सिमटते कछार / धनेन्द्र "प्रवाही"
महानगर के एक विद्यालय में शिक्षक क्षात्रों को इतिहास कथा सूना रहे थे -
"इलाके में एक नदी बहा करती थी।
चौड़ी और गहरी।
बलखाती इठलाती इतराती ......
तटों पर लहलहाती हरियाली।
खेतों में बालियों के भर से झुकी फसलें।
हलकी हवा के झोंकों से झूमतीं।
जीवन सर्वत्र सर्वथा आनंदमय हुआ करता था।
कालांतर में नदी को कभी कभी दूर किनारों से कुछ मद्धिम स्वर सुनाई पड़ने लगे-
"प्यारी बहना! एक से इक्कीस होती हमारी संतान को और भवन चाहिए। क्या तुम अपने विस्तृत कछारों को थोडा समेत लोगी?"
इस अप्रत्याशित प्रस्ताव पर नदी की धारा एक क्षण के लिए ठिठक सी जाती। किसी दुर्निवार अनहोनी की आशंका से भरी उसकी आँखों में एक चुभता सा प्रश्न कौंध जाता-
"जल नहीं चाहिए?"
"जीवन नहीं चाहिए तुम्हारी सन्तति को?"
अस्तु, धीरे धीरे नदी सिकुड़ती चली गयी।
कछार अनमने से सिमटते, सटते चले गए।
धारा कृशकाय होती चली गयी।
निर्मल नीर की जगह उसमे बदबूदार पानी बज्बजाने लगा।
हरियाली मुरझाती गयी।
फसलें साल दर साल रूठती चली गयी।
फिर तो बीजों ने अन्कुरना तक छोड़ दिया।
पोलिथिन और कचरों के कई पहाड़ नदी के किनारे कुकुरमुत्तों की तरह उग आये।
कंक्रीट के कई बहुमंजिले खिसकते उभरते नदी के दुर्बल कन्धों पर निर्ममता पूर्वक चढ़ बैठे।
शहर पसरता गया।
क्षीण से क्षीणतर होती धारा एक नाला भर बाख गयी।
आज उसी नाले के किनारों पर जल के लिए युद्ध छिड़ा है। हाहाकार मचा है। प्यासी प्रजा राजमार्गों पर प्रदर्शन करती है।
वर्षाकाल में कभी दबी कुचली नदी का आक्रोश सैलाब बनकर फुट पड़ता है।
नगर खंड प्रलय में डूब सा जाता है।तट वासी जलाभाव और बाढ़ के बीच नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं।
"जानते हो बच्चों!"-छात्रों की जिज्ञासा को चरम पर देखकर शिक्षक राज खोलते हैं।
"अपने इसी नगर के बीचों बीच कभी वह चौड़ी गहरी सदा-नीरा बहती थी जिसके अमृत तुल्य जल से पूरी आबादी धन-धान्य से संपन्न सुखमय जीवन बिताया करती थी।"
(पुनर्नवा , दैनिक जागरण 30 November 2007 में प्रकाशित)