सिर्फ़ एक कर्म-क्षेत्र / रमेश बतरा
नाइट शिफ़्ट से (या कहीं से भी) वापिसी पर एक आदमी (सिर्फ़ एक आदमी ?) की राहजनी – "जो कुछ भी है, निकाल दो ।"
– "कुछ भी नहीं है।" – और यह कहकर आदमी ने दोहरे घेराव में से बच निकलने की (या भागने की या दो-दो हाथ करने की, कुछ भी हो सकता है) साहस भरी कोशिश भी कर डाली।
खड़िच ... ! आठ इंची चाकू खुलने की आवाज़ ।
फच्च । चाकू की करामात यानी पेट की अन्तड़ियाँ बाहर या शरिर के किसी भाग में चरमराहट ।
– "हरामज़ादा ..."
गुण्डे, चोर या डाकू अपना काम करके फ़रार हो गए और आदमी (सिर्फ़ एक आदमी ?) ढेर-सा वहीं पड़ा रह गया । यहाँ आप यह भी मान सकते हैं कि एक आदमी (सिर्फ़ एक आदमी ?) घटना-दुर्घटना की वजह से या किसी भी वजह से घायल हो गया ।
फिर डॉक्टर-अस्पताल-दवा-दारु, ख़ुराक ख़र्च पर ख़र्चा । पहले जमा-पूँजी की छुट्टी, फिर उधार, फिर कुल मिलाकर दो-तीन या चार ज़ेवरों का सफ़ाया, फिर मकान (यदि हो तो) गिरवी और फिर किए-कराए पर पानी ... आदमी (सिर्फ़ एक आदमी ?) अस्पताल की सड़ान्ध से निकलकर सातवें आसमान पर सैर करने के लिए चला गया ।
हे राम !
अर्थात एक (सिर्फ़ एक ?) अच्छा-खासा पर खलास ।
दो बच्चे (सिर्फ़ दो बच्चे ?) और एक औरत (सिर्फ़ एक औरत ?) क्या करें ? कहाँ जाएँ ?
पहले दिन औरत ने ससुराल का दरवाज़ा खटखटाया । दूसरे दिन मायके की दहलीज़ पर दस्तक दी । तीसरे दिन काम के बदले दो जून का भोजन माँगा । चौथे दिन वैधव्य की दुहाई देकर दया की भीख माँगी। पाँचवें दिन मारे भूख के (भूख में बहुत-कुछ शामिल होता है) वह जलते तवे पर बूँद-सी तड़पती रही । छठे दिन भी वह सब्र करके झोली फैलाए बैठी रही कि शायद कोई न कोई उसकी सहायता करने के लिए आगे बढ़ आएगा ।
मगर किसी भी हाथ ने उसके आँसू पोंछने की रस्म अदा नहीं की । हर कोई वस्त्र झाड़कर अलग खड़ा तमाशा देखता रहा । तब सातवें दिन वह औरत (सिर्फ़ एक औरत) निर्वस्त्र होकर शहर के चौराहे पर जा खड़ी हुई । सारा शहर उसकी सहायता के लिए उमड़ पड़ा । आजकल वह इतनी व्यस्त रहती है कि लोग उसकी सहायता के लिए अपनी बारी आने की प्रतीक्षा किया करते हैं ।
यह रमेश बत्तरा की पहली लघुकथा है, जो कैथल, हरियाणा से प्रकाशित होनेवाली मासिक पत्रिका ’दीपशिखा’ में 01. 05. 1973 को प्रकाशित हुई थी।