सियाही / बलराम अग्रवाल
“अम्मा, वो फटा हुआ गमछा अभी रखा है न?” नल के पास रखे कपड़ा धोने वाले साबुन के टुकड़ों को हाथ-पैरों पर रगड़ते मंगल ने अम्मा को हाँक लगाई।
“रखा है।” अम्मा भीतर से ही बोली,“निकालकर दूँ क्या?”
“उसमें से एक बड़े रुमाल जितना कपड़ा फाड़ लो।”
“क्यों?”
“कल से रोटियाँ उसी में लपेटकर देना अम्मा।” उसने कहा,“अखबार में मत लपेटना।”
“हाँ, उसकी सियाही रोटियों पर छूट जाती होगी।” अम्मा ने ऐसे कहा जैसे उसे इस बात का मलाल हो कि यह बात खुद-ब-खुद उसके दिमाग में क्यों नहीं आई।
“सियाही की बात नहीं है अम्मा।” नल के निकट ही एक अलग कील पर लटका रखे काले पड़ गए तौलिए से मुँह और हाथ-पैरों को पोंछता वह बोला,“वह तो हर साँस के साथ जिन्दगी-भर जाती रहेगी पेट में…काम ही ऐसा है।”
“फिर?”
“खाने बैठते ही निगाह रोटियों पर बाद में जाती है अम्मा,” वह दु:खी स्वर में बोला,“खबरों पर पहले जाती है। लूट-खसोट, हत्या-बलात्कार, उल्टी-सीधी बयानबाजियाँ, घोटाले…इतनी गंदी-गंदी खबरें सामने आ जाती हैं कि खाने से मन ही उचट जाता है…।”
अम्मा ने कुछ नहीं कहा। भीतर से लाए अँगोछे के फटे हिस्से को अलग करके उसमें से उसने बड़े रुमाल-जितना कपड़ा निकाल लिया। फिर, साबुन से धोकर अगली सुबह के लिए अलगनी पर लटका दिया।