सिफ़र / शेफ़ालिका कुमार
दोनों दोस्तों ने एक-एक काउच हथिया लिया था . आलसी कहीं के, स्नेहा ने सोचा , तीन घंटों से दोनों स्पोर्ट्स चैनेल पर चिपके हुए हैं . इस बीच उसने दो कप कॉफ़ी पी थी और काफ़ी देर तक बारिश की बूंदों और लहरों के खिलवाड़ को जी भर कर निहारा था. फिर वह तीसरी बार पूछने गयी -
" रूम सर्विस से क्या ऑर्डर करूँ ?"
" हूं ?"
" अं … वो …"
दो… चार… सात , स्नेहा की आँखें बिअर की बोतलों की गितनी करने लगीं . हुँह ! जैसे कि इन्हें फ़र्क पड़ने वाला है कि यह रात के खाने में क्या खायेंगे !
" कितना बोर करते हो तुम दोनों , यह दारू और टी . वी . तो मुंबई में भी मिलती है , इतनी दूर गोवा आने की क्या ज़रुरत थी ? "
" अच्छा ! किसके प्रोजेक्ट के ख़तम होने के लिए हम वेट कर रहे थे ? तू तो बोल मत ! तेरे चलते हम मॉनसून में आये हैं . वर्स्ट टाइम टू विज़िट गोवा ! लडकियाँ कितनी कम हैं यहाँ।" साहिल बोला .
खाना खाते वक्त स्नेहा ने उलझे हुए नूडल्स को अपने कांटे में लपेटते हुए कहा - " मै सोचती हूँ निशा को फ़ोन करके योगा कैम्प के बारे में पूछूँ . तुम दोनों के साथ तीन दिन काट लिए, बहुत है और लगता नहीं है कि यह बारिश रुकेगी . पहले दो दिन कम से कम कुछ तो साईट सीइंग हुई . अब क्या करूंगी मैं ?"
" निशा कौन ?" आशीष ने पूछा .
" अरे हमारी टैक्सी जब चिपलून में ख़राब हुई थी तो एक पटाखा ने हमें लिफ्ट दी थी, अपनी कार में . वो किसी योगा कैम्प के लिए यहाँ आ रही थी ." साहिल ने कहा .
आशीष ने हाथ को शाही अंदाज़ में फेरते हुए कहा - "पटाखा ? तो हम भी जायेंगें योगा कैम्प ."
" नो नीड, हुंह ! " स्नेहा आँखें दिखाने लगी और फिर दोनों उसपर हँसने लगे .
फ़ोन मिलाते हुए स्नेहा के मन में बहुत हिचकिचाहट थी . निशा ने कई घंटों के सफ़र में शायद पाँच लाइने बोली हों . बातूनी साहिल को वह मुस्कुरा कर कुछ समय तक झेलती रही थी , उसके मुस्कुराते होठों के कोनो में एक गंभीरता बैठी हुई थी , और बड़े धैर्य से उसने एक किताब को पकड़ा था . जब चाय लेने के लिए साहिल उतरा तो वह किताब खुली और साहिल के लाख चाहने पर भी उसकी आँखें वहाँ से हटी नहीं .
अभी फ़ोन पर निशा बहुत विनम्र थी . उसने कहा कि स्नेहा कल आकर योगा कैम्प देख ले और तय कर ले कि उसे कौन सा कोर्स करना है . उसने रास्ता समझा दिया .
दूसरे दिन स्नेहा जब कैम्प में पहुँची तो निशा एक फूस की गोल छतरी के नीचे कुछ लोगों के साथ चिंतन में थी . फिरंगी ज़्यादा और भारतीय कम थे . अलग-अलग समूह में लोग योगा , चिंतन या उपदेश सुनने में व्यस्त थे . कुछ लोग समुद्र तट पर ही योगा कर रहे थे . यह गोवा अलग था , नारियल के समूह के बीच, अपनी दुनिया बसाए एक समुदाय जिसे मानो तड़कते - भड़कते गोवा की ख़बर ही न थी . बरसात में धुले हुए , पवित्र पेड़ -पौधों के बीच साँस लेता एक छोटा-सा गाँव जो किसी बीते हुए युग का हो .
पैमफ्लेट पर स्नेहा ने देखा कि योगा कोर्स ,पंच कर्म , हीलिंग , मसाज , आदि की सूचना दी गयी थी . स्नेहा ने तय किया कि वह एक हफ्ते तक यहाँ रहेगी . दो दिन उसे एक रूसी लड़की डीना के साथ रहना था , उसके बाद निशा की रूम-मेट जाने वाली थी .
" फिर तुम मेरे कमरे में आ जाना ." निशा ने कहा .
बाद में साहिल उसका सामान पहुँचाने आया और उसके गाल खींचते हुए बोला - " मोटी , फ़ोन करना ."
उसके जाते ही निशा ने पूछा कि क्या साहिल उसका बॉयफ्रेंड था ? स्नेहा ने हंसते हुए समझाया कि वह तो बस उसके बचपन का दोस्त है .
दोनों उस हरित योगा रिट्रीट में घूमने लगीं . कुछ देर बार धीरे से स्नेहा ने कहा , "मेरी सगाई हो गयी है , नवम्बर में शादी है ."
" ओअ !"
" ओअ ? " कुछ समय बाद , अधोमुखश्वानासन करते वक़्त स्नेहा ने इस शब्द पर गौर किया . जवाब में बधाई के बदले " ओअ !" क्या मतलब इसका ? " ओअ ", ऐसा कहता है कोई!
यह शादी का रिश्ता टाट के परदे की तरह था जिसका काम घर की औरतों को छिपाने के साथ-साथ गरीबी को छिपाने के लिए भी किया जाता है . इसलिए निशा का वह शब्द उसे चुभ गया था . स्नेहा को गर्व था अपनी ज़िन्दगी पर . बड़ी मेहनत करके वह यहाँ तक पहुंची थी , अच्छे शहर में एक बढ़िया नौकरी थी उसके पास और वह अपने आप को काफ़ी सफ़ल मानती थी . बहुत जल्दी वह इस बात को समझ गयी थी - इमेज इज़ एवरीथिंग ! इसीलिए वह अपनी सफ़ल छवि पर कमज़ोरी की छाया बरदाश्त नहीं कर पाती थी . अगली बार अपने मंगेतर के बारे में बताऊंगी और खूब सारे कपल फ़ोटोज़ भी दिखाऊँगी , स्नेहा ने तय किया .
एक दिन, क्लास ख़तम होने के बाद वह निशा का इंतज़ार कर रही थी. निशा दूसरे क्लास में थी - एडवांस्ड क्लास में . इस समूह में योग में तन्मय लोगों की कला को देख ऐसा लग रहा था कि यह योगा नहीं एक धीमा नृत्य है . एक के बाद एक, आसन एक दूसरे में मिल जाते थे , कोई रुकना नहीं . निशा को देख ऐसा लग रहा था कि यह करना बहुत आसान होगा . पर जो चीज़ दिखने में इतनी आसान और सुलझी लगे वह असल में बहुत जटिल होती है .
" वाओ . कैसे कर लेती हो तुम ? " बाद में अंकुरित सलाद और पपीते की प्लेट पर नाक सिकोड़ते हुए उसने पूछा .
" तीन साल से सीख रहीं हूँ, योगा गुरु बनना चाहती हूँ . तुम भी इतने दिनों में सीख जाओगी अगर रूचि हो तो ." निशा ने कहा .
" मेरी जॉब बहुत डिमांडिंग है , पर थोडा-बहुत तो सीखना चाहती हूँ , जस्ट टू स्टे फिट . तो अभी तुम कॉलेज में हो ?"
" नहीं . पुणे में रहती हूँ , एक-दो स्कूल में योगा सिखाती हूँ और घर के गराज में भी क्लासेज़ लेती हूँ . कुछ आस-पास की हॉउसवाइफ़्स आती हैं सीखने . पर कुछ सालों बाद यहाँ आकर सिखाना चाहती हूँ ."
" व्हाट अ लाइफ़ ! आई ऍम इम्प्रेस्ड !"
निशा धीरे से मुस्कुराई स्नेहा को लगा, हर भाव पर लगाम कसना उसकी आदत थी. भावनाओं की फ़िजूलखर्ची पर उसका अनुशासन उसके चरित्र में एक गहराई बनाता जा रहा था, जबकि उसकी उम्र ज्यादा नहीं थी . अगले कुछ दिनों में उसने देखा कि निशा बड़ी लगन से सब काम करती थी . वह बातूनी नहीं थी पर लोग उससे खूब बाते करते थे . वह काफ़ी लोकप्रिय थी .
उन्मुक्तता एक चुंबक की तरह होती है , शायद यही वजह थी कि अपनी अन्दर की दुनियाँ में सिमट कर रहने वाली निशा को सब जानते हैं, स्नेहा ने सोचा . उसे देखकर बीती हुई जवानी भी याद आने लगी थी , हालाकी स्नेहा इतनी स्वतन्त्र और दृढ़ अपनी जवानी में भी नहीं थी . वह उन लोगों में से थी जिन्हें समूह में सुरक्षा मेहसूस होती है . बने और बताये रास्तों पर चलकर ही वह कुछ पाना चाहते हैं . उसके पिता और दादा सालों से व्यापार करते आये थे, पैसा खूब था पर वह परिवार की पहली लड़की थी जिसे नौकरी करने की अनुमति मिली थी .
इसी बीच उसने देखा कि निशा, जो कुछ समय से ग़ायब थी, तेज़ क़दमों से उसकी ओर कुछ लेकर आ रही है . कमरे में ले जाकर उसने पार्सल खोला . उसमें क़बाब थे . निशा मुस्कुरा कर कहने लगी कि उसके कुछ मांसाहारी दोस्तों ने क़बाब मंगवाया था सो वह उसके लिए ले आई .
" तुम्हें यहाँ का खाना पसंद नहीं है न, खाओ. बड़ी मुश्किल से मिला है ."
इस औदार्य से शरमा कर स्नेहा की ईर्ष्या अपराधबोध में परिणत हो गयी और क़बाब का स्वाद पता नहीं कहाँ खो गया . पर उसकी नकली मुस्कराहट धन्यवाद बोल रही थी .
एक दिन सुबह से देर दोपहर तक दोनों व्यस्त रहीं . चाय पीने के बाद देखा कि कुछ लोग भाड़े पर स्कूटर लेकर बाहर घूमने जा रहे थे. कुछ जान-पहचान के लोगों ने निशा को निमंत्रण दिया लेकिन उसने नम्रतापूर्वक मना कर दिया . थोड़ी देर बाद उसने स्नेहा से पूछा-
" क्या तुम स्कूटर चलाना जानती हो ?" स्नेहा जानती थी .
" पास में कुछ सुंदर मंदिर हैं और बीचेज़ भी . चाहो तो हम अपने से जा सकते हैं . तुमने वो सब नहीं देखा होगा . "
स्नेहा को आश्चर्य हुआ कि निशा के संग उसे काफ़ी आनंद आ रहा था . एक सरलता थी निशा में , जैसे बहता पानी कहीं भी ढलाव पाकर आगे बढ़ जाता है वैसे ही निशा हर चीज़ में राज़ी हो जाती थी . बस उसे भीड़ पसंद नहीं थी .
रात को स्नेहा बगल के रेस्टोरेंट में जाना चाहती थी , समुद्र- तट पर मेजों की एक कतार लगीं थी . जब वे पहुँचीं, उस समय उस विजन समुद्र -तट पर संगीत की हल्की ध्वनि के साथ समुद्र की लहरों की जुगलबंदी चल रही थी. सूरज अभी डूबा था . मेज पर बैठकर स्नेहा ने अपनी सुनहली चप्पलें उतार दीं और बालू को पैरों से सहलाने लगी .
" गोवा लोग मस्ती करने के लिए आते है लेकिन सच पूछो तो यहाँ कितना सुकून है . "
निशा बोली , " इसलिए तो मै यहाँ बरसात में आती हूँ जब भीड़-भाड़ कम हो. इतने सालों से आ रहीं हूँ पर कभी भी उन जगहों पर जाने का मन ही नहीं करता जहाँ सब टूरिस्ट जाते है .पार्टी , क्लब, उफ़ ! इस समय ही गोवा सबसे ज़्यादा सुन्दर होता है ."
स्नेहा खो गयी थी -
' शोर ऐसा ही होना चाहिए निशा . लहरों का शोर, शोर होकर भी शोर नहीं है ."
माथे पर बल देते हुए निशा ने खाली आँखों से उसकी ओर देखा .
" सॉरी , पता नहीं मैं क्या बोलना चाह रही हूँ . " स्नेहा ने कहा .
इसी बात पर दोनों रेड वाइन पीते-पीते हंसने लगीं . अब धीरे-धीरे कुछ और लोग वहां आने लगे . शाम काली होने लगी थी और आकाश महासागर में रिसने लगा . रात को रेस्टोरेंट वालों ने आतिशबाजियों का प्रदर्शन शुरू किया . आतिशों से आकाश और महासागर भर उठा . चिंगारियों की लड़ियाँ रूकती नहीं थी जैसे असहनीय गर्मी से जल कर फूटने की परवाह न थी उन्हें, समझ थी यही कि अगर जलेंगें तभी तो फूट कर खिलेंगें . लाल-पीला -सुनहला -नीला , सारे रंग थे , दोनों लड़कियों के मन तत्क्षण बहुत सारी भावनाओं से भर गए . काम , सोच और महीनों की थकान से बोझिल स्नेहा का मन एक साथ हंसने और रोने लगा . निशा सिर ऊपर किए विस्मय और ख़ुशी से खिलखिला रही थी . हँसी थमी तो स्नेहा ने निशा का हाथ पकड़ कर कहा-
" थैन्क्यू , ऐसी एक छुट्टी की ज़रुरत थी मुझे ."
निशा मुस्कुराती रही . स्नेहा चिंतन में डूबने लगी और उसका मन स्थिर हो रहा था और आँखें निशा के शांत चेहरे पर थी . दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी थीं और इसी बात से स्नेहा खुल गयी , शब्द झरने लगे.
फ़ोन पर अपने मंगेतर का फोटो दिखाती हुई वह उसे बताने लगी कि बहुत अच्छा लड़का है वह , दिल्ली में बैंकर है. निशा ने उन दोनों के एक साथ कई फोटो देखे.
"अरेंज्ड मैरेज ? "
" हाँ ."
" तो प्रौब्लम क्या है ?" बड़े ही स्वाभाविक ढंग से निशा ने पूछा.
स्नेहा चौंक कर कुछ देर तक चुप रही . लहरों की चप -चप सी आवाज़ एक स्टॉपवॉच की तरह समय को नाप रही थी . झेंप कर हँस कर बोली -
" मुझे लड़का पसंद है …… पर शादी के पहले अगर तुम लड़के के प्रति आकर्षित न हो तो …. पता नहीं … "
निशा ने जवाब में सिर्फ़ "ह्म्म्म" कहा .
लम्बी साँस छोडते हुए और अंगड़ाई लेते हुए स्नेहा अब थोड़ी मच्योर बनने की कोशिश करने लगी .
"खैर छोड़ो , लड़कों और रेलेशंशिप्स के मामले में मैं ज़ीरो हूँ . अब तक जो नहीं मिला उसे खोजना बेकार है . प्रॉब्लम मेरे में है या उन लड़कों में या मेरे सितारों में कौन जाने . जो मिल रहा है उसे ठुकराना बेवकूफ़ी होगी . ३३ की हूँ , ज़िन्दगी आगे बढ़नी चाहिए , घर -बच्चे … शाम को घर जल्दी आती हूँ तो शाम कितनी खाली लगती है . "
उसने देखा कि यह सुनकर निशा का चेहरा उतर गया है , तो अपना वाइन ग्लास उसके वाइन गिलास से टकराकर बोली -
" छोडो मेरी बोरिंग ज़िन्दगी , सब मेरी तरह थोड़े ही होते है , अन्लकि इन लव ! चलो एन्जॉय करते हैं !"
निशा वापस जाना चाहती थी पर स्नेहा ने उसकी एक न सुनी .
" चलो थोड़ा घूमते है , अभी तो सिर्फ दस बजे हैं ."
फ़िर दोनों काफी समय तक स्कूटर में घूमती रहीं . एक रेस्टोरेंट से संगीत की आवाज़ ज़ोरों से आ रही थी . स्नेहा ने निशा का हाथ पकड़ा और उसे अन्दर ले गयी . दो मौकटेल्स का ऑर्डर देकर दोनों स्टेज पर और लोगों के साथ नाचने लगी . दोनों को बहुत मज़ा आ रहा था .
स्नेहा ने देखा कि टेबल पर एक औरत बड़े गौर से निशा को देख रही थी . निशा से वह पूछने लगी कि क्या वह उस औरत को जानती है पर म्युज़िक की आवाज़ के नीचे उसकी आवाज़ दब गयी. जब वे टेबल पर वापस आयीं तो स्नेहा उससे यह पूछना चाहती थी कि वह औरत उसे ऐसे क्यों घूर रही थी तबतक उसने देखा कि वह औरत अपने पति से झगड़ने लगी .चंद मिनटों के अन्दर वह उनके पास खड़ी थी और फिर जो हुआ इतनी तेज़ी से हुआ कि अचानक स्नेहा गालियों की बौछार के बीच थी और सजे-धजे, भद्र लोग बड़ी दिलचस्पी से खाने के साथ इस झगडे का मज़ा ले रहे थे.
वह औरत आँखों में खून लिए निशा पर आरोप लगा रही थी. निशा उसके पति का पीछा करते हुए गोवा तक आयी है . आज सवेरे उसका पति होटल से गायब होकर कहाँ गया था? अब उसको समझ में आ रहा था कि वह किसके साथ था. उसका पीछा निशा क्यों नहीं छोड़ती ?
निशा कुछ कह रही थी कि वह गोवा में इस आदमी से नहीं मिली , और पिछले कई सालों से नहीं मिली .
स्नेहा कुछ समझ नहीं पा रही थी, पर अब वह औरत गन्दगी पर उतर आई थी . दोनों को देखकर कहने लगी कि ऐसी धन्धे वाली लड़कियों ने गोवा का नाम ख़राब कर रखा है . तभी वहाँ का मैनेजर आया और उन सबसे अनुरोध करने लगा कि वह बाहर जाकर इस मामले को निपटाएं. स्नेहा निशा को खींचकर बाहर लाने लगी. बाहर आकर उस औरत ने निशा को बाँहों से पकड़ लिया . वह पुलिस को फ़ोन कर रही थी . निशा पागलों की तरह चिल्लाकर स्नेहा को जाने के लिए बोलने लगी . कई धक्कों के बाद स्नेहा ने महसूस किया कि ठंडी हवा उसके बदन को भेद रही थी और वह रिट्रीट के पास की सड़क पर है- अकेले .
स्नेहा पूरी रात जगती और सोती रही थी एक लाचार बेचैनी लिए। कमरे में आहट होते ही वह उठ गयी और उसने राहत की सांस ली। निशा लौट आई थी। रात लगभग बीत गयी थी , उजाला होने लगा था पर सूरज उगा नहीं था.
" तुम ठीक हो ?"
निशा ने धीरे से सिर हिलाया .
" मै तुम्हें ज़्यादा जानती नहीं पर …. "
निशा ने कड़ी आवाज़ में कहा - "तीन साल पहले तक मै मुंबई में एक एस्कोर्ट गर्ल का काम करती थी . वह आदमी मेरा क्लाएंट था , पर वह बहुत पहले की बात है . सब कुछ छोड़ कर, एक नयी ज़िन्दगी की तलाश में मैं तीन साल से पुणे में हूँ .किसी से कोई कौनटैक्ट नहीं है. "
निशा के चेहरे को देखकर स्नेहा को डर लग रहा था . उसका चेहरा अविचलित दिख रहा था पर उसके साँसों की आवाज़ रात की निस्तब्धता को भेद रहीं थी . और आँखें अपने अपमान के गुस्से से ख़ूनी हो उठीं थी . चंद मिनटों बाद हिम्मत बटोर कर स्नेहा ने कहा -
" हू ऍम आई टू जज ? कोई मजबूरी रही होगी … "
" जैसा तुम सोच रही हो वैसी कोई मजबूरी नहीं थी मेरी। न भुखमरी , न परिवार के किसी सदस्य का बहुत बीमार होना, जिसके कारण मुझे पैसे बटोरने हो. कोई फ़िल्मी या किताबी वजह नहीं थी मेरे जीवन में . मरने और जीने के बीच भी बहुत कुछ ऐसा डिप्रेसिंग होता है कि जो उस दौर से गुज़रता है वही जानता है उसकी घुटन को! नौ लोगों के लोअर मिडिल क्लास परिवार में, बिन माँ की सबसे छोटी बेटी . कोई मुझे सताता या दुरदुराता नहीं था पर किसी को मेरी फिकर भी नहीं थी. फिकर तो बहुत बड़ी बात हुई, उस घर में मैं होकर भी नहीं थी. मै कुछ थी ही नहीं . मेरी बड़ी बहनों का नाम फिर भी ताई जी ले लेती थीं खाना या घर के कामों को लेकर , पर मैं कामों के लिए छोटी थी, प्यार के लिए नहीं . याद नहीं है कि कभी अपनी मर्ज़ी से कुछ ख़रीदा हो या किसी ने कुछ पूछा हो - एक रोटी और लेगी , या मोहल्ले में तुझे किसने मारा …."
निशा के चेहरे पर दबा हुआ गुस्सा था जिससे उसका गोरा चेहरा साँवला हो गया था .
" मुझे बरसात का वो दिन याद है जब मुंबई में इतनी बारिश हुई थी कि पानी ज़्यादा भर जाने के कारण मै दो बजे रात को घर पहुँचीं . बड़े भैया ने दरवाज़ा खोला और चौंक गए कि मै बाहर हूँ . खाने पर या सोते वक़्त किसी ने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया था की मैं घर में नहीं हूँ . और स्कूल तक मुझे अपने जीवन से कोई शिकायत भी नहीं थी , अपने लिए भी मैं एब्सेंन्ट थी ! पर कालेज में और लड़कियों को देखकर अपनी ज़िन्दगी से नफरत होने लगी . मुझे भी कोई नोटिस करे , मैं भी कुछ सोचूँ , प्लान करूँ। नए -नए अरमान फूटने लगे थे और मेरी बेचैनी बढ़ने लगी थी ."
फिर दूर सागर को देखते हुए निशा ने बताया कि वह कैसे एस्कोर्ट गर्ल बनी . उसके ही कालेज में कुछ स्मार्ट लडकियाँ थीं, अच्छे, समृद्ध परिवार की, पर उनके बारे में अफवाह थी कि वह हाई- क्लास पार्टियों में जाकर पैसे बनाती हैं . काफी समय तक नौकरी खोजने के बाद निशा एक दिन उनके पास गयी और उनसे कहा कि वह काम खोज रही है , कुछ होगा तो वह बता दें.
एक दो महीनों तक उन लड़कियों ने उसकी तरफ देखा भी नहीं . फिर एक दिन उसे शाम को अपने साथ एक पार्टी में ले गयीं।
"वह रास्ता सही है या गलत , लोग क्या कहेंगें , इन सब दीन -दुनिया की बातों में मेरे लिए फँसना मुमकिन नहीं था। मैं अपनी दमघोंटू ज़िन्दगी से रिहाई चाहती थी, कोई नहीं समझेगा , पर उस समय मुझे वही सही लगा था। मुझे पछतावा नहीं है, दुःख है , दुःख है । सब कुछ पीछे छोड़ दूं तभी चैन आयेगा, ऐसा सोचती थी। और आज भी …. वहीँ सोचती हूँ, भाग रहीं हूँ। चलो , एक तरह से मेरी ज़िन्दगी आगे बढ़ी तो है."
इतना कुछ वह , ऐसा लगता था कि बिना पलके झपके या सांस लिए बोल गयी है . अजीब सा ज़हर था उसकी आवाज़ में और फिर वह उठ कर सागर-तट की ओर चली गयी .
जब स्नेहा वहाँ पहूँची तो उसने देखा कि उसके कपड़े रेत पर फेंकें हुए है और वह पानी में तैर रही थी . स्नेहा वहीं बैठ गयी। सागर शांत था. सागर , महासागर , वृहद् , शक्तिशाली , रहस्यमय, अद्भुत, अनगिनत शब्दों में हम युगों से इसकी व्याख्या करते आये हैं। पर इन सांसारिक बातों में महासागर नहीं उलझता , इसलिए शक्तिवान होकर और इतना मंथन सहकर भी वह अपने आप को अक्सर शांत रख पाता है। और उस शान्ती में एक अर्थगर्भित शून्यता होती है.
एक छोटी लेहर ने आकर स्नेहा के पैर को छुआ। उसे लगा कि पानी बहुत ठण्डा था पर निशा बेफ़िक्र होकर कुछ समय तक तैरती रही। फिर निकल कर आयी और निससंकोच स्नेहा की बगल में खड़ी हो गयी। स्नेहा ने उसकी ओर देखा, रेस्टोरेंट में जिस तरह से उसका जीवन अनावृत हुआ उसके बाद कैसा संकोच?
उस धूमिल उजाले में उसकी मॉडेल जैसी काया और सफ़ेद लग रही थी। सागर की बूँदों ने ओस की तरह उसके शरीर को ढक रखा था. स्नेहा उस शरीर को देख रही थी जिसमे कई मनोभाव विसर्जित हुए होंगे। पर इस रूप में वह शरीर उसे अपने भरे पूरे नारी शरीर के आगे ऐसा लग रहा था जैसे कि एक पतले-दुबले बच्चे का मासूम शरीर हो- सौम्य उजाले में खड़ा एक बाल देवदूत । अपने चेहरे को नीचे करते हुए, भरी आँखों को छुपाकर स्नेहा ने अपने बदन से शाल हटाकर निशा को दे दिया। निशा ने उससे अपने आप को पोछा और कपड़े पहनकर बगल में बैठ गयी.