सियासत की बाढ़ / मनोज श्रीवास्तव

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कन्नी अपना पर्स सम्हालते हुए ऐसी अफ़रातफ़री में बाहर निकली जैसेकि उसे आफ़िस में बेहद देर हो चुकी हो और अफ़सर उसे सेक्शन में घुसते ही डाँट पिलाने वाला हो। निकलते-निकलते उसने देवा को अफ़सराना तेवर में झिदायत दी, "देवा, मैंने दाल फ़्राई कर दी है और चावल कुकर में चढ़ा दिया है। एक सीटी बजते ही स्टोव आफ़ कर देना। रात की सब्जी फ़्रिज़ में पड़ी हुई है। निकालकर खा लेना। और हाँ, जब ड्युटी पर जाना तो बचा-खुचा खाना फ़्रीज़ में डाल देना। वर्ना..." "वर्ना क्या..." देवा काफ़ी देर तक सोचता रहा।

कन्नी की बात पर झुँझलाने की आदत से वह वर्षों पहले ही तौबा कर चुका है। लिहाजा, कन्नी की आवाज़ में उतनी कड़वाहट नहीं थी। बल्कि, उसमें नरमी के साथ-साथ थोड़ी-बहुत देवा के लिए चिंता जैसी बात भी झालक रही थी। कन्नी में ऐसा बदलाव उस दिन से आया था जबकि वह उससे अचानक रीगल सिनेमा से बाहर आते हुए टकरा गया था। कन्नी तो एकदम अचकचा-सी गई थी--जैसेकि उसकी कोई चोरी पकड़ी गई हो। तब, उसने अपने साथ वाले आदमी से ऐसे छूटकर जैसेकि उससे उसकी दूर-दूर की कोई पहचान न हो, मुस्कराकर देवा से बोल पड़ी थी, "अरे देवा, तुम्हें तो इस वक़्त नोएडा में होना चाझिए था? तुम्हीं ने तो कहा था कि साल के इस क्लोज़िंग मन्थ में तुम्हें मुझासे टेलीफोन पर बात करने तक की फ़ुर्सत नहीं है। फिर, यहाँ कैसे..."

कन्नी आदतन अपने दोष पर परदा डालने के लिए उसके ऊपर बुरी तरह बरस पड़ती रही है ताकि देवा का दोषारोपण करने का मनोबल टूट जाए। उस वक़्त भी, देवा ने उससे कुछ पूछने का बवाल मोल नहीं लिया जबकि उसने उसे एक आदमी के साथ सिनेमा हाल से बाहर आते हुए अच्छी तरह देख लिया था और उसकी थकी-मांदी आँखों ने यह साफ़ बता दिया था कि वह तीन घंटे की फ़िल्म देखकर अभी-अभी फ़ारिग हुई है। बहरहाल, देवा, वहाँ अपनी कंपनी के काम से अचानक आने की वज़ह बताते हुए तत्काल नोएडा की ओर निकल पड़ा। उसने जाते-जाते अपनी कार में से झाँककर देखा कि उस आदमी ने फिर कन्नी के साथ कदम-दर-कदम चलते हुए उसे अपनी बाइक पर पीछे बैठाया था और गोल मार्केट की ओर रुख कर लिया था। देवा समझा गया कि अब वे दोनों किसी रेस्टोरेंट में गए होंगे और वहाँ से शाम होने तक किसी पार्क वग़ैरह में... अपने संदेह को सत्यापित करने के लिए देवा ने अपने चैम्बर में घुसते ही कन्नी के सेक्शन में टेलीफोन पर पूछकर पता कर लिया था कि उस दिन वह सी0एल0 की छुट्टी पर थी।

उस शाम, देवा कुछ पहले ही आफ़िस से वापस आकर और रसोईं में घुसकर काम में जुट गया था। उसने ड्राइंग रूम में टेबल पर रखी कन्नी की तस्वीर को इतनी घृणा से देखा कि जैसे वह उस पर थूक देगा। पर, उसने उसकी तस्वीर को पलटकर ही अपनी नफ़रत का इज़हार किया।

उसके मन में कन्नी को कल की तरह उसके आने से पहले ही कोई सरप्राइज़ देने की इच्छा नहीं थी। दरअसल, वह आफ़िस से लौटते समय आधा किलो मीट लेता आया था क्योंकि दोपहर को जो कुछ उसने देखा था, उससे होने वाले अंतर्द्वंद्व के चलते उसका मन बड़ा उचाट-सा हो रहा था। जुबान भी फीकी-फीकी सी लग रही थी जैसेकि किसी बीमारी से ठीक होने के तुरंत बाद लगता है। वह बेशक! कन्नी के आने से पहले अपना मूड बना लेना चाहता था। इसलिए, उसने पर्याप्त मात्रा में लहसुन, अदरक और प्याज पीसकर और मीट में मसाला मिलाकर, उसे पहले कुकर में पका लिया। फिर, प्याज का तड़का लगाकर मीट को अच्छी तरह भुन लिया। भुनते वक़्त, उसने उसमें काफ़ी मात्रा में बुकी हुई डेंगी मिर्च डाली। थोड़ी देर तक पकाने के बाद मीट का शोरबा एकदम सूर्ख़ लाल हो गया।

उसने एक बड़ी-सी कटोरी में मीट और शोरबा निकाला और सुबह कन्नी द्वारा छोड़ी गईं बासी रोटियाँ खूब छककर खाईं। उसके बाद जैसे ही उसने रम का एक पैग गले के नीचे उतारा, दरवाजे पर कन्नी का दस्तक हुआ। उसने फटाफट डाइनिंग टेबल साफ़ किया और टेबल पर कन्नी की उल्टी पड़ी तस्वीर को सीधा करते हुए दीवाल घड़ी की ओर देखा कि आठ बजने में कोई पाँच मिनट ही बाकी हैं। उसके बाद, उसने ऐसे अलसाते हुए और आँख मलते हुए कुछ मिनट बाद दरवाजा खोला जैसेकि वह बेड रूम में से आराम फ़रमाने के बाद अभी-अभी निकलकर आ रहा हो...

कन्नी ने घुसते ही नाक सुड़कते हुए ड्राईंग रूम से अटैच्ड रसोई में झाँककर जायजा लिया और होठ को जबरदस्ती कानों तक फैलाते हुए यह जाझिर किया कि 'मैं बेहद खुश हूँ कि तुमने पहले ही रसोई का काम निपटा दिया है।' बेशक, उसे गंध से आहट मिल गई थी कि देवा ने उसके आने से पहले ही मीट तैयार कर रखा है।

जब कन्नी अपना जीन्स पैंट उतारकर उसे हैंगर पर टांग रही थी तो देवा ने कनखियों से उसके हुलिए का जायजा किया। उसके बाद वह खिड़की से झाँकने लगा। बिजली गुल होने के कारण दूर-दूर तक कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। फिर भी, बहुत दूर पर झिलमिलाती चुनिन्दा रोशनियों पर वह अपनी नज़र गड़ाने की असफ़ल कोशिश कर रहा था।

तभी, कन्नी ने पीछे से उसे दोनों बाँहों से जकड़कर अपनी नाक उसकी पीठ में धँसा दी, "देवा, यू आर टू ग्रेट। मुझे भी आज अपना टेस्ट कुछ बिगड़ा-बिगड़ा सा लग रहा है...रीयली, आई हैव बीन अपसेट सिन्स दि आफ़्टरनून। तुमने मीट तैयारकर मेरा मिज़ाज़ ही ठीक कर दिया...थैंक्स ए लॉट..."

उसने बेड रूम में जाकर कुछ पल तक बेड पर आराम फ़रमाया। देवा को उसका अधनंगा बदन देखकर बड़ी जुगुप्सा-सी हो रही थी। वह न चाहकर भी उसके बदन पर बार-बार अपनी नज़रें पता नहीं क्यों गड़ा दे रहा था। उस पल उसका मन कर रहा था कि वह उसे जोर से झिड़क दे, 'कन्नी, तुम अपना यह जिस्म ढंक लो, मुझे तुम्हारी पूरी बॉडी से बैड स्मेल आ रही। मेरे पास दोबारा आने से पहले या तो नहा लेना, या कोई परफ़्युम स्प्रे कर लेना...' पर, वह वहीं खिड़की के सामने खड़े-खड़े शहर की चौंधियाहट में खोने की कोशिश कर रहा था क्योंकि अभी-अभी बिजली आई थी और सड़कों पर शोरगुल बढ़ने लगा था। लेकिन, अभी तक उसमें चेतना का संचार नहीं हुआ था।

तब तक कन्नी अपने अंडरगारमेंट्स बेड पर फेंककर बाथरूम में घुस चुकी थी। देवा खिड़की से हटकर बेड पर बैठ गया। वह कुछ पल तक उसके अंडरगारमेंट्स टटोलता रहा। फिर, एकबैक वहाँ से उठकर किचेन में चला गया। उसने फटाफट दस-बारह चपातियाँ सेंकीं और कन्नी के बाथरूम से वापस आने से पहले वह फिर खिड़की के सामने आकर खड़ा हो गया। उसे तब तक यह एहसास नहीं हुआ कि कन्नी उसके पीठ-पीछे डाइनिंग टेबल पर खाना लगा चुकी है जब तक कि उसने दोबारा उसे उसी तरह आलिंगनबद्ध करते हुए नहीं कहा, "शुक्रिया, चपातियाँ बनाने के लिए। बहरहाल, मैं अपनी कैंटीन से चिकेन कटलेट औ' कुछ फ्राई फ़िश भी ले आई थी...चलो, उसे फ़्रिज़ में डाल देते हैं। कल आफ़िस जाने से पहले खा लेंगे, बतौर ब्रेकफ़ास्ट..."

पहली बार देवा ने फ़ीकी मुस्कान से चेहरे की झुर्रियों को समेटा।

जब तक देवा एक नली वाली हड्डी के भीतर का माल चूसने की कोशिश करता रहा, कन्नी तेजी से कोई छः रोटियाँ चट्ट कर चुकी थी और कटोरी का सारा मीट खत्म कर चुकी थी। इस बीच, देवा उसके चेहरे से निकलने वाले पसीने को देखता जा रहा था जो उसके मोटे-मोटे नथुने और ठुड्डी से बहकर टप्प-टप्प उसकी कटोरी में भी गिरता जा रहा था। उसे देखते हुए देवा को गलियों की कुत्तियां याद आ रही थीं। यों भी, बाहर ग्राउंड फ़्लोर पर कुत्ते बेतहाशा भौंक रहे थे। शायद, उन्हें मीट की गंध मिल चुकी थी या कोई एक अदद कुतिया उनके झुंड में शामिल हो गई थी।

उस दिन, कन्नी का मूड इतना खराब था कि वह आफ़िस से शार्ट लीव लेकर अपनी गाड़ी इंडिया गेट की ओर लेकर चली गई। सड़क किनारे अपनी कार पार्किंग कर घास पर बैठ गई। कुछ मिनट के बाद लेट गई। ऊपर आसमान देखते हुए उसे मालूम नहीं क्यों कुछ डर-सा लग रहा था? दिल्ली में आने के बाद उसने आसमान देखने की कभी जरूरत ही नहीं समझाी थी। शायद, उसे ऐसा कभी मौका ही नहीं मिला होगा। फ़्लैटों में रहने का यही ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है कि जब नींद न आ रही हो तो छत पर टकटकी लगाए हुए ही रातें काटनी पड़ती हैं और आँखों से फिसलती नींद को पकड़ना होता है। बेशक! आसमान में तारे गिनते हुए रातें काटना फ़्लैटवालों को कहाँ मयस्सर होता है?

जब वह अपने डैड के साथ दिल्ली आई थी तो वह सिर्फ़ ग्यारह साल की बच्ची थी। मम्मी की ब्रेस्ट कैंसर से अचानक़ मौत होने के तीन महीनों बाद ही डैड का लखनऊ से ट्रांसफ़र हो गया था। उसके बाद, उसका दाखिला एक पब्लिक स्कूल में हो गया था। उस वक़्त, दिल्ली की लाइफ़ में उतनी तेजी नहीं आई थी। मीडिया क्रांति सिर्फ़ सुगबुगा-भर रही थी।

हाँ, 'एशियाड' के आयोजन के ठीक पहले, दिल्ली को थोड़ा-बहुत सजाने-सँवारने का काम जोर पकड़ रहा था। दरअसल, एशियाड के बाद की दिल्ली में आमूलचूल बदलाव आया था। उसी बदलते परिवेश में कन्नी यानी कनुप्रिया तेजी से पल-बढ़ रही थी। जवान हो रही थी। इसी बीच एक दूसरे दुर्भाग्य के कारण उसके डैड की एक सड़क-दुर्घटना में मौत हो गई। उस वक़्त वह पत्रकारिता का डिग्री कोर्स पूरा कर रही थी। तब, उसे नौकरी की तलब लगी और उसे एक अख़बारनवीस की नौकरी कोई बड़ा जद्दोजहद किए बिना ही मिल गई। लिहाजा, ड्युटी करते समय, पहली बार और सिर्फ़ पहली बार उसका दिल देवा यानी देव कुमार को देखकर धड़का था। इश्क़ के एक छोटे से दौर के बाद ही दोनों ने कोर्ट मैरिज़ कर ली। तब, कनुप्रिया को कुछ ऐसा एहसास हुआ कि जैसे किसी डूबते को तिनके का सहारा मिला हो।

चुनांचे, अफ़रातफ़री में शुरू किए गए दांपत्य जीवन में कुछ ही महीनों के बाद तकरार-झागड़े होने लगे। कन्नी तो सचमुच इतनी अड़ियल और वहमी थी कि वह कभी देवा के सामने झाँकने का नाम तक नहीं लेती थी। बेशक! नासमझियों के चलते दोनों के रिश्ते में शादी की पहली सालगिरह मनाने से पहले ही दरारें पड़ने लगीं और दाम्पत्य की कच्ची दीवार इतनी ज़ल्दी ढह गई कि किसी को भी उनके जीवन में आए इस नाटकीय घटनाक्रम पर आसानी से यक़ीन नहीं होता। कानूनी कार्रवाई के बाद, दोनों अलग-अलग रहने लगे। देवा तो कन्नी के प्रति इतनी घृणा से भर चुका था कि उसे भविष्य में कन्नी का थोपड़ा देखना भी गवाँरा नहीं था। इसलिए, उससे बेहद दूरी बनाए रखने के लिए उसने दूर नोएडा में नौकरी करना ही ज़्यादा उचित समझा।

फिर, कोई सात साल गुज़र गए। शायद, वे एक-दूसरे को भूल-से गए थे। नफ़रत की बाढ़ उनके बीच इस कदर उमड़ रही थी कि किसी ने भी किसी का चेहरा तक देखना मुनासिब नहीं समझा। दोस्तों के बीच बैठकर इस बाबत कोई चर्चा नहीं की।

फिर, अचानक, एक अप्रत्याशित-सा मोड़ उनके जीवन में आया। इतने सालों बाद उनकी मुलाकात एक रेस्तरॉ में ऐसे हुई, जैसेकि वे इतने बरसों से एक-दूसरे से कतराते हुए उस दिन जानबूझाकर मिले हों। या, यूँ कझिए कि क़िस्मत में उनके लिए कुछ ऐसा ही होना बदा था। उस वक़्त, लंच-टेबुल पर दोनों एक-दूसरे को आमने-सामने पाकर अचकचाए नहीं। बातचीत ऐसे शुरू हुई जैसेकि वे प्रायश्चित कर रहे हों। बात-बात में उन्होंने अपनी-अपनी गलतियाँ महसूस कीं। बिल्कुल फ़िल्मी अंदाज़ में...। जब देवा चलने को हुआ तो कन्नी भी उठ खड़ी हुई। देवा ने उससे घर चलने का कोई आग्रह नहीं किया। पर, वह कोई ग़िला-शिकवा किए बग़ैर, उसके पीछे-पीछे बँधी-सी चली आई जैसेकि वह ऐसा कई सालों से करती आ रही हो। उसके बाद दोनों ने कोई भावी योजना नहीं बनाई और वे साथ-साथ रहने लगे। किसी ने भी कभी यह नहीं सोचा या कहा कि वे तलाक़ के बाद मियां-बीवी की तरह साथ-साथ क्यों रह रहे हैं। उन्हें कम से कम ईश्वर को तो साक्षी बना ही लेना चाझिए--बाक़ायदा एक मंदिर में जाकर। आख़िर, एक बार तलाक हो जाने के बाद क्या दोबारा दाम्पत्य जीवन इतनी सहजता से शुरू किया जा सकता है? देखने-सुनने वाले लोग क्या कहेंगे...

कन्नी ने लेटे-लेटे आँखें बंद कर ली। आसमान देखना उसे बिल्कुल नहीं भा रहा था। पर, मन इतना अशांत था कि जैसे उसके दिमाग में कोई बड़ा बाजार-हाट चल रहा हो। तभी उसका ध्यान सिरहाने दो प्रेमियों के बीच हो रही हरकतों ने भंग कर दिया। उनकी बेहद रोमांटिक बातचीत को सुनकर उसे उबकाई-सी आ रही थी। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि सालों से पुरुषों से दूरी बनाए रखने के कारण उसे मर्दानी गंध तक से मितली-सी आने लगी थी। इसके बावज़ूद वह पिछले माह के अंतिम रविवार को देवा के साथ उसके घर आकर खुद ही रहने लगी थी। तब, उसने कोई गिला-शिकवा किए बिना ही उसके साथ सभी तरह के संबंध बना लिए। सात सालों बाद उससे मिलकर ऐसे पेश आने लगी जैसेकि उनके बीच कभी कोई दूरी रही ही न हो।

सिरहाने उत्तेजित प्रेमियों ने उसके मन को और भी उद्वेलित बना दिया था। पता नहीं, उसका कौतुहल क्यों बढ़ता जा रहा था? वह हड़बड़ाकर उठ बैठी और एक झाटके से सिर घुमाकर उनकी गतिविधियों का जायज़ा लेने लगी। लेकिन, उसके तो होश ही उड़ गए। उन प्रेमियों में पुरुष-पात्र कोई और नहीं, बल्कि खुद देवा था। उसने अपनी शुबहा को मिटाने के लिए कई बार अपनी आँखें मल-मलकर उसे देखा और अपने यकीन को पुख्ता किया। वह राग-रोमांस में इतना तल्लीन था कि उसे आसपास की कोई ख़बर ही नहीं थी। कन्नी बिल्कुल उसके पास जाकर खड़ी हो गई। पर, वह तो एक ऐसी दुनिया में मशगूल था कि जहाँ होश में रहना किसे कबूल होता है। कन्नी के जी में आया कि वह उसे उसकी लौंडिया से अलग खीचकर उसके मुँह पर कई तमाचे रसीद कर दे। वह आवेश में आगे बढ़ी भी। पर, वह कुछ सोचकर रुक गई...शायद, यह कि उसका क्या हक़ बनता है। तलाक़नामा तो उनके बीच सात सालों से लागू है। वह किंकर्त्तव्यविमूढ़-सी, कुछ देर तक उन दोनों की प्रेम-पचीसी देखती रही। फिर, उलटे पैर वापस अपनी कार में जा बैठी और कार घर्र से स्टार्ट कर, धूल उड़ाते हुए ओझाल हो गई।

कन्नी कभी पहले इतने गुस्से में नहीं रही। उसने ड्राइंग रूम में घुसते ही टेबल पर सुबह के जूठे-पड़े कप-प्लेटों को जमीन पर गिरा दिया। देवा की लुंगी को खूंटी से खींचकर अंगुलियों और दाँतों से फ़ाड़-चींथ दिया। टी0वी0 के ऊपर बेतरतीब रखे उसके चश्मे, की-रिंग, कलम, डायरी, अंगूठी वग़ैरह को हाथ मारकर जमीन पर बिखेर दिया। उसके जूते पर इतनी तेज लात मारी कि वह पंखे के डैने में फंसकर लटक गया। इस तरह जब वह फ़िज़ूल का गुस्सा करते-करते थक गई तो वह औंधे मुँह बैठ गई। कोई दस मिनट बाद, उसने टी0वी0 स्टार्ट किया और आलमारी से कोई एलबम निकालकर फोटों देखने लगी। जैसेकि वह किन्हीं दस्तावेज़ों का अध्ययन कर रही हो।

कोई एक घंटे के बाद, जब देवा ने दरवाजा खटखटाया तो उसने कोई देर किए बिना सांकल नीचे गिराया। देवा अंदर सीधे बेड रूम तक चला गया--जमीन पर पड़े हुए सामानों को कुचलते हुए। हाथ में जो भारी-भरकम पालीथीन था, उसे उसने अंदर जाते समय डाइनिंग टेबल पर रख दिया। कन्नी उसके पीछे-पीछे चली आई। उसका मन कर रहा था कि वह उसकी पीठ पर एक बड़े हथौड़े से वार करके उसका काम तमाम कर दे। तभी अचानक देवा ने पीछे मुड़कर उसे अपने आग़ोश में बुरी तरह जकड़ लिया। कन्नी को उसके बदन से एक अज़ीब-सी औरताना गंध आ रही थी। उसने अपनी कुहनियाँ उसके पेट में धँसाते हुए ख़ुद को आज़ाद किया और बेड रूम की ओर भागते हुए बड़बड़ाने लगी, "आई डोन्न लाइक यू। यू आर ए ब्लडी, सेक्सी डाग--व्हिच कान्ट क्रिएट फ़ायडेल्टी..."

उस वक़्त, देवा अज़ीब-से संवेग में था। शायद, उसे कन्नी का एक भी लफ़्ज़ साफ़ सुनाई नहीं दे रहा था। वह दोबारा कन्नी की ओर ऐसे झापटा जैसेकि हफ़्तों से भूखे शेर की माद के पास कोई जानवर भटककर आ गया हो। इस बार, वह उसे जबरन बेड पर लिटाने में सफल हो गया। कन्नी ने खुद को आज़ाद करने के लिए बड़ा संघर्ष किया। चिल्लाई, चींखी, गुर्राई। यहाँ तक कि हाथ-पैर भी बेतहाशा चलाए, यह परवाह किए बिना कि इससे देवा को कोई बड़ी चोट भी आ सकती है। पर, आखिरकार वह निढाल हो गई।

बेड से उठने के बाद देवा बाथरूम में घुस गया और कन्नी फिर टी0वी0 के सामने बैठ गई। वह एक विदेशी चैनल पर चल रही ब्लू फिल्म को मुँह बिचका-बिचकाकर देखने लगी। देवा बाथरूम से निकलकर डाइनिंग चेयर पर बैठ गया। कन्नी इस बात पर बार-बार गुस्सा खा रही थी कि आखिर, देवा ने उसे पालीथीन में लाई हुई चीज अभी तक दिखाई क्यों नहीं। वह एकबैक उसके सामने आई और टेबल पर रखी हुई पालीथीन का सामान टटोलने लगी। तब तक देवा तौलिए से हाथ पोंछते हुए उसके बगल वाली कुर्सी पर बैठ चुका था। उसने पालीथीन से एक नया लेडीज़ सूट निकालते हुए उसकी ओर बढ़ाया--"हैप्पी बर्थडे टू यू..."

कन्नी एक बच्चे की तरह चहक उठी--"हाऊ सरप्राइज़िंग! टूडे'ज़ माई बर्थडे! आई हैड ऐक्चुअली फ़ारगाटेन। थैंक्स फ़ार रिमाइंडिंग मी ऐन्ड आलसो फ़ार दिस गिफ़्ट।"

फिर, अचानक वह सुबकने लगी--"ड्युरिंग दि लास्ट सिक्स यियर्स, देयर वाज़ नोबोडी टू विश मी आन माई बर्थडे।"

देवा उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए भावुक हो उठा और एकबैक उठ खड़ा हुआ। "कन्नी डार्लिंग, चलो किसी रेस्तरॅा में तुम्हारा बर्थडे सेलीब्रेट करते हैं।"

कन्नी ने देवा की गुजारिश पर कोई शिकवा-गिला नहीं किया। वह झाटपट देवा द्वारा लाए गए नए सूट को पहन, उसके साथ चलती बनी।

रेस्तरॉ से लगभग बारह बजे तक लौटने के बाद, दोनों नशे में बातें करते रहे। दोनों ने गत सात सालों के दौरान अपने-अपने इतर प्रेम-संबंधों को स्वीकार किया। देवा ने फिलहाल पद्मा के साथ अपने चक्कर का ब्योरा दिल खोलकर दिया। कन्नी की समझा में आ गया कि जिस स्टूडेंट को देवा आफ़िस से लौटते हुए कहीं रुककर टयुशन पढ़ाता है, वही पद्मा है...हाँ, उस दिन, इंडिया गेट पर वह उसी पद्मा के साथ इन्वाल्व रहा होगा...

कान्फ़ेशन्स के उन लमहों में, कन्नी बेहद जज़्बाती हो चुकी थी। उसने करन के साथ अपने संबंधों की अटूटता और गूढ़ता का वर्णन इतनी मासूमियत से किया कि देवा के मन में उसके प्रति कोई रोष या विद्वेष पैदा ही नहीं हुआ। बजाय इसके, उसने उसे तसल्ली देते हुए कहा, "मैं करन को इस बात के लिए धन्यवाद दूँगा कि उसने तुम्हारे कष्ट और दुर्भाग्य के दौरान तुम्हें सम्हाले रखा। उसने तुम्हें टूटने से बचाया। वर्ना, क्या हो जाता? बड़ा गड़बड़ हो जाता..."

काफ़ी देर तक बातें करते हुए उनका नशा उतर चुका था। पर, जो कान्फेशन्स उन्होंने किए थे, वे पूरे होशो-हवास में किए थे।

उस दिन, जब वे अपने दाम्पत्य-संबंधों का आग़ाज़ दोबारा करने के लिए मंदिर में भगवान को साक्षी बना रहे थे तो वहाँ साक्ष्य के रूप में देवा की ओर से उसकी स्टूडेंट--पद्मा और कन्नी की ओर से उसका दोस्त--करन मौज़ूद थे। देवा और कन्नी ने दोनों की ढेरों बधाइयाँ कुबूल कीं। किसी में भी कोई मलाल नज़र नहीं आया। कोई शिकायत नहीं की।

उसके बाद से कन्नी और देवा साथ-साथ रह रहे हैं। लेकिन, वे एक-दूसरे की गतिविधियों पर हमेशा नज़र रखने सेे बाज भी नहीं आते। कन्नी ने कई बार देवा को पार्कों में पद्मा के साथ आलिंगनबद्ध पाया। देवा ने भी कन्नी को करन के साथ पिक्चरहालों से बाहर निकलकर कनाट प्लेस में बाँह में बाँह डाले घुमते हुए देखा। पर, न तो कन्नी ने घर लौटकर देवा की कभी लुंगी फाड़ी और उसके सामान वगैरह बिखेरे, न ही देवा ने कभी अपनी जुबान फीकी और मन उचाट पाने के बाद मूड ठीक करने के लिए मीट या चिकेन पकाया। ऐसे मूड में वे एक-दूसरे के प्रति आक्रोश प्रकट करने के बजाय, आपस में बड़े प्यार से मिलते हैं। आखिर, वे कोई एतराज क्यों नहीं करते हैं? लिहाजा, उनकी ज़िंदगी में ताक-झाँक करके और उनके संबंधों का खुलासा करके मुझे कभी-कभी बड़ा पछतावा होता है। जब मानसून समय से न आए तो फसलों को सूखा रोग लग जाता है और जब असमय आए तो खेत-खलिहानों से लेकर बस्तियों तक जालंधर की बीमारी लग जाती है। पूरे जेठ माह तक आसमान से बारिश का एक कतरा भी नीचे नहीं गिरा। परिणामस्वरूप, आषाढ़ के शुरू होते ही लोग त्राहि-ताहि करने लगे और सरजू नदी के किनारे इकट्ठे होकर इन्द्र देव को रिझााने के लिए सारे उल्टे-सीधे कर्मकांड अपनाने लगे। जब यला-अनुष्ठान, अखंड रामायण और भजन-कीर्तन से भी इन्द्रदेव का दिल नहीं पसीजा तो पंडित बृजबिहारी ने घोषणा की, "अब तो बरखारानी को रिझााने का बस एक ही उपाय बचा है। पूनम की अर्ध-रात्रि को गाँव के मुखिया की नई-नवेली बहू सरजू में उघारी स्नान करे।"

बृजबिहारी का यह आखिरी नुस्खा कुछ ही घंटों में बच्चे की जुबान पर था। शोख-मनचले लौंडे इस बात को चुटकियां ले-लेकर कह-सुन रहे थे। रत्नदेव आग-बबूला हो उठे--"अरे, हम ग्राम प्रधान हैं। तो क्या हुआ? अपनी आबरू को नंगा करने का कुव्वत हममें नहीं है। भाड़ में जाए ऐसी प्रधानी। अरे, हम बरखा कराने का कोई ठेका तो नहीं ले रक्खे हैं। यह सब ईश्वर की माया है। हमारे बस में क्या है? कुछ भी नहीं।"

रत्नदेव का ऐसा कहना स्वाभाविक भी था। अभी उन्हें अपने बेटे प्रकाश का ब्याह रचाए जुम्मे-जुम्मे कितने दिए हुए हैं? बहू के हाथों की मेंहदी के रंग भी फीके नहीं पड़े हैं। कम से कम पहली बार उसके माँ बनने तक तो उसे परदे में ही रखना होगा। फिर, खुले आसमान के नीचे उसे नहाने के लिए विवश करना और वह भी नदी में एकदम नंगी। रत्नदेव के मन में एकबैक उजाला हो गया। वह मन ही मन धार्मिक ढकोसलों को धिक्‌ारने लगे। सामाजिक पाखंड की बखिया उधेड़ने लगे।

जब गाँव वाले उनकी प्रतिक्रिया से वाकिफ हुए तो उनमें बढ़ती बेचैनी आंदोलन का रूप लेने लगी। बटुक भैरव के अहाते में इकट्ठी, उत्तेजित भीड़ का बस एक ही फैसला था- अगर ग्राम प्रधान, बृजबिहारी की बात नहीं मानेंगे तो उन्हें गाँव से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। राघव तान में आ गया। उसने सिर पर अंगोछा लपेट कर गरदन फुलाते हुए ऐलान किया -'रत्नदेव को अभी हमारे बीच आने को कहो।' आनन-फानन में चार तुनकमिजाज लौंडे ग्राम प्रधान के घर जा धमके। रत्नदेव करते क्या? गाँव का मामला था और गाँव से निकाले जाने की धमकी जो मिली थी। आखिर, अपने पुरखों की जमीन-जायदाद छोड़कर वह जाएंगे कहाँ? भीख तो मांगेंगे नहीं। उँचे खानदान के जो ठहरे। वह भय से सिहर उठे। सो, ग्राम प्रधानी का फर्ज अदा करने के लिए हाजिर होना ही पड़ा।

अहाते में प्रवेश करते ही उन्होंने बटुक भैरव के मंदिर में अपना मत्था टेकाया - 'हे भैरव बाबा, कुछ भी हो, आप हमारी बहू-बेटी की लाज बचाना।'

जब उन्होंने भीड़ से नजर मिलाई तो उन्हें वहाँ व्याप्त रोष का पता चल गया। वह अपराधी की भांति सिर झाुकाए बीचोबीच खड़े हो गए। सवाल अहम था। नष्ट हो रही फसलों तथा पोखरों व कुओं का पानी सूखने के कारण आदमी और मवेशियों के प्यासे मरने का अति मानवीय प्रश्न था।

पंडित बृजबिहारी रोषपूर्वक अपना जनेऊ खींचते हुए आगे आए- "आपको तो पता ही है कि इन्द्रदेव हमसे कितने कुपित हैं। हम लोग उन्हें मनाने के सारे कर्मकांड करके हार गए हैं। लेकिन, अब हाथ्‌ं पर हाथ धरे रहने से भी काम नहीं चलेगा। इन्द्रदेव चाहते हैं कि राजा अपने कुनबे की जवान बेटी या पतोहू को पूणिमा की अर्धरात्रि को सरजू में डुबकी लगवाए। चूंकि मुखिया ही गाँव का राजा-सरीखा कर्ता-धर्ता होता है, इसलिए आप ही यह जहमत उठाएं..."

रत्नदेव ने भैरव देव का ध्यान करते हुए कि -'भगवान, अब हम आपकी शरण हैं', सिर घुमा कर भीड़ पर विहंगम दृष्टि डाली। फिर, खखार घोटते हुए गला साफ किया। "तो आप लोग चाहते हैं कि हम अपनी इज्जत को सरेआम नीलाम करें। अरे, जब सारा यला-हवन करा के भी कोई नजीजा नहीं निकला तो आप कैसे दावा कर सकते हैं कि उधारी औरत को खुलेआम चाँदनी रात में नहलाने से बरखा हो ही जाएगी।"

लेकिन, इस समाज-कल्याण के मुद्दे पर सभी की मिली भगत थी। रत्नदेव एकदम अकेले पड़ गए, जैसे हिंसक जानवरों के जंगल में निरीह मेमना। वह भाग कर जाएंगे कहाँ? उन्हें यह धार्मिक नीति तो निभानी ही पड़ेगी। आखिर, गाँव वालों ने ही उन्हें प्रधान की कुर्सी पर बैठाया है। प्रधान की हैसियत से उन्होंने जो भी उल्टा-सीधा किया है, क्या गाँव वालों ने उसे हमेशा मौन सहमति नहीं दी है?

बृजबिहारी ने कहा, "प्रधान जी हम कैसे बता सकते हैं कि किस कर्मकांड से देवता कब रीझा जाएंगे? कौन-सा कर्मकांड पहले करें और कौन-सा बाद में? अब हम सारे नुस्खे तो आजमा चुके हैं। आखिरी नुस्खा यही बचा है। यानी, यह नुस्खा पहले आजमाया गया होता तो आज सारा गाँव आकंठ जलमग्न होता।"

उनके आत्मविश्वास-भरे स्वर से रत्नदेव पसीने-पसीने हो गए। उन्होंने पसीने के उफान को अंगोछे से पोछा। चूंकि बृजबिहारी की दलील में दम था, इसलिए उन्होंने पैंतरा बदलना ही उचित समझाा- "पर, क्या यह जरूरी है कि हमारी ही बहू या बेटी को बलि का बकरा बनना पड़ेगा? अरे, गाँव में कितनों के घर नई-नवेली बहुए हैं..."

"हैं तो क्या हुआ? अरे, आप ठहरे हमारे गाँव के पहले हाकिम। आपको हमारे भले की बात पहले सोचनी चाहिए। क्या आपको नहीं मालूम है कि राजाओं के जमाने में बरखा के लिए राजा-रानी खेत में हल तक चलाते थे? हमें मालूम है कि जो कर्मकांड पंडिज्जी सुझाा रहे हैं, वह पहले भी कई बार आजमाया जा चुका है और प्रजा का मनोरथ भी पूरा हुआ है," राघव जो पहले से ही प्रत्यंचा ताने हुए तीर छोड़ने के लिए बेताब हो रहा था, ने एक ही बार में रत्न सिंह को अवाक कर दिया। वह ऐसी दुविधा में पहले कभी नहीं पउे थे। उन्होंने यह सोच कर जुबान पर ताला लगा लिया कि अगर अब उन्होंने ज्यादा तर्क-कुतर्क किया तो उन्हें गाँव से बहिष्कृत किए जाने की धमकी भी मिलेगी, जैसा कि वह कानाफुसियों से सुनते रहे हैं। गाँव में उनके विरोधियों में गुटबाजी का माहौल तो पहले से ही बना हुआ है। भूतपूर्व प्रधान, ठाकुर जगदंबा हर पल उनका पैर खींचने के फिराक में पड़े रहते हैं।

रसूल मियां ने रत्नदेव को मनाने की गरज से उनके कंधे पर हाथ रखा। "प्रधान जी, आपके लिए तो यह बड़े फख्र की बात है कि अब आपके हाथों ही गाँव वालों का भला होने वाला है। यकीन कीजिए, गरीबों की दुआ से आपकी बरकत में दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ोत्तरी होगी। हम तो कहते हैं कि इस रसम को अदा करके, आपकी इज्जत में चार-चाँद लग जाएंगे। कौन कहता है कि आपकी बहू की बदनामी होगी? अरे, आपकी बहू तो हमारी भी बिटिया-समान है।"

रसूल मियां की हौसला आफजाई से रत्नदेव का अड़ियलपन डोल गया। वह भी सोचने लगे कि ऐसे जनहित के सवाल पर पहले उन्हें ही अपना सब कुछ दांव पर लगाना चाहिए। लिहाजा, वह गाँव वालों के खयालात के खिलाफ भी तो नहीं जा सकते हैं। आज उनका परिवार जो भी ऐशो-आराम भोग रहा है। वह सब इस प्रधानी की बदौलत ही तो संभव हो सकता है। पहले की अपेक्षा उनका रूतबा बढ़ा ही है। इसी प्रधानी का चुनाव जीतने के लिए उन्हें क्या-क्या नहीं करना पड़ा है? कैसे-कैसे पापड़ नहीं बेलने पड़े? खेत गिरवी रखा, अपनी जोरू के गहने बेचे। इतना ही नहीं, ऐन मतदान के दिन, अपने लाडले प्रकाश को बी.ए. की परीक्षा में शामिल होने के बजाय गाँव में ही रोक लिया, ताकि वह चुनावी माहौल का सही-सही जायजा लेकर गाँव वालों से उनके पख में वोट डलवा सके। बेचारे की साल भर की पढ़ाई का सत्यानाश हो गया। अन्यथा, वह इस साल ग्रेजुएट हो गया होता। गाँव वाले उनके इस चुनावी जुबून को देख कर न जाने क्या-क्या ताने कसते थे कि सिन्हा जी एकदम बौरा गए हैं... कि रत्नदेव जैसा सुच्चा आदमी पालिटिक्स कैसे कर पाएगा... कि जब रत्नदेव की जमानत जब्त होगी तब वह दर-दर के भिखारी बन जाएंगे, वगैरा, वगैरा। लेकिन, रत्नदेव ने अपना दमखम बरकरार रखा। अपनी किस्मत पर भी कितना भरोसा था उन्हें! इसी प्रडित बृजबिहारी ने उनकी कुंडली और हस्तरेखा देख कर भविष्यवाणी की थी-'जजमान, आप इलेक्शन शतिया जीतेंगे। शुक्र, चन्द्र और बृहस्पति बड़े अनुकूल चल रहे हैं। राजयोग बन चुका है। अगले सप्ताह से साढ़े साती चढ़ने से पहले ही आपका भाग्योदय हो जाएगा और उसके बाद भी शनि आपका बाल बाँका नहीं कर पाएंगे।

रत्नदेव ने दत्तचित्त हो कर चुनाव लड़ा और वह विजयी हुए, और वह भी दिग्गज महारथी ठाकुर जगदंबा प्रसाद के विरूद्ध जिनका प्रधानी पर एकछत्र अधिकार रहा है।- पूरे पन्द्रह सालों से। इसलिए, इतनी मुश्किल से बाजी जीतने के बाद वह प्रधानी की कुर्सी इतनी आसानी से कैसे छोड़ देंगे? अभी तो जितना चुनाव में खर्च किया था, उसका सूद भी नहीं उगाह पाए हैं।

जब रत्नदेव उदास-मन वापस लौट रहे थे तो उन्होंने बटुक भैरव का फिर ध्यान किया-'प्रभु, आपकी माया अपरंपार है। हम तो आपके हाथ की कठपुतली मात्र हैं। आपकी हर इच्छा में हमारा भला छिपा होता है। हे भैरव बाबा, इस साल कहर बरपाने वाली ऐसी बाढ़ लाओ कि हम सरकारी राहत, रसद और माली मदद से अपनी किस्मत चमका लें।"

करिश्मा हो गया। देवी चमत्कार का ऐसा नायाब मिसाल न पहले कभी देखा, न सुना। इधर रतनदेव की गोरी-गुनबारी बहू ने चाँदनी रात में सरजू में डुबकी लगाई, उधर पूरब दिशा से कपासी मेघों का घनघोर गुबार उमड़ने लगा।

पंडित बृजबिहारी सरजू किनाने जमा भीड़ के बीच सीना फुला कर इतराने लगे- "देखा लिया न, हमारा चमत्कार? अब देखना, यह गाँव ही क्या, सारी दुनिया बरखा से लबालब हो जाएगी।"

चाँदनी उजास में रसूल मियां ने भीड़ को चीरते हुए बृजबिहारी के पास आकर उनकी पीठ थपथपाई। "मान गए, उस्ताद। आप अपने फन में कितने माहिर हैं? लाजबाब हैं? आपके क्या कहने?"

इधर बृजबिहारी अपने चापलूसों से घिरे हुए तारीफों के पुल पर खड़े दर्प में झूम रहे थे,

उधर पानी की मोटी-मोटी बूँदे आसमान से टपकने लगीं। रत्नदेव ईर्ष्या से पागल हुए जा रहे थे, सोच रहे थे कि अलोनी दाल में नून हमने डाला, लेकिन लोग धूर्त पंडित की मक्खनबाजी कर रहे हैं। हमारी नहीं, उसकी चम्पी-मालिश कर रहे हैं।

बूदाबाँदी बारिश का रूप ले रही थी। बृजबिहारी ने समय रहते चट भविष्यवाणी की- "यह कोई मामूली बरखा नहीं होने वाली है। बड़ी मूसलाधार होने वाली है। आखिर, हमारे पूजा-पाठ का जोर लगा है।"

चूंकि बृजबिहारी में लोगों की आस्था अडिग हो चुकी थी, इसलिए उनकी चेतावनी को सुनते ही लोग भागने लगे। जैसे बारिश नहीं, साक्षात भूत उनका पीछा कर रहा हो।

बारिश से तर-बतर रत्नदेव ने घर में घुसते ही घूंघट में अपनी बहू को गर्व से देखा- "तूं तो बड़ी भागवान है। तूने तो मेरा कद बढ़ा कर उनचास हाथ का कर दिया।" बेशक, उनकी बहू उनके खानदान में ही क्या, दूर-दराज के इलाकों तक बड़े श्रेय और प्रतिष्ठा की हकदार बन गई थी।

      • *** ***

रत्नदेव सोने की अथक कोशिश करने के बाद भी नहीं साके सके। बरसात की रिमळिाम उन्हें उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की शहननाई से भी ज्यादा मनभावन लग रही थी। वह देर तक सोचते रहे कि क्या बटुक भैरव ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली है। अगर सरजू में बाढ़ कचक कर आ जाती और उनका गाँव नदी का मंझाधार बन जाता तो वह मान लेते कि भैरव बाबा ने उनकी बहू को धनलक्ष्मी बना कर उनके घर भेजा है। सूखा क्या है, वह तो हर साल अपनी हाजिरी लगा जाता है। लेकिन, उससे उन्हें क्या मिलता है? कुछ भी नहीं। न तो सरकार भूखे-प्यासे लोगों के लिए कोई माल-पानी भेजती है, न ही धन्ना-सेठ सूखा-पीड़ितों के लिए कोई दान-चंदा देते हैं। बहुत हल्लागुल्ला मचाने पर, लावारिस - पड़े चंपाकलों की मरम्मत करा दी जाती है एकाध कुंए खुदवा दिए जाते हैं या पंपिंग मशीन चला कर दो चार दिन पानी चला दिया जाता है। इन सबसे ग्राम प्रधान को क्या फायदा पहुँचता है? इतनी एड़ी चोटी की कोशिश से यह ग्राम प्रधानी हाथ लगी है। पर, तीन साल से छूछे हाथ हैं। कहीं कोई बड़ा हाथ नहीं मार सके। लिहाजा, अगर सूखा लंबा खिच जाता है तो कुछ नेता और अफसर क्षेत्रतीय दोैरा कर जाते हैं। जनसंख्या विभाग के कर्मचारी भूले-भटके यह रिपोर्ट लेने चले आते हैं कि सूखा से कितने लोग भूख-प्यास के शिकार हुए हैं और कितने सूरज के कोप का भाजन बने हैं। फिर, उसके बाद जाड़ा के आने तक सरकार कान में रूई डाल कर खर्राटा भरती है। लेकिन, इस बाढ़ का क्या कहना? वह अपने पीछे अनाज का गोदाम और रूपयों के बंडल बाँध कर आती है। जितनी तबाहकुन और दीर्घजीवी बाढ़, उतना ही ज्यादा ग्राम प्रधान की चाँदी। जैसे यह बाढ़ नहीं, साक्षात कुबेर का खजाना पाूट पड़ा हो। कोई सात साल पहले कुबेर ने बाढ़ के रूप में अपनी दयादृष्टि की थी। तब, गाँव के प्रधान जगदंबा प्रसाद थे। अरे, क्या कमाई की थी उन्होंने? आँखें फटी की फटी रह गई थी। उसी कमाई की बदौलत, उन्होंने शहर में एक सिनेमा हाल खुलवाया, दो-दो ट्रक चलवाए, अपने नाकारा पड़े कोल्ड स्टोरेज का जीर्णोद्धार करवाया। इतना ही नहीं, अपने नायालक बेटे को डोनेशन के जरिए मेडिकल कालेज में दाखिला दिलाया और अपनी सयानी बेटी का इतने छाव-बधानव से ब्याह कराया कि ऐसे आलीशान विवाह की मिसाल दूर-दूर तक दी जाती है। विवाह हो तो ठाकुर की बेटी की तरह, नहीं तो न हो।

काश! ईश्वर उनकी मनोकामना भी पूरी कर देता! वह भी कम से कम एक भव्य कोठी तो बनवा ही लेते। अपने निठल्ले आलसी बेटे के लिए पेट्रोल पंप खुलवा देते, ईंट के भट्ठे चलवा देते। यानी कुछ ऐसा पक्का जुगाड़ कर लेते कि जब वह प्रधान की कुर्सी पर न भी बैठे हों तो मजे से चिकनी-चुपड़ी रोटी तोड़ सकें।

सुबह जब रत्नदेव की नींद खुली तो झामझामाती बरसात ने उन्हें एक सुखद एहसास से आप्लावित कर दिया। घर में जितने भी सदस्य थे, वे सभी यही आस लगाए बैठे थे कि यह बारिश कम से कम सप्ताह भर तो अविराम होती ही रहे। ताकि सरजू नदी भभक कर उन्हें डुबो दे। उनका गाँव देखते -देखते जल समाधि ले ले। लोगबाग हाहाकार करने लगे। मवेशी बाढ़ में बह कर मर-खप जाएं और खड़ी फसल का दम घुट जाए। जब वर्षा में कुछ मंदी जाती तो सभी के चेहरे पर चिंता पसरने लगती। हे भगवान, अब क्या होगा? कहीं इस साल भी बस एक बार बारिश तो हमें कौड़ी-कौड़ी का मोहताज बना कर ही छोड़ेगा। प्रधानी की कुर्सी सिर्फ दो साल ही सलामत रहेगी। फिर, नया चुनाव होगा। पता नहीं कौन प्रधान बनेगा।

रत्नदेव दरवाजे पर कुर्सी लगाकर बरसात का जायजा ले रहे थे। न तो अखबार पढ़ने में जी लग रहा था, न ही गरम-गरम पकौड़े खाने में। जसोदा बार-बार रसोई से आकर बरामदे में झााँक जाती। वह अत्यंत चिंतित थी कि आखिर! उसके पति उसके बनाए लजीज पकौड़े क्यों नहीं खा रहे है। और यह पूछ जाती क्या पकौड़े के साथ्‌ं पुदीने की चटनी चलेगी या टमाटर की मीठी चटनी लाएं। पर, रत्नदेव की आँखे सब बातों से बेखरब, बारिश की धार पर टिकी हुई थीं। मक्खियों का हुजूम उमड़ रहा था, वे न केवल पकौड़ों पर टूट रही थीं बल्कि रत्नदेव के मुंह पर भी अपने डंक चुभो रही थीं। लेकिन, वह थे कि सिर्फ हाथ हिला-हिला कर मक्खियां उड़ा रहे थे। मन तो कहीं और लगा हुआ था।

चुनांजे, इन्द्रदेव जितने गाँव वालों से नहीं प्रसन्न थे, उससे ज्यादा वह रत्नदेव पर रीझा रहे थे। गोया कि यह कह रहे हों कि 'रत्नदेव, देख! तूने अपनी बहू की चमचमाती देह का दर्शन मुळो कराया और मैने तेरी झाोली भर दी। इस साल, मैं तुळो मालामाल कर दूंगा।'

लगातार झामाझाम बरसात ने उनका अहोभाग्य लिख दिया था। जब रसूल मियां ने आकर उन्हें इत्तला किया कि- 'प्रधान जी ऐसी ताबड़तोड़ बारिश कई सालों बाद देखी है' - तब, रत्नेदव के रोंगटे खड़े हो गए। मन में लड्डू फूटने लगे। लेकिन, चेहने पर कृत्रिम चिंता की रेखा के साथ, वह मेहराई आवाज में बोल उठे- 'अरे मियां, यह तो अच्छी खबर नहीं है । हमारा गाँव तो सबसे पहले बाढ़ का ग्रास बनेगा क्योंकि यह सरजू की घाटी के बराबर फैला हुआ है।" उन्होंने अपने बेटे प्रकाश को आदेश दिया- "ट्रांजिस्टर लाओ।" जब टार्च की पुरानी बेटरियां डालकर ट्रांजिस्टर ऑन किया तो जिले की स्थानीय खबरें ही चल रही थी। खबर भी क्या थी कि बारिश की रनिंग कामेंट्री चल रही थी। उन्होंने कान में उंगली डाल कर जोर से हिलाया ताकि चिपचिपाहट कम हो जाए और वह समाचार का एक-एक हिज्जा सुन सकें। कभी क्रिकेट टेस्ट मैच की कामेंट्री भी इतने चाव से नहीं सुनी होगी। नदी में अचानक बाढ़ की आशंका से प्रशासन के हाथ -पाँव फूल रहे थे। गाँव के गाँव डूबते जा रहे थे। मौसम विभाग यह भविष्यवाणी कर रहा था कि अगर यह बारिश लंबी खिची तो बाढ़ की तबाही पिछले सारे रिकार्ड ध्वस्त कर सकती है। रत्नदेव ने बटुक भैरव का ध्यान कर, उन्हें तहे दिल से शुक्रिया अदा की। इसी दरमियान, एक किशोर कीचड़ और उफनता पानी फलांगता उनसे रूबरू हुआ- "मालिक, मालिक, बड़ा गजब हो गया है। अखडू कुमार का घर ढह गया है और उसके पलिवार के सभी जने उसमें दब गए हैं। मुंशी ताल का पानी उसके ही घर में हड़हड़ा कर भर रहा है।"

रत्नदेव के कान खड़े हो गए। अभी बाढ़ आई नहीं और भाग्यशाली विप्लव आरंभ हो गया। पास खड़ी जसोदा देवी ने अपने पति से आँखों ही आँखों में इशारा किया- 'बोहनी-बट्टे का मौका है। अब तनिक भी देर मत कीजिए।' रत्नदेव उसका इशारा समझा गए और अखडू के घर गिरने के समाचार से आहत रसूल मियां को झाकझारा - "मिया, इचको भर कोताही मत बरतों, नहीं तो अखड़ू सपरिवार बरखा की बलि चढ़ जाएंगे।'

वे नंगे पांव निकल पड़े। बरसात में जूता-चप्पल पहनने की कबाहट कौन मोल ले? रास्ते भर "मदद करो, मदद करो, अखड़ू का घर ढह गया है" चिल्लाते हुए जब वे अखडू़ के क्षत-विक्षत मकान के सामने आकर खड़े हुए तो उनके साथ कोई दर्जन भर हट्टे-कट्टे नौजवान भी शामिल हो गए थे। रत्नदेव ने दहाड़ कर कहा- "तुम जने, खड़े-खड़े मुंह क्या ताक रहे हो? काम पर लपट जाओ। पहले, झाटपट मलवा हटाओ, फिर अखड़ू के परिवारजनों को बाहर निकालो। इसका ख्याल रखना किसी की जान पर कोई खतरा न आए..." वह तहे-दिल से प्रार्थना करते जा रहे थे कि हे भगवान! हमारी प्रधानी में किसी की अकाल मौत न हो।"

लगभग आधे घंटे की जी-तोड़ मशक्कत के बाद अखड़ू समेत उसके सभी परिवारजनों को बाहर निकाला गया। वे खून से लथपथ थे और उनका कोई न कोई अंग भंग हो चुका था। रत्नदेव ने निढटाल युवकों को फिर पना फरमान सुनाया- "अरे, इतने में ही तुम जनों का कचूमर निकल गया। अब और देर करोगे तो इनमें से कोई न कोई मर जाएगा। इन्हें अपने-अपने कंघे पर उठाओ और अस्पताल पहुंचाओ। इस खराब मौसम में हम तुम्हारे लिए मोटर-गाड़ी तो मंगाएंगे नहीं।"

XXX

ग्राम प्रधान- रत्नदेव रातों-रात 'दीनबंधु' के नाम से लोकप्रिय हो गए। लोग उन्हें भूतपूर्व प्रधान ठाकुद जगदंबा प्रसाद से लाख दर्जे बेहतर साबित करने पर तुले हुए थे कि एक स्साला था जो हमें पन्द्रह सालों में लूट-खसोट कर कंगाल बना गया और एक ये ईमानदार प्रधान है जिसे दीन-दु:खियों की सेवा करने में ही परम आनन्द मिलता है।

रत्नदेव नंगे पाँव अस्पताल में जमे रहे। भूखे-प्यासे, पूरे आठ दिन तक, जब तक कि अखड़ू अपने घायल बाल-बच्चों समेत चंगा हो कर राहत शिविर में स्थानांतरित नहीं हो गया। अस्पताल से राहत शिविर तक रत्नदेव को पत्रकारों से घिरे रहना बेहद रास आया। एक मिसालिया समाज सेवक बनने के लिए वह एड़ी चोटी का प्रयत्न करते रहे। कई घर ढहे, दर्जनों लोग घायल अवस्था में अस्पताल में भर्ती हुए। वह उनकी तीमारदारी में तन-मन से समर्पित रहे। फलस्वरूप, उनकी समाज सेवा की रपट बड़े-बड़े अखबारों में उनकी फोटो समेत छपी। कलक्टर साहब ने उनकी पीठ थपथपाई और ब्लाक प्रमुख ने उन्हें एक सार्वजनिक सभा में आमंत्रित कर सम्मानित किया-'रत्नदेव ऊर्प 'दीनबंधु' एक अदने से गाँव के ही नहीं, बल्कि संपूर्ण जिला के चिराग हैं। उनकी उदार सेवा-भावना से प्रभावित होकर हम उन्हें 'जिला रत्न' की खिताब देते हैं।'

गड़गड़ाती तालियों की गूंज इतनी दूर तक प्रतिध्वनित हुई कि जिले के सांसद की भी नींद उड़ गई। वह एक बार नहीं, तीन-तीन बार उनसे मिलने आए। उन्हें वचनबद्ध किया कि अगले साल उन्हें इस छोटे से गाँव से उठकर शहर में जमना होगा। वहाँ मेयर बन कर पूरे जिले को कृतार्थ करना होगा। आखिर, लोकप्रियता की चोटी छू रहे रत्नदेव जैसी घातक बला को टालने के लिए उनके आगे हड्डियां तो डाली ही पड़ेंगी। अन्यथा, क्या पता, पार्टी अध्यक्ष उनके बजाय रत्नदेव को ही लोक सभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट दे दे और उनका पत्ता ही साफ हो जाए। लेकिन, रत्नदेव के लिए तो मेयर का चुनाव लड़ने का न्यौता मिलना अंधे के हाथ बटेर लगने जैसा था। वह तो सचमुच बटुक भैरव के कृपापात्र बनते जा रहे थे।

जब बारिश का कहर कुछ मद्धिम हुआ तो बाढ़ ने गाँव के गाँव लीलना शुरू कर दिया। मम्के की इठलाती फसल की कमर पहले ही टूट गई थी। अब बाढ़ ने खतिहरों और मवेशियों को आतंकित करना शुरू कर दिया। छत्तीस टोलों और 30 हजार की जनसंख्या वाला सिम्हौरी गाँव जलमग्न हो गया। पर, दीनबंधु ने बाढ़ में बह रहे विषधर नागों और जहरीले बिच्छुओं व गोजरों से बचाव के लिए सारे बंदोबस्त पहले ही कर दिए। जिन स्कूली भवनों और राहत शिविरों में अपने गाँव वालों को स्थानांतरित किया था, वहाँ डाक्टरों, कम्पाउंडरों और नर्सों की टीम पहले ही तैनात करा दी। फिर, अपने बाढ़-शरणार्थी लोगों को घूम-घूम कर तसल्ली भी देने लगे- "तुम्हारे ढहे घरों की मरम्मत हम कराएंगे... तुम्हारे मरे मवेशियों का मुआवजा हम दिलाएंगे... हमारे जीते-जी तुम लोगों को भूख, महामारी , रोग-आजार से कभी नहीं मरने देंगे..."

'दीनबंधु' रत्नदेव को अपना भाग्य पलटता सा लग रहा था। यह सब रूद्रावतार भैरवदेव की कृपा थी। सो, उन्होंने अपने बेटे-प्रकाश को शहर भेजकर भैरव बाबा का रेशमी गंडा मंगवाया और पंडित बृजबिहारी से विधि-विधान पूर्वक पूजा-पाठ करा कर उसे अपने गले में धारण किया। गाँव वालों ने उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की कि दीनबंधु जी कष्ट और संघर्ष के दौर में भी ईश्वर को नहीं भूलते। आखिर, दरिद्र और विपन्न ग्रामीणों के हित में ही तो उन्होंने भैरव बाबा का प्रसाद ग्रहण किया है।

लिहाला, उन्होंने बंद-आँखों से अपने इष्टदेव को वचन दिया- "भगवन, हमारी हार्दिक इच्छा है कि हम अपने गाँव में आपका एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाएँ। बाबा, बस मेरी झोली हीरे-मोतियों से भर दो और अगले साल जिला मेयर के चुनाव में हमें तुच्छ मेयर की मुरसी मुहैया करा कर अपना आजीवन दास बना लो।"

दीनबंधु ने आँखें खोली तो सामने बृजबिहारी को खड़ा पाया जो उनकी मन: स्थिति को बखूबी ताड़ रहे थे। "जजमान! ईश्वर आप पर रीझा गए हैं। हम तो ठहरे भिखारी बांभन। बस, आप जनों की खुशहाली के वास्ते नारायण से टेर लगाना ही हमारा धर्म है। मालिक! अपने इस गुलाम पर रहम कीजिएगा। हमें ज्यादा नहीं, बस आपकी कमाई में से दो परसेंट चाहिए। हम नाती-पूत समेत आपका गुणगान करते रहेंगे..."

जब बृजबिहारी ने करबद्ध निवेदन करने के बाद, रत्नदेव को जाने का रास्ता दिया तो दरवाजे पर बी.डी.ओ. साहब का मैसेंजर कोई सरकारी लिफाफा लिए बेताब हो रहा था। रत्नदेव ने एक झाटके से लिफाफा लेकर उसका मजनून पढ़ा। मन में खुशी की बयार बहने लगी। सरकार ने प्राकृतिक आपदा और बा से पीड़ितों की राहत के लिए पाँच ट्रक अनाज की डिलीवरी मंजूर कर ली थी। साथ में, उजड़े ग्रामीणों के नुनर्वास के लिए आठ लाख रूपए की राशि भी। चालाक बृजबिहारी उनका चेहरा पए कर पत्र के संदेश को भाँपने का यत्न कर रहे थे। पर,रत्नदेव ने एक नाचीज की तरह लिफाफे को कुर्ते की जेब के हवाले कर दिया और बृजबिहारी का ध्यान एक इतन विशय पर बँटाने लगे- "पंडितज्जी! अब हम सचमुच तबाह हो गए हैं। इससुरी बाढ़ ने हमें कहीं का न छोड़ा। सरकार कान में बत्ती डाले बैठी है और हम हैं कि फिजूल गला फाड़ कर चिल्लाए जा रहे हैं। अब तो अम्मा चिल्लाने पर भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती। ऐसे में, हमारी जान की हिफाजत भगवान भी करेगा या नहीं..."

अन्तर्यामी बृजबिहारी सब समझा रहे थे कि अब रत्नदेव कोई बड़ा हाथ मारने से पहले ऐसी ही उड़ी-अड़ी बातें करेंगे। जनता का माल हजम करने से पहले कभी सरकार की बखिया उधेड़ेंगे तो कभी अपना रोना रोएंगे। लेकिन, वह मन ही मन यह भी कहते जा रहे थे- जब हम इस बगुला भगत को रंगे हाथों पकड़ेगे तब पूछेंगे कि 'बच्चू! गुरू दक्षिणा दिये बिना ही सारा माल हड़प कर जाना चाहते हो। अभी हम हल्ला-गुल्ला मचा कर तुम्हारे थोपड़े से ईमानदारी का चोंगा हटा देंगे, तुम्हे सरेआम नंगा कर देंगे...'

हुआ भी वही, जो रत्नदेव की सामाजिक सेहत के लिए इच्छा नहीं था। जब वह शाम आठ बजे अपने पुरखों के परित्यक्त मकान में पाँचों ट्रक का अनाज छिपाने का जुगत भिड़ा रहे थे, तभी, जैसे साँप दूर से ही आदमी की गंध पहचान लेता है, वैसे ही बृजबिहारी कहीं से आ धमके। रत्नदेव तो हकबका कर रह गए। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि पंडित इतना काइयां निकलेगा।

बृजबिहारी आते ही अपना पंडिताना राग आलापने लगे- "दीनबंधु जी! ऐसा प्रतीत होता है कि दीन-दु:खियों की दुआओं का असर होने लगा है। क्या यह अनाज सरकार ने भिजवाया है..."

बृजबिहारी मुक्त कंठ से रत्नदेव को हुई इस आमदनी के लिए बधाई देने पर तुले हुए थे। रत्नदेव ने कनखियों से इधर-उधर ताक-झााँक कर माहौल का जायजा लिया और बृजबिहारी के कान से अपना मुँह सटा दिया - "पंडिज्जी! आप सुबेरे वाली अपनी दो परसेंट वाली बात भूल गया क्या..."

बृजबिहारी एकदम से निरीह तोते पर बाज की भाँति टूट पड़े - "ना, ना, लर, इस मामले में तो ऐसा सौदा हमें कत्तई मंजूर नहीं है। हमें तो फिफ्टी-फिफ्टी का हिस्सेदार बनाओ, अन्यथा गाँव में जा कर शोर मचाऊंगा, बखेड़ा खड़ा करूंगा कि..."

रत्नदेव ने चट अपना हाथ बृजबिहारी के मुंॅह पर रख दिया। लेकिन, उनकी बोलती कहाँ बंद होने वाली थी? "अब, आप हमारी जुबान पर ताला मत लगाइए, नहीं तो हम आपकी आती लक्ष्मी पर ग्रहण लगा देंगे। हमें भेड़ की खाल उधार कर भेड़िया को नंगा करना भी खूब आता है। तब, लोग आपके 'दीनबंधु' के चोले को बखूबी जान जाएंगे, आपको और आपकी प्रधानी को एक ठिकाने लगा देंगे..."

रत्नदेव उनके अड़ियलपन के कारण सन्न रह गए। अपराध बोध से बीमार हो गए। वह उन्हें सरपट की ओट में खींच कर ले गए। उन्हें अपने हक पर किसी ऐरे-गैरे द्वारा दावा किया जाना एकदम नागवार लग रहा था। बृजबिहारी को एक दमड़ी देना भी अनुचित लग रहा था। पर, वह करें तो क्या करें? भांडाफोड़ का भय उन्हें बुरी तरह खाए जा रहा था। इसलिए, उन्होंने बृजबिहारी के साथ बहसा-बहसी में अपने घुटने टेक दिए।

सौदा पट गया। जनता का मुंह बंद करने के लिए एक ट्रक का अनाज बाढ़ पीड़ितों में वितरित किया जाएगा। शेष चार ट्रक में से, तीन ट्रक का अनाज रत्नदेव के हिस्से में जाएगा जाएगा। और एक ट्रक अनाज बृजबिहारी को मिलेगा।

चुनांचे, रत्नदेव झाक्की बृजबिहारी से चौकन्ना हो गए। पंडित न तीन में, न तेरह में, फिर भी हराम की कमाई कर गया। लेकिन वह करते भी क्या? गोरख धंधे में वह अभी बहुत कच्चे हैं। गुस्से में उन्होंने अपने होठ काट कर सारा मुँह लहूलुहान कर दिया। बृजबिहारी कटाक्षपूर्वक मुस्कराते रहे।

"दीनबंधु जी, आप हमें ऐसे ही खुश करते रहिए और हम आपके लिए बटुक भैरव से प्रार्थना करते रहेंगे... अरे आँ, हमारी मिलीभगत के बारे में किसी को कानों-कान खबर न होगी..."

पल भर के लिए रत्नदेव, बटुक भैरव के जिक्र से झझाला उठे। लेकिन, अगले ही पल उनकी मन ही मन मक्खनबाजी करने लगे- भगवन, हम अच्दी तरह समझा रहे हैं कि आप हमारी आस्था की परीक्षा ले रहे हैं। पर, चाहे कुछ भी हो, हम अपने गाँव में आपके मंदिर का निर्माण जरूर करवाएंगे..." इस संकल्प ने उनके मनोबल को और दृढ़ किया। शायद, उनकी चापलूसी भगवान को भली लगी।

लिहाजा, रत्नदेव की तिलमिलाहट वाजिब थी। उनके हक पर कोई तीसरा आदमी बट्टा लगा गया था। वह सर्किट हाउस के बरामदे में टहलते हुए लालटेन की लुप्प-लुप्प में सन्नाटे से सिर टकरा रहे थे। उनके घर वालों को उनकी बेचैनी का कारण पता नहीं था। प्रकाश उनके सामने से ही असलम की दुकान से बकरे का गोश्त लेकर अंदर गया था और महरिन द्वारा सील-लोढ़े से गरम मसाला, प्याज, लहसुन, अदरम आदि के पीसे जाने की महक चारो ओर फैल चुकी थी। उसके बाद, भगौने में प्याज का तड़का लगा कर गोश्त को मसाले में भुनने और उसमें शोरबा लगाने की आहट भी उन्हें मिल चुकी थी। किन्तु, आज उनका मन गोश्त खाने से पहले होने वाली जल्दबाजी से बिल्कुल चंचल नहीं था। उनका मन तो इस ग्लानि से झलस रहा था कि उन जैसे चतुर कायस्थ को एक ब्राह्मण बुद्धू बना गया था। बुद्धि विलास में मात देने के उनके पौराणिक अहं को चकना चूर कर गया था।

जब सलोनी ने आ कर लालटेन की बत्ती बढ़ाकर रोशनी तेज की और चटाई बिछा कर पानी भरा लोटा और गिलास रखा तो उसके साथ-साथ रोटी का सोंधापन भी ओसारे में फैल गया। अब उनका जीभ पर से संयम टूटने लगा। वह पालथी मार कर खाना खाने बैठ गये। अभी उन्होंने मुश्किल से दो रोटियाँ ही खाई थी और गोश्त के चंद टुकड़े ही चिचोरे थे कि दरवाजे पर हुई दस्तक से उनके मुँह का स्वाद बिगड़ गया। जसोदा खिड़की से झााँक कर फुसफुसाई- 'ए जी, ठाकुर जगदंबा आए हैं...'

रत्नदेव ने थाली खिसका कर सलोनी बिटिया को दरवाजा खोलने के लिए इशारा किया और खुद भूतपूर्व प्रधान की अगवानी के लिए खड़े हो गए।

"तो, दीनबंधु जी, अब आपके सितारे बुलंद हैं। लगे हाथ अपनी सात पीढ़ियों की किस्मत भी चमका लीजिए," ठाकुद जगदंबा ने घुसते ही व्यंग्य कसा और मीट की गंध को नाक से सुड़कने लगे। अभी रत्नदेव उनके आगे स्टूल खिसकाते हुए खुद मचिया पर बैठ ही रहे थे कि जगदंबा फिर बोल उठे-

"तो, बाबू साहब, कल कलेक्टर सा'ब से चेक लेने कब चल रहे हैं? आपकी हिफाजत के लिए हमारा और हमारे आदिमियों का आपके साथ रहना बड़ा जरूरी है। जानते ही हैं, जमाना कितना खराब हैं?"

रत्नेदव के पैरों तले से जमीन खिसक गई। सोचने लगे कि आठ लाख रूपयों की सरकारी मदद के बारे में जगदंबा को कैसे भनक मिली? जरूर बृजबिहारी ने चुगलखोरी की होगी। वह मन ही मन उसे गिन-गिन कर गालियाँ देने लगे।

"अरे हाँ, ठाकुर सा'ब। हम तो आपको इसी खातिर याद करने वाले थे। आखिर, भूतपूर्व प्रधान की देखरेख में ही तो गाँव वालों का भला होगा। फिर, इसी रकम से तो बाढ़ की परवान चढ़े उनके घरों की मरम्मत होगी। टूटी-फूटी गलियों को दुरूस्त किया जाएगा। जो प्राइमरी सकूल ढह गया है, उसे दोबारा खड़ा किया जाएगा। बरसात के बाद आने वाली महामारी से निबटने के लिए दवा-दारू का इंतजाम भी इसी से किया जाएगा..."

रत्नदेव पूरी ईमानदारी बरतने और अपने मन की खोट छिपाने का ढोंग करते हुए जगदंबा को विश्वास में लेने का भरसक प्रयास कर रहे थे।

लेकिन, जगदंबा उनकी बातों को बेहटियाते हुए हँस पड़े, "तो, अब आपने गाँव में सुधार आंदोलन चलाने का पूरा विचार बना लिया है। अरे, दीनबंधु जी, आपको अपने बाल-बच्चों का भी कुछ ख्याल है क्या?"

"ऐं,ऐं, ऐं", उनके इशारे से बिल्कुल अनजान बन कर रत्नदेव ने पूछा, "आपका मतलब हमारी समझा में नहीं आया, जगदंबा जी..."

"आप ऐसे नहीं समळोंगे" कहते हुए जगदंबा ने अपनी स्टूल उनकी मचिया से सटा दी। उनके मुँह से शराब की भभक से रत्नदेव का मन मितलाने लगा।

जगदंबा ने कहा, "रतन भाई, आप परधानी की कुरसी बहुत कुछ हार के जीते हैं। आप उस नुकसान की भरपाई कैसे करेंगे?"

रत्नदेव गंभीर हो गए। उन्हें पहले जो बात थोड़ी-थोड़ी समझा में आ रही थी, अब अच्छी तरह समझा में आने लगी थी। वह यह भी समझा रहे थे कि पंडित की तरह यह ठाकुर भी उनसे बिना मूलधन के, ब्याज ऐंठना चाहता है- उनका हितैषी बनने का स्वांग खेल कर।

जगदंबा पुन: बोल उठे, "ना, ना, ना। हमें आपसे कुछ भी नहीं चाहिए। हम तो आपको कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं। दरअसल, हम आपको अपना तजुर्बा बताने आए हैं। आप समझा रहें हैं, ना..."

रत्नदेव यंत्रवत् सिर हिला रहे थे और उनका मन टटोलने की कोशिश कर रहे थे।

जगदंबा लगातार बोलते जा रहे थे, "प्रधान जी, हमारा मतलब ये हैं कि आपको जो जनसेवा करके वाहवाही लूटनी थी, सो आप लूट चुके हैं। अब आप अपनी लोकप्रियता भुनाइए। समय का यही तकाजा है। आप क्या समझाते हैं कि सरकार ये रूपया आपको जनता में लुटाने के लिए दे रही हैं? नहीं, नहीं। वहाँ विकास के नाम पर बड़े-बड़े मंत्री-मंत्री, एम पी-एमेल्ले अरबों की हेराफेरी कर रहे हैं और यहाँ हम लोग क्या लाख दो जीजिए कि सरकार हमें यह रकम हमारी जुबान पर ताला लगाने के लिए दे रही है। ताकि हम उनके घाटोलों की ओर से अपनी आँख फेर लें और हम उनका गुणगान करते रहें। अरे, बाबू साहेब, यही तो खाने-पीने का मौका है1 लक्ष्मी के बरसने का यही तो मौसम है। अब अपनी चादर फैला दीजिए, नहीं तो बाद में कुछ भी हाथ नहीं आएगा..."

वह सोच रहे रहे थे कि रत्नदेव ईमानदारी की कठपुतली है जिसे बेईमानी की डोरियों से खींच-तान कर नचाना होगा। इसलिए, उन्होंने गुमसुम रत्नदेव को जोर से झाकझाोरा- "रतन भाई, डरो मत। हम आठ लाख रूपए का पक्का चिट्ठा तैयार करेंगे। पैसे-वैसे देकर रसीद और मैमो बनवाएंगे। बाकायदा चार्टर्ड अकाउंटेंट से ठप्पा लगवाएंगे। बस, बीस-पचीस हजार खर्च करने पड़ेगे। लेकिन, हमें कुछ भी नहीं चाहिए। हम आपको कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं..."

रत्नदेव उनका मनोविलाान पढ़ रहे थे। कयास लगा रहे थे कि इसमें उनका हिस्सा कितना होगा। लेकिन वह भी जनसेवा करने का नखरा दिखाने पर तुले हुए थे," नहीं, नहीं, ठाकुर सा'ब, बेचारी गरीब नवाज जनता के हिस्से का धन ऐंठ कर हमें नरक का भागीदार नहीं बनना है..."

"...अरे-रे-रे-रे-रे, आप नरक के भागीदार क्यों बनेंगे? अभी आपने जो जनसेवा की है, क्या वह सभी धेलुए में जाएगा? हम तो दावा करते हैं कि जब आप डेढ़ सौ साल जी कर भगवान के यहाँ जाएंगे तो वह आपको अपने बगल में बैठाएंगे," जगदंबा ने उनकी बात बीच में ही कुतर दी।

रत्नदेव मन ही मन मुस्करा रहे थे कि बेवकूफ जगदंबा उनके ईमानदार होने की गलतफहमी का पूरी तरह शिकार हो गया है। पर, वह तहे दिल से बटुक भैर से प्रार्थना भी करते जा रहे थे कि उनके दूध से धुले होने का यह नाटक कभी सफल न हो क्योंकि आखिरकार, उन्हें कुबेर का कृपापात्र बनने के लिए जगदंबा से ही दीक्षा लेनी होगी। वह अपने मन में बटुक भैरव से यह गुहार करने में कोई चूक नहीं कर रहे थे कि - 'प्रभुवर, हमें इस आठ लाख में से कम से कम साढ़े सात लाख का अधिकारी तो अवश्य बनाओ जिसमें से वह बेशक! पचास हजार खर्च करके पंचायत की दक्षिण कोने वाली जमीन पर आपके मंदिर का निर्माण करवाएंगे और शेष रकम से अपने धर की पुश्तैनी कंगाली दूर करेंगे। हम आपको वचन देते हैं कि जब आप हमें अगले साल मेयर की कुरसी मुहैया कराएंगे और मोटी कमाई के मौकों से कृतकृत्य करेंगे तो हम आपके मंदिर की सजावट न केवल संगमरमर से करवाएंगे बल्कि उस पर स्वर्ण और रजत की कसीदाकारी भी करवाएंगे...'

जगदंबा प्रसाद हकलाते हुए फिर शुरू हो गए, " दीनबंधु जी, स्वर्ग-नरक के फेर में अभी से पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। इसके बारे में बुढ़ापे में सोचिएगा। अभी आपको अपनी गृहस्थी पार लगानी है। देखिए, आपका पुश्तैनी मकान... शायद, इस बारिश और बाढ़ में, भगवान ना करे... सो समय रहते अपने पुराने मकान का...। सलोनी बिटिया भी सयानी हो रही है... प्रकाश भी बाल-बच्चेदार होने वाला है-- उसके धंधे का जुगाड़ करना है। अब बचा आपका छोटा बेटा संतोष जो इस साल बी.एस.सी. कर चुका है। हाँ, वह है बड़ा जहीन। हम तो कहते हैं कि उसके लिए कोई बढ़िया व्यवस्था कीजिए। मेडिकल में ऐडमीशन क्यों नहीं दिला देते। हमारे बेटे के साथ, वह भी पढ़ लेगा। दिल्ली में आपके पास पैसा भी है और मौका भी। ऐडमीशन की चिंता में मत पड़िए। मैं पी.एम. से सोर्स भिड़ा दूंगा। एक-डेढ़ लाख डोनेशन से बात बन जाएगी। हमें तो बहुत खुशी होगी। अब क्या बताएं- हमारा क्या? हमें आपसे क्या लेना है? हम तो कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं..."

उनकी 'कुछ दे के जाएंगे, ले के नहीं' वाली बात तीसरी बार सुन कर रत्नदेव का सिर चकराने लगा। आखिर, माजरा क्या है? अस्तु, जगदंबा ने उनके घर का आर्थिक चिट्ठा खोलकर उनके स्वांग पर पूर्ण विराम पहले ही लगा दिया। अत: उन्होंने अपने हथियार डाल दिए- "ठीक है, जगदंबा जी, जब आप इतना जोर दे रहे हैं तो कल कलेक्टरेट चल कर आठ लाख का चेक लाते हैं। लेकिन, हमें आपसे एक बात पूछनी है...'

"क्या?" जगदंबा का कौतुहल अचानक बढ़ गया।

"आप हमारे ऊपर जो ये सब मेहरबानी कर रहे हैं, उसके बदले में आपको क्या..."

दरवाजे पर दस्तक से उनकी बात अधूरी रह गई। बृजबिहारी गलत समय तशरीफ लाए थे। रत्नदेव मन ही मन कूढ़ गए- अब यह चंठ पंडित क्या लेने आया है? जब मतलब की बात शुरू हुई तो बेमतलब की बाधा टपक पड़ी।

बृजबिहारी के चेहरे पर कुटिल मुस्कान फैल गई--" आए-गए प्रधानों के बीच क्या लेन-देन चल रही है? क्या दाँव-पेंच सीखा-सिखाया जा रहा है? क्या इस दीन सुदामा पर भी आपकी दया-दृष्टि होगी?"

रत्नदेव का मन बेठा जा रहा था क्योंकि अब उनके वश में कुछ भी नहीं रहा। ग्राम-प्रधानी जैसे वह नहीं, कोई और कर रहा हो। वह कभी पंडित तो कभी ठाकुर के हाथ की पतंग की डोर बनते जा रहे थे। वह सशंकित थे कि कहीं बृजबिहारी पाँच ट्रक अनाज वाली बात जगदंबा को न बता दे। इसलिए, अब उसमें जगदंबा का भी एक हिस्सा लगेगा। इसी दरमियान, सलोनी उन्हें अंदर बुला ले गई। जब वह कुनमुनाते हुए अंदर गए तो बृजबिहारी और जगदंबा परस्पर फुसफुसाने लगे और जब वह वापस आए तो दोनों दूर-दूर बैठे हुए खुद में खोए होने का बहाना बनाए हुए थे। वह बखूबी भाँप रहे थे कि दोनों ने क्या तिकड़म बैठायाहोगा। उन्हें अपनी पत्नी जसोदा का मशविरा पसंद आया था- "दोनों को ख्‌ंलिा-पिला कर इतना टुल्ल कर दीजिए कि वे आपके आगे जुबान खोलने का दुस्साहस न कर सके।" रत्नदेव पहले से ही जानते थे कि ठाकुर तो माँस-मदिरा के पीदे पहले से ही मतवाला है और यह बगुलाभगत पंउति भी गोश्त चिचोर-चिचोर कर खाता है, शराब की बोतल टेट में छिपा कर घूमता है।

रत्नदेव ने झाटपट प्रकाश को भेज कर तीन बोतल शराब मंगाई। गोश्त तो पहले से ही तैयार था। फिर, वह बरामदे में आ कर उन अवांछित मेहमानों को गोश्त और शराब की दावत दे बैठे। वहाँ थाली में शोरबेदार गोश्त देख कर ठाकुर के मुँह से तो पहले से ही लार टपक रहा था। इसलिए, दावत के आमंत्रण पर उनहोंने मुस्करा कर और मुँह चियर कर अपनी मौन सहमति दी।

बृजबिहारी थाली लगने से पहले ही दावत जीमने विराजमान हो गए। जब शराब का दौर शुरू हुआ तो पहले तो वह सतोगुण संपन्न ब्राह्मण होने का ढोंग करते हुए ना-नुकर करते रहे। पर, जब उन्हें लगा कि उनके सामने से जाम हटने ही वाला है तो उन्होंने घिघिया कर रत्नदेव के हाथ से जाम छीन लिया। दोनों माल मुफ्त बेरहम की भांति छक कर दावत निपटा रहे थे और हड्डियों की लुगदियों से थाली भर रहे थे। रत्नदेव ने शराब की सारी बोतलें उनके गले में उतार दीं। वह प्रतिशोध के कारण आपे से बाहर हुए जा रहे थे।

"रत्नदेव भाई, बस, और नहीं। नहीं तो हम मर जाएंगे," कहते हुए जगदंबा ने रत्नदेव का हाथ थाम लिया। शराब का नशा उनके होश पर भारी पड़ रहा था। रत्नदेव ने उन्हें सहारा देकर चौकी पर बैठाया। यही दशा बृजबिहारी की भी हो रही थी। दोनों के शरीर लुंज-पुंज हो रहे थे, तंत्रिकाएं ढीली पड़ रही थीं। जुबान बेलगाम हो रही थी। जगदंबा लगातार बकबक किए जा रहे थे- "रत्नदेव, हम पूरे सोलह आने सच बोल रहे हैं कि हम तुम्हें कुछ दे के जाएंगे, ले के नहीं..."

रत्नदेव ने स्वयं से कहा- अच्छा मौका है। इन ताव में लाकर इनके मन की बात उगलवा ही ली जाए। नशे में मन की सारी बातें जुबान पर आ जाती हैं। उन्होंने जगदंबा से कहा, "ठाकुर सा'ब, आप बार-बार हमें कुछ देने और हमसे कुछ भी न लेने की बात कर रहे हैं। आप अपनी बात साफ करिए- आखिर, आप ठाकुर की औलाद हैं, बनिया-बक्काल तो हैं नहीं..."

प्रत्युत्तर में जगदंबा की बजाए बृजबिहारी ही नशे में मचल उठे- "दीनबंधु जी, ठाकुर जगदंबा अपनी बिटिया को आपकी बहू बनाने का मन बना रहे हैं... आपको समधी और आपके संतोष को अपना जवाई बनाना चाहते हैं..."

रत्नदेव के कान खड़े हो गए- "और?"

"और असल बात ये है कि हम तुम्हें अपनी बिटिया देंगे, लेकिन लेंगे कुछ भी नहीं..."

जगदंबा की बात पूरी होने से पहले ही बृजबिहारी से सारी स्थिति स्पष्ट कर दी, "हाँ, अपनी बिटिया ही देंगे, और कुछ नहीं देंगे। न तिलक, न दहेज, न मोटर न स्कूटर...

जगदंबा ने बृजबिहारी को तरेर कर देखा। फिर, रेडियो की तरह धर्र-धर्र बजने लगे- "बाबू साहेब, हम-तुम एकदम जोड़-तोड़ के घराने के हैं। तुम कलम के क्षत्रिय हो, हम तलवार के। बस, समझा लो कि जब दोनों घरानों का मूल होगा तो हम लोग पूरे जवार में सबसे ताकतवर बन जाएंगे...

रत्नदेव आश्चर्य से सराबोर हो रहे थे- 'तो जगदंबा के भ्‌ंेजे में यही बात कब से पक रही थी।'

बृजबिहारी नशे में भी होश में बातें कर रहे थे और वह अपेक्षाकृत अधिक मजाक के मूड में थे।

"अच्छा, तो कायस्थ-क्षत्रिय ऐसे सांठ-गांठ कर पोलाव पका रहे हैं। लेकिन, पोलाव में मिठास हमीं से आएगा। आखिर, हम बांभन जो ठहरे...

बात से बतकही और बतकही से बतंगड़ बनने के कारण शोर बढ़ता जा रहा था। किन्तु, रत्नदेव वास्तविकता से अवगत होने के बाद चिंतित हो रहे थे। प्रकाश के विवाह पर उन्हें बतौर दहेज मोटी रकम तो मिली थी, भले ही कार के बजाय स्कूटर से संतुष्ट होना पड़ा था। परन्तु, संतोष की शादी करके वह बाकी कसर पूरी करना चाहते हैं। चुनांचे, अगर संतोष का मेउकिल कोर्स में ऐडमीशन हो गया तो उनकी किस्मत का पिटारा खुल जाएगा। उनका सारा परिवार मोटरकार से सैर-सपाटा कर सकेगा। यों तो प्रकाश की शादी करा कर वह सोखन साहू का जर्जर मकान ही खरीद सके थे। अब, संतोष की शादी कराकर उस मकान को आलीशान कोठी में तब्दील कर सकेंगे। बेशक, कोठी बगैर तो उनकी हैसियत ही पलीद होती जा रही है। यह खूंसट जगदंबा तो उन्हें सस्ते में ही निपटाना चाहता है और एक अधन्नी खर्च किए बगैर अपनी फूहड़ बेटी को उनके चिकने-चुपड़े बेटे के साथ बांधना चाहता है। ठाकुर हो कर म्लेच्छों जैसी बातें कर रहा है। जहाँ भंडारा चलता देखा, वहीं जीमने बैठ गए।

उन्होंने पीछे घूमकर दरवाजे की ओट में जसोदा का चिंतित चेहरा गौर से देखा। उसने आँखों ही आँखों में कहा- 'यह फटीचर आदमी हमारे ओहदे से बहुत छोटा है। यह हमारी मांग क्या पूरी कर पाएगा? ठहरे लखपति प्रधान और यह ठहरा कंगाल और दर-दर का भिखारी।' नि:संदेह, जो जसोदा सोच रही थी, वही वह भी सोच रहे थे। उसने फिर रत्नदेव को कनखियों से इशारा किया- 'फिलहाल, इस बला को रफा-दफा कीजिए। इस बारे में बाद में सोचेंगे। अभी इस आठ लाख के बारे में विचारिये, उस लाख के बारे में फुरसत में सोचेंगे।'

रत्नदेव ने स्वयं को संयत किया। मन में बटुक भैरव का ध्यान करते हुए खड़े हो गए। "हम तीनों का तालमेल बना रहेगा। हम मिल-जुल कर रहेंगे और मिल-बांट कर खाएंगे। किसी को कानों-कान खबर नहीं होने देंगे।" उनकी आँखों में नेता-सुलभ कुटिलता चमकने लगी। उनहोंने सीना फुला कर संकल्प लिया कि उन्हें बगुला भगत बनना ही होगा। समय का यही तकाजा है। ईमानदार बगुला तो भूखों मर जाएगा।

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कलमुंही बाढ काहिलों की गृहस्थी चौपट कर, मजरूों और दिहाड़ियों के रोजगार छीन कर सरजू नदी में समा रही थी। लोग राहत शिविरों से निकल गाँव में अपने अपने घरेां के निशान जोह रहे थे। फूंस के छप्पर वाले मिट्टी के घर आखिर कब तक उफनती लहरों का प्रहार बरदाश्त कर पाते? वे जड़ से उजड़ गए। छप्पर तो बह गए, लेकिन बाकी चीजें मिट्टी का हिस्सा बन गईं।

अखडू कुम्हार फबक पड़ा, "अब, हम लोग कहाँ जाएं? क्या करें? कैसे कमाएं और क्या खाएं?"

रसूल मियां ने उसके हाथ से बैसाखी लेकर उसे मेढ़ पर बैठाते हुए तसल्ली दी- "अखड़ू भाई, तुम हमारे रहते तनिक भी मत घबराओ। जो होना था, सो हो गया। ऊपर वाले की यही मर्जी थी। अब तुम फिर से अपना रोजगार जमाओ। बाढ़ ने चारो ओर चिकनी मिट्टी बिछा दी है। अपना चाक फिर से बेठाओ और अपने हाथों की कारीगरी का करिश्मा दिखा कर मिट्टी के बर्तन, खिलौने, औजार वगैरा बनाना शुरू करो। खुदा का शुक्र मनाओ कि बाढ़ के कहर ने तुम्हें लंगड़ा ही बनाया है, लूला नहीं।"

रसूल मियां उसे रत्नदेव के पास ले गए। उन्हें विश्वास था कि अखड़ू के परिवार के पुनर्वास के लिए दीनबंधु जी सरकार से दरख्वाश्त कर उसके लायक कोई काम का बंदोबस्त जरूर करेंगे।

उस समय, रत्नदेव उखड़े-उखड़े थे। वह अभी-अभी अपने दल-बल समेत कलेक्टरेट से मायूस लौटे थे। कलक्टर ने साफ-साफ कह दिया था कि पहले बाढ़ से हुए नुकसान का जायजा लेकर उसका पूरा लेखा-जोखा तैयार किया जाएगा। फिर, राहत राशि जारी की जाएगी और वह भी ग्राम प्रधान के हाथ में सीधे नहीं। सारी धनराशि ग्रामीण बैंक में जमा होगी जहाँ से बाढ़ राहत कमेटी की सिफारिश पर ही किस्तों में रूपए निकाले जाएंगे।

रसूल मियां बेंच पर बैठ गए। अखड़ू अपनी बैसाखी दीवार से टिका कर खुद नीचे बिछी चटाई पर बेठ गया जिस पर कोई दर्जन-भर और ग्रामीण बैठे हुए थे। सबके हाथों में आवेदन पत्र थे, जिनमें वे प्राकृतिक आपदा से हुए अपने-अपने नुकसान का दावा पेश कर रहे थे। रसूल ने अखड़ू के कान में कहा, "अखड़ू भ्‌ई, तुम भी एक अप्लीकेशन तैयार कर लो।" जब अखड़ू ने अंगूठा दिखा कर अपने अंगूठाछाप होने का प्रमाण दिया तो रसूल मियां उसकी ओर से खुद आवेदन पत्र लिखने लगे। उन्हें ऐसा करते देख रत्नदेव एकदम से खीझा उठे- "आए मुल्ला, इ लिखने-पढ़ने का काम तहसील में जा के करो। सरकार ने ठेंगा दिखा दिया है। यहाँ कुछ मिलने-विलने वाला नहीं है। हम क्या तुमको कुबेर दिखते हैं?"

रसूल ने रत्नदेव को ऐसे झाक्की मूड को पहले नहीं देखा था। वह कल्पना भी नहीं कर सकते थे बचपन में गलबहियां खेलने वाला शख्स इतनी गैरियत से बोल सकता है। उन्होंने वहाँ बैठे हुए सभी लोगों को गौर से दखा। उनकी आँखें जमीन पर गड़ी हुई थीं। उनके चेहरों पर उतराती उदासी का कारण समझा में आ रहा था। रत्नदेव सभी पर बरसे थे। सभी को निराश किया था।

रसूल मियां ने हिम्मत बटोरी। "दीनबंधु जी, हम यहाँ भीख मांगने नहीं, अपना हक मांगने आए हैं। आपको हमने परधानी की कुरसी पर इसलिए बैठाया है कि आप हमारा हक दिलाने में हमारी मदद करेंगे। हमारी आवाज सरकार तक पहुंचाएंगे। क्योंकि आप जगदंबा से ज्यादा पढ़े-लिखे हैं, ज्यादा काबिल हैं। अगर आप ही हम बदकिस्मतों की ऐसी बेकद्री करेंगे तो उनमें और आप में क्या फर्क रह जाएगा? हम तों सोच रहे थे..."

उनका गला रूंध गया। पर, रत्नदेव पर उनकी बात का गहरा असर हुआ। रत्नदेव ने खुद पर काबू किया। मन के किसी कोने से एक आवाज आई- 'रत्नदेव अभी से धैर्य खोने लगे? ऐसा करोगो तो सारे मौके खो दोगे।' उन्हें लगा कि स्वयं बझ्ुक भैरव उन्हें आदेश दे रहे हैं। उन्होंने अपनी झझालाहट को फीकी मुस्कान से दबाया - "मियां हमारे का बाँध इसलिए टूट रहा है कि हम अपनी जनता की मदद नहीं कर पा रहे हैं। जब सरकार ही पैसा देने से मनाही कर रही है तो हम क्या खुद को नीलाम करके..."

बीच बात में ही जगदंबा प्रसाद ने वहाँ अप्रत्याशित रूप से उपस्थित हो कर उँचे स्वर में रत्नदेव की कन्नी काट दी, "अरे-रे-रे-रे-रे, ना-ना-ना-ना, प्रधान जी! खुद पर ऐसा जुल्म मत ढाना। खुद को नीलाम मत करना..."

जगदंबा के तेवर बदले-बदले से थे। उनहें देख रत्नदेव की जुबान तलवे से चिपक गई। जगदंबा ने लोगों को देखा और फिर शुरू हो गए, "दीनबंध जी, आप एकदम बेजा कर रहे हैं। अरे, आप इन मुसीबल के मारों को और क्यों मार रहे हैं? इनसे अप्लीकेशन लेकर तहसील चलिए। बाढ़ राहत कमेटी इन पर तत्काल विचार करेगी..." वह सार्वजनिक रूप से रत्नदेव पर रोब गालिब करने लगे।

रत्नदेव को लगा कि जैसे जगदंबा न केवल उनकी पोल खोल कर नंगा करना चाहते हैं, बल्कि लोगों से सहानुभूति भी बोटरना चाहते हैं।' वह उनहें मन ही मन कोसने लगे- 'कल, हरामजादे को इतना खिलाया-पिलाया, लेकिन सब बेकार चला गया। स्साला, कितना नमकहराम निकला!

जगदंबा की बकबक बंद नहीं हुई - "प्रधान जी, आप सीधे-सीधे इन्हें यह क्यों नहीं बता देते कि अब आपके बस में कुछ भी नहीं रहा। मतलब यह कि सीधे सरकार ही इन्हें मुआवजा दिलाएगी, बैंक के जरिए। सो, ये लोग अपना रोना बाढ़ राहत कमेटी के सामने रोएं..."

जगदंबा के मुँह से खरी बातें सुनकर सभी का ध्यान उनकी ओर खिंच गया। वर्तमान प्रधान के बजाय भूतपूर्व प्रधान का पलड़ा भारी पड़ने लगा। रत्नदेव का माथा ठनका। साढ़े साती शनिचर का प्रकोप उन्हें अभी से दहलाने लगा। क्या शनिदेव उन्हें मटियामेट करके ही दम लेंगे? वह मन ही मन उन्हें कोसने लगे।

रसूल मियां ने खुद से कहा- अच्छा तो ये माजरा है। मुजरिम सफेदपोश हैं। वह मुंह को सिले नहीं रह सके, "लेकिन जगदंबा जी आप कर रहे हैं कि हमें मदद मिलेगी और दीनबंधजी कह रहे हैं कि सरकार हमारी मदद करने से मना कर रही है1 अगर सरकार हमें मदद करने को तैयार है तो ये प्रधान जी झूठ क्यों बोल रहे हैं? हमें तो इनमें बड़ा खोट नजर आ रहा है कि..."

जगदंबा, रत्नदेव पर कुटिल दृष्टि डालते हुए मुस्कराए और फिर, रसूल की जुबान पर लगाम कसने लगे, "तौबा, तौबा, आप क्या समझाते हैं कि प्रधान जी कोई हेराफेरी करना चाहते हैं? ना, ना, ना, ये सब फिजूल की बात हैं। अरे, जब दीनबंधु के हाथ में कुछ रहा ही नहीं तो इनके सामने क्यों गिड़ा गिड़ा रहे हैं? ये बिचारे आजकल खुद परेशान चल रहे हैं।" वह आँख मारते हुए रत्नदेव के कान में फुसफुसाने लगे, "दीनबंधु जी, सरकार ने जो पाँच ट्रक अनाज भिवाया है, आप उसे किस तहखाने में छिपा रखे हैं? गाँव में इस बात की चर्चा का बाजार गरम है कि बाढ़-पीड़ितों का अनाज प्रधान जी हड़प गए हैं। अरे, उसे फटाफट बंटवा दीजिए, नहीं तो बेकार में आफत मोल लेनी पड़ेगी।"

रत्नदेव को ऐसा लगा कि जैसे वह धड़ाम से आसमान से जमीन पर गिर पड़े हों। वह स्तब्ध रह गए। अनाज वाली बात जगदंबा को कैसे पता चली? कहीं बृजबिहारी ने तो ... वह दाँत किटकिटा कर उसे धिक्कारने लगे- 'चुगलखोर पंडित ने हमें कहीं का न छोड़ा। थोड़ी-बहुत जो आमदनी हुई थी, वह भी हाथ से निकल गई। भैरव बाबा ने उनकी मुराद पूरी नहीं की। क्या करें, उनका मंदिर बनवाने का वचन वापस ले लें?

बाढ़ ने उनकी कमर ही नहीं, उनका मनोबल भी तोड़ दिया। अगर उन्हें पता होता कि उन्हें ठेंगा मिलने वाला है तो वह अस्पताल में घायलों की सेवा क्यों करते, बाढ़-पीड़ितों की मदद क्यों करते? बल्कि आराम से अपने मजिस्ट्रेट भाई के यहाँ खर्राटे भरते होते। अब तो उनकी लुटिया डूबी ही डूबी, इज्जत भी दाँव पर लग गई। लिहाजा, अब उन्हें सिर्फ अपनी इज्जत बचाने की यथाशक्ति युक्ति करनी चाहिए। उनका दिमाग तेजी से दौड़ने लगा - क्यों न एक ही तीर से दो शिकार किए जाएं? वह जगदंबा के मुँह पर हाथ रख कर बतियाने लगे, "क्या बताएं ठाकुर सा'ब? हमने पहले ही एक ट्रक अनाज बृजबिहारी के घर भिजवा दिया है ताकि वह उसे अपने पउोस के बाढ़ पीड़ितों में बंटवा दे। लेकिन, पंडित सारा अनाज खुद हजम कर जाना चाहता है। हम तो अभी सारा अनाज बंटवा देने को तैयार हैं। पर, जब लोग पूछेंगे कि प्रधान जी! चार ट्रक अनाज तो बंटवा दिया, बाकी एक ट्रक का अनाज कहाँ गया तो हम क्या जबाब देंगे?"

जगदंबा, रत्नदेव को कोने में खींच ले गए।

"दीनबंधु जी, ऊं पंडित से तो हम लोग बाद में निपटेंगे। अभी हम ऐसा करते हैं कि आपक पास जो चार ट्रक अनाज, उसमें से एक ट्रक अनाज गाँव के दरिद्रों में बंटवा कर हल्ला मचा देते हैं कि पाँचों ट्रक का अनाज गाँव वालों में खपा दिया गया है। कोई हम पर शक तक नहीं करेगा। बाकी तीन ट्रक का अनाज हम दोनों आपस में बाँट लेंगे।"

बेईमान ठाकुर की इस दुष्ट योजना पर रत्नदेव को बिल्कुल आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि दोनों ही चोर-चोर मौसेरे भाई थे। चुनांचे, रत्नदेव ने फिर अपना पासा, बड़ी चतुराई से फेंका- "लेकिन, ठाकुर सा'ब! आप तो कल तक कह रहे थे कि हम कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं। फिर, आप हमीं से यानी अपने होने वाले समधी से यह अनाज क्यों चाहते हैं? जाइए, आप अपनी बेटी की डोली सजाइए, हम बारात लाने की तैयार कर रहे हैं। अब हमें तो अपने बेटे की बारात सजाने के लिए यही अनाज बेच कर जुगाड़ करना पड़ेगा..."

जगदंबा एकदम खीझा उठे- "रत्नदेव, कल रात जो कुछ हमने कहा था, वह सब नशे में कहा था। हम अपनी बेटी तुम्हारे दरिद्र खानदान में क्यों ब्याहेंगे? क्या इस जिला-जवार में और धनीमानी परिवार खत्म हो गए हैं? हम तो अपनी बिटिया किसी एस.पी. या थानेदार से ब्याहेंगे, तुम्हारे नाकारा संतोष के साथ क्यों ब्याहेंगे..."

विवाद तूल पकड़ता जा रहा था। जो घरेलू बातें कान में फुसफुसा कर कही जानी चाहिए थी, वे गला फाड़ कर सरे-आम कही गईं। दोनों परिवारों की अंदरूनी बातें जगजाहिर हो गईं। पर, रत्नदेव का तो कुछ नहीं बिगड़ा। दरअसल, जानबूझा कर की थी ताकि जगदंबा और बृजबिहारी की बेईमानी सार्वजनिक हो जाए और उनकी धूर्तता पर परदा पड़ जाए। उन्होंने बड़ी चतुराई से उन दोनों से पल्ला झााड़ कर खुद को पाक-साफ साबित कर दिया। जगदंबा सोच रहे थे कि वह भरी भीड़ में रत्नदेव को नंगा करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे। लेकिन, जब रत्नदेव का तेज दिमाग चलने लगा तो वह मुंह ताकते रह गए। रत्नदेव के तिकड़म ने उन्हें पछाड़ दिया। वह मौका पाते ही वहाँ सभी उपस्थितों से चिल्ला उठे--

"आप लोग हमें बेईमान समझाते हैं, ना। पर, असल बात यह है कि कुछ लोग हमें काधा धंधा करने को मजबूर कर रहे हैं। आपको पता नहीं है, आप लोगों की मदद के लिए सरकार ने पाँच ट्रक अनाज भिजवाया था। लेकिन, जिस पंडित बृजबिहारी को आप लोगा बड़ा धर्मात्मा समझाते हैं, वह हमसे एक ट्रक अनाज जनता में बंटवाने के बहाने पहले ही हड़प ले गया है। बाकी चार ट्रक अनाज में से ये ठाकुर जगदंबा आधा अपने पास और आधा हमारे पास रखने की दुष्ट सलाह द रहे हैं। ऐसे में हम क्या करें? हम तो मर जाएंगे, पर घोटाला कभी नहीं करेंगे। अब, आप ही लोग जो मुनासिब समझाते हैं, वो कीजिए। आखिर, आप जनता जनार्दन हैं..."


सभी रत्नदेव का इशारा समझा गए। वे बेकाबू हो उठे। उन्होंने जगदंबा को षडयंत्रकारी समझाकर उसकी जम कर पिटाई की। गाँव वालों को असलियत मालूम होते ही वे भारी संख्या में बृजबिहारी के घर पर टूट पड़े और वहाँ से सारा अनाज लूट लिया। जब पुलिस आई तो प्रत्यक्षदर्शी ग्रामीणों की बयानबाजी पर जगदंबा को एक ईमानदार प्रधान से गैर-कानूनी काम कराने के जुर्म में रंगे हाथों पकड़ा गया। जगदंबा जेल की सलाखों के पीछे भेज दिए गए। तदनन्तर, बृजबिहारी को जनता के माल में से हेराफेरी करने के चक्कर में तीन सालों की सलाम सजा मिली। रत्नदेव का मन ठंडा पड़ गया। क्योंकि भले ही वह अनाज की हेराफेरी करने में फिस्स बोल गए, उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वियों को सबक सिखा कर बड़ी तसल्ली हुई।

लेकिन, रत्नदेव के सितारे बुलंद थे। वह दोबारा अखबारों की सूर्खियों में आए। इस बार, सरकारी राहत सामग्री को जनता में ईमानदारी से विरित कराने के काम में उनकी छवि मुखर हुई। उनके सिर एक आदर्श समाज सेवक का तगमा मढ़ा गया। अखबारनवीसों का हुजूम फिर उनकी ओर उमड़ा। उन्होंने रत्नदेव को समाज सेवा की मिसालिया महानियों का नायक बनाया। जिले के सांसद फिर उनसे मिलने आए और एक विशाल जन सभा में उन्हें सम्मानित किया। उनकी नि:स्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर प्रशासन ने उन्हें 'जिला बाढ़ राहत कमेटी' का अध्यक्ष बनाया। इसके चलते, वह अपने ही गाँव के ही नहीं, अपितु जिले भर के बाढ़ पीड़ितों के मसीहा बन गए। अब, उनकी ही सिफारिश पर अन्य बाढ़ क्षेत्रों के लिए राहत राशि जारी की जाती थी। इसलिए जहाँ वह लाखों के लिए तरस रहे थे, वहीं वह करोड़ों में खेलने लगे।


लोग बाढ़ के सदमें से धीरे-धीरे उबर रहे थे। दीनबंधु रत्देव ने बटुक भैरव के मंदिर का भव्य निर्माण करा कर उसके लोकार्पण के अवसर पर जिले भर के सम्मानित व्यक्तियों को आमंत्रित किया। वहाँ विशाल भोज में शामिल जिला सांसद ने उन्हें औपचारिक रूप से अपनी पार्टी की तरफ से मेयर का चुनाव लड़ने का न्यौता दिया। इस घोषणा से सबसे ज्यादा खुशी गाँव वालों को यह सोच कर हुई कि दीनबंधु को मेयर के पद का प्रत्याशी बनाकर उनके गाँव का सिर ऊंचा किया गया है।

आज दीनबंधु जी जिला मेयर हैं। सांसद उनके समधी हैं। जगदंबा को उनके बेटे को अपना दामाद न बना पाने का बड़ा मलाल है। आखिर, वह अपनी इस भूल का प्रायश्चित कैसे करें? इसलिए, जेल से रिहा होते ही वह सीधे मेयर के सरकारी आवास पर गए और अपनी करनी के लिए उनके सामने गहरा पश्चाताप प्रकट किया। दीनबंधु जी प्रसन्न हुए। अब उन्होंने जगदंबा को क्षमादान कर अपने चमचों की सेना में नियुक्त कर लिया है। जगदंबा को पूरी उम्मीद है कि जब दीनबंधु जी सांसद बनेंगे तो शायद उनकी सिफारिश पर उनकी पार्टी की ओर से उन्हें विधायक का चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिल जाए।