें भी दबे पाँव आती हैं। ‘दबे पाँव आना’ मुहावरे का प्रयोग साँझ को मानवीकृत कर देता है -
क्षितिज रँगा/खिसका लेती साँझ/घूँघट -पट।
क्या नभ-नूर/संध्या के माथे पर/ सूर्य- सिंदूर।
यूँ दबे पाँव/यादों के दीये जला/उतरे शाम।
साँझ के आँचल पर केसर घोलकर दिन का बिदा होना, पाँव में आलता रचाकर सूर्य का बिदा होना बहुत सार्थक शब्दचित्र बन जाता है-
केसर घोल/ संध्या के अँचरा पे/दिन हो गोल।
साँझ के पाँव/आलता रचा के ले/सूर्य विराम।
दुखिया रात के पास केवल कालिमा है, जिसे लेकर वह साँझ के द्वार पर खड़ी है।
कालिमा लिये / खड़ी साँझ के द्वार / रात बेज़ार।
खोल पिटारी/ टाँके साँझ नभ में /गोटा -किनारी।
कहीं जेठ की दोपहरी है। एकदम अकेली, ज़िन्दगी की तरह तपती हुई। सन्नाटे का सार्थक चित्रण- खड़ी अकेली/ जेठ दोपहरी -सी/तपे ज़िंदगी।
रात ही एकमात्र सहारा है , जो तपटे टीलों को शीतलता प्रदान करती है। सुख-दुख जीवन का यह अनिवार्य चक्र है। सूर्य को भी नवेली धूप लाने के लिए अस्ताचलगामी होना पड़ता है-
अलापे रात/तपते टीलों पर/शीतल गान।
डूबे बगैर / सूर्य भी ना ला पाता /नवेली धूप।
जीव-जगत् के लिए धूप का कितना महत्त्व है ! कबूतरों का पंख फुलाना, धूप पीकर चिड़िया का चहचहाना, धूप को पीठ पर लादकर अटारी चढ़ना इन पंक्तियों से स्पष्ट है-
धूप नहाए/कबूतरों का जोड़ा/पंख फुलाए।
चुग्गे को आई/धूप पीके चिड़िया/चहचहाई।
धूप को लादे/पीठ पे गिलहरी/चढ़े अटारी।
सर्दी का मौसम, सूरज के दर्शन न होना किस तरह प्रभावित करता है। इन पंक्तियों में देखिए-
सोया सूरज / ओढ़ गर्म लिहाफ़/ठिठुरे पंछी।
छाया और धूप का कवयित्री ने जीवन से जो साम्य बताया हैं, वह कटु सत्य है-
धूप व साए/ होते नहीं अपने/सदा पराए।
गुलाबी धूप का शरमाने और लेटने की भंगिमा से किया गया मानवीकरण का सौन्दर्य अभिभूत कर लेता है-
शरमाई -सी / लेटी है सिरहाने। गुलाबी धूप।
सूरज का ज़िद्दीपन उसके लिए भी कष्टकारी है-
टँगा सूरज / ज़िद्द की खूँटी पर /पिए अंगार।
यहाँ कृष्णा जी के कतिपय हाइकु का ही उल्लेख सम्भव है। हाइकु श्रमसाध्य न होकर, जितने भाव-प्रसूत होंगे उतने ही दीर्घजीवी होंगे। हाइकु में तुकान्त सायास नहीं होना चाहिए, अत: इसे हाइकु की अनिवार्यता नहीं, केवल स्वीकार्यता ही माना जाए। लयात्मकता आपके हाइकु का विशेष गुण है। विभिन्न भावों के लिए किए गए शब्द -चयन में आपके गहन अध्ययन की झलक मिलती है।
आशा करता हूँ यह संग्रह वैश्विक स्तर पर हिन्दी -जगत् में अपना स्थान बनाएगा।
सिन्दूरी भोर( हाइकु-संग्रह): कृष्णा वर्मा , पृष्ठ:118, मूल्य:240 रुपये, वर्ष: 2021, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली नई दिल्ली-110030
-0- (13 मई 2021 , नई दिल्ली)
(25 मई 2021 , हरियाणा प्रदीप )