सिमटते फैलते दायरे / हरीश बी. शर्मा

Gadya Kosh से
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मैंने अगर अपने रूप को सहेजने की कोशिश की होती तो क्या खुद को संवार नहीं सकती थी। स्नेहा को आज पहली बार अहसास हुआ कि उसके खुलेपन को लोग दूसरे नजरिये से भी देख रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कहने की हिम्मत होती कौशल की। कितनी आसानी से कह दिया और मैं उसे हैरानी से देखती रही। सोचते-सोचते स्नेहा अपनी जगह से उठकर बाहर के दरवाजे की ओर बढऩे लगी। बाहर चौक में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। बॉल से माथुर साहब की खिडक़ी का शीशा टूट चुका था। मिसेज माथुर ने पूरे मोहल्ले को सिर पर उठा लिया, लेकिन कोई बच्चा बताने के लिए तैयार नहीं था कि शीशा किसने तोड़ा। गजब की एकता थी। यह सब देखकर स्नेहा मुस्कुराना चाहती थी, लेकिन मुस्कुरा नहीं सकी। वापस अंदर की ओर बढ़ गई, दरवाजा बंद किया और कमरे में आकर दीवान पर लेट गई।

कौशल की बातें एक-एक करके उसके सामने से निकलती रही। अभी-अभी उसके सपने चकनाचूर हुए थे। सपने जो पहली बार देखे। चाहा था बस अब अकेली नहीं रहेगी। कौशल के साथ जिंदगी बताएगी। सब कुछ देगी, जो वह चाहेगा। सारी खुशियां देंगी, लेकिन जैसे ही कौशल ने उससे मांगा वह बिफर गई। कौशल को भी भरोसा था, इसीलिए तो सीधा-सपाट बोल गया। उसे लगा ना नहीं होगी। जाने क्या समझा लिया था उसने मुझे।

यंत्रणा का दौर था स्नेहा के लिए। याद करके एक बार फिर सिहर गई। जानते हो तुम क्या मांग रहे हो कौशल। कौशल पर फिर भी कोई असर नहीं था। उसके एक-एक शब्द पानी करने वाले थे। स्नेहा, बेकार का ढोंग तो करो मत। क्या मैं विनय, सुभाष और महेश के बारे में नहीं जानता। इस फेहरिस्त में एक नाम जुड़े या दस। क्या फर्क पड़ता है।

कौशल! जोर से बोलना चाहा था स्नेहा ने लेकिन आवाज दब कर रह गई। कौशल, आई से गेट आऊट। मैं कहती हूं, चले जाओ यहां से। क्या समझ रखा है तुमने मुझे? क्या जानते हो विनय, सुभाष और महेश के बारे में। कौशल को कही सारी बातें सामने से निकलती रही और स्नेहा बार-बार खुद को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही थी। दीवान पर अचानक स्नेहा उठ खड़ी हुई। बाहर क्रिकेट के चौके-छक्के फिर से लगने शुरू हो चुके थे। खुब तेज आवाजें आ रही थी, लेकिन स्नेहा के अंतद्र्वद्व को शोर कहीं ज्यादा था। उसे लगा जैसे दरवाजा खुल गया है। खिड़कियां भी खुल गई हैं। अंदर सब कुछ साफ देखा जा सकता है। लोग खिड़कियों से झांक रहे हैं। दरवाजे से अंदर आ रहे हैं। स्नेहा डर गई। नहीं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। कहते हुए पीछे हटी तो दीवार से टकराई तंद्रा भंग हुई। देखा कुछ भी नहीं था। दरवाजा बंद था।

न जाने कितनी बार स्नेहा ने दरवाजे बंद किए थे। फिर खोले। कुछ जमा करने का सोचा तक नहीं। अगर कुछ बेहतर है तो बांटने में हर्ज ही क्या है। फिर लेन-देन है, कोई उधारी तो नहीं। लेनदेन विचारों का। विचार मिल जाए तो दूर तक चलने में, दौडऩे में हर्ज ही क्या है। बस यही सोचते-सोचते विनय, सुभाष, महेश के साथ दौड़ लगाई। दौड़ते-दौड़ते तीनों पीछे रह गए। कौशल साथ हो लिया। कब पास आया, कैसे दिलो-दिमाग पर छा गया, पता ही नहीं चला। अगर आज का दिन नहीं होता तो शायद कभी पता नहीं चलता। आज उसे पहली बार लग रहा था कि वह अकेली है। शायद उसके फैसले गलत रहे। नहीं-नहीं, मैं सही थी। मेरे बारे में कोई दूसरा कैसे निर्णय कर सकता था। कौशल ने इतनी बड़ी बात सोच ली। मान लिया कि मैं सहमत हो जाऊंगी।

स्नेहा को कभी लगा ही नहीं कि वह घर-परिवार से दूर है। इस शहर में अकेले रहते हुए उसे कभी डर नहीं लगा, लेकिन आज भयभीत थी। दीवार के सहारे बैठे-बैठे उसके सामने से कई बातें निकलती रही। उसे लगा कौशल को पहचानने में गलती कर ली। वह तो कुछ और ही चाहता था। मानो मैं सामान हूं कोई। अपने दोस्तों को खुश करने के लिए वह, उनसे मेरी दोस्ती कराना चाहता था। दोस्ती विनय, सुभाष और महेश जैसी।

कौशन ने समझाना चाहा। ऐसा होता है स्नेहा, सब चलता है, लेकिन स्नेहा जैसे कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। उसे लग रहा था जैसे उसके अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। कौशल के प्रस्ताव उसे कचोटने लगे। आखिर क्या समझा कौशल ने उसे। एक बाजारू लडक़ी, जो बस मौज-मस्ती के लिए संबंध बनाती है। भावनाओं का कोई अर्थ नहीं।

भावनात्मक लगाव था ही नहीं उसे मुझसे। मैं उसकी होना चाहती थी और वह मुझे बांटना चाहता था। स्नेहा को कौशल के नाम पर घिन्न-सी होने लगी। सिर्फ देह। देह से पहले कुछ नहीं। क्या विनय, सुभाष और महेश भी यही चाहते थे। शायद हां, शायद नहीं। स्नेहा एक अजीब मन:स्थिति से गुजर रही थी। उसे लग रहा था कि क्यों नहीं आज तक उसने यह जानने की कोशिश नहीं की। यह जान लेती तो कौशल की पहचान हो जाती। सपने नहीं टूटते। स्नेहा को अंदर से खालीपन महसूस हो रहा था। लग रहा था जैसे ये खालीपन उसे सिमटने के लिए मजबूर कर रहा है। नहीं वह सिमट नहीं सकती। फैलना उसका सपना है। उसे आगे बढऩा है। घर वालों से दूर रहना उसका शौक नहीं उसकी मजबूरी थी। लक्ष्य को पाने की मजबूरी। इस लक्ष्य के लिए हजारों-हजार कौशल कुर्बान किए जा सकते हैं। क्या हुआ जो थोड़ा ठहराव आ गया। यह भी कुछ देने के लिए ही आया।

अचानक कमरे में तेज आवाज के साथ रोशनी हुई। स्नेहा ने आवाज की ओर देखा तो सामने टप्पे खाते हुए गेंद आती दिखी। खिडक़ी का शीशा टूट चुका था। बाहर के बच्चों का शोर भी थम गया। चौक में सन्नाटा। बच्चे एक बार फिर डांट खाने को तैयार थे। स्नेहा ने बॉल उठाई और दरवाजे की ओर बढ़ी। दरवाजा खोला और बच्चों को चेतावनी देते हुए कहा आइंदा से बॉल इधर आई तो जमा कर लूंगी। बच्चे हां, हां करने लगे। स्नेहा ने बॉल बच्चों के बीच फेंक दी और अंदर आ गई। ऐसा लग रहा था जैसे किसी को हजारों मील पीछे छोडक़र यहां पहुंची हो।

उसे लग रहा था बहुत कुछ पीछे छोडक़र आई है। बावजूद अंदर ही अंदर कुछ साल रहा था। यूं लग रहा था बहुत कुछ बाकी है जो उसके अस्तित्व को अभी कचोट रहा है। दोस्ती के मायने बदलना उसे सुहा नहीं रहा था, लेकिन क्या कौशल गलत था। उसके अब तक के दोस्तों ने दोस्ती के नाम पर क्या चाहा। कितना निभाया। सुख-दुख। हानि-लाभ। उसे लग रहा था दोस्ती के जिस गणित को उसने सीधे-सीधे मानने से इंकार कर दिया था, उसी गणित को तो वह जीती आई थी। यह सवाल उसका अपने आप से था कि क्या वह अब तक जिंदगी को समझ नहीं पाई या कौशल को समझ नहीं पाई। कौशल की गलती यह थी कि वह सब कुछ साफ-साफ बोल गया। यह हिम्मत की बात थी। इतना साफ कहने की हिम्मत के पीछे क्या कारण रहे होगें।

स्नेहा का द्वंद्व त्रिकोणीय होता जा रहा था। उसे लग रहा था वह इन सबके बिच में सिर्फ मरने के लिए, पिसने के लिए खड़ी हुई है। क्या सच में विनय, सुभाष और महेश का भी एक सूत्री लक्ष्य यही रहा, जो कौशल का था। वह लक्ष्य जिसे दोस्ती का नाम दिया गया और उसके नाम पर कुछ और पाने की कल्पना की गई। और मैं सब कुछ कुर्बान करती रही। आज पहली बार स्नेहा को लग रहा था, जैसे उसके अंदर से कोई जवाब मांग रहा है। खाली होने का आरोप लगा रहा है। क्या वास्तव में मुझे यह अधिकार था। शायद नहीं, लेकिन अब भी क्या बिगड़ा है। बहुत कुछ बाकी है, जिसे संवारा जा सकता है।

स्नेहा को लग रहा था, जैसे उसके अंदर से एक-एक करने विनय, सुभाष और महेश निकल रहे थे। उनके चेहरे पर कोई प्रायश्चित नहीं था। हां, हमने यही तो किया था कि अब कभी मुडक़र एक दूसरे से नहीं मिलेंगे। हमारी साथ-साथ की जिंदगी इतनी ही थी, जितनी थी, उतनी पूरी हो गई। अब हम अपने-अपने रास्ते। बस इस भाव पर मिलते रहे, बिछड़ते रहे। स्नेहा को लगा, सब कहने की बात थी। हर बार वह टूटी, हर बार वह बिखरी, लेकिन कह नहीं सकी। एक सामाजिक समझौते में बंधी रही। यही तो उनकी दोस्ती का आधार था, उसे आज लग रहा था कि इस आधार पर रहने की शर्त के चलते, उसके साथ कितनी बार खिलवाड़ हुआ।

अब ऐसा नहीं होगा। स्नेहा ने यह पक्का निश्चय कर लिया था। अब स्नेहा इस तरह के खिलवाड़ नहीं होने देगी। जिंदगी सिर्फ कुछ क्षणों की असलियत नहीं, बल्कि पल-पल की सच्चाई है। ये पल पीछा करते हैं, दूर तक। साथ रहते हैं हर कदम पर। हम भूल नहीं सकते, लेकिन सबक ले सकते हैं। हां, सबक ताकि फिर कभी स्नेहा को अपने दायरों में सिमटना नहीं पड़े। स्नेहा को लग रहा था कि उसके दायरे फैलने लगे हैं। कह रहे हैं स्नेहा आगे बढ़ो, आगे बढ़ो स्नेहा, तुम सफल रहोगी, क्योंकि तुम्हारे साथ बीत जमाने के सबक हैं।