सिलवटें / तेजेन्द्र शर्मा

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कितने दिन, कितने महीने, कितने वर्षों तक इस दर्द को सहा है मैंने। लगता है अब यह दर्द जान लेकर ही रहेगा। और फिर दर्द भी तो कोई छोटा-मोटा दर्द नहीं है। भावनाओं का दर्द है। भावनाओं का ही तो खून हुआ था। क्या इसे केवल भावनाओं का खून कह सकते हैं? नहीं मेरे शरीर पर भी तो वह दुर्घटना कुछ ऐसे निशान छोड़ गई थी जो कभी ना मिट पाएँ। निशान यदि मिट भी जाएँ तो क्या उनकी याद कभी मिट पाएगी। यादों को मिटा देना क्या इतना ही आसान है? यादें तो मनुष्य की धरोहर हैं। और फिर एक स्त्री तो यादों के सहारे अपना सम्पूर्ण जीवन बिता लेती है। किन्तु मेरी यादें तो शरीर में सिहरन पैदा कर देती हैं। फिर भी उन यादों को कितनी बार जिया है मैंने। उस घटना को तो मैं स्वयं ही भुलाना नहीं चाहती। वह घटना तो मेरे जीवन का आधार ही बन गई है और उस याद को नासूर बनाकर पाल रखा है मैंने। वो तो दिन ही कुछ और थे। कालिदास के साहित्य की दीवानी थी मैं। मेघदूत और शाकुन्तल की तो एक-एक पंक्ति मुझे कण्ठस्थ थी। शाकुन्तल के बारे में सोच-सोच कर लजा जाती थी कई बार। होस्टल की मेरी सहेलियां भी तो शकुन्तले कह कर चिढ़ाया करती थीं। अब वो हँसी-खुशी के दिन कहाँ। उस दुर्घटना के बाद कॉलेज भी तो छूट ही गया था। बस किसी तरह बी.ए. पूरी कर ली थी। वह था भी तो बी.ए.का अन्तिम वर्ष ही। उस अन्तिम वर्ष की याद मेरी चिता तक मेरा साथ नहीं छोड़ेगी। कॉलेज के लड़के मुझसे कितना डरते थे। किसी में भी हिम्मत नहीं होती थी मुझसे ऑंख मिला कर बात करने की। एक ने हिम्मत की थी और एक अश्लील वाक्य मेरी ओर उछाल भी दिया था। बेचारे का दुर्भाग्य। उस समय हॉकी खेलकर आ रही थी और उसने यही भर तो कहा था, 'हाय! इन नाजुक हाथों से हॉकी का बोझ कैसे उठता होगा। हमें यह बोझ दे दो शकुन्तले!' कहने भर की देर थी और मेरी हॉकी उसके माथे पर पहुँच गई थी और वहाँ एक घाव छोड़ आई थी। कहते हैं ना कि स्त्री का आभूषण लज्जा होती है। किन्तु मेरा आभूषण तो मेरी हॉकी ही थी। कॉलेज के किसी भी लड़के में मुझे छेड़ने का साहस नहीं था। फिर शकुन्तले तो मुझे मेरी खास सहेलियाँ कहती थीं। इस मुए को किसने यह हक दे दिया था कि मुझे शकुन्तले कह कर पुकारे। यह नाम भी तो मुझे नाटक ने ही दिया था। मेरा असली नाम यह थोड़े ही था। नाम भी तो बदल जाते हैं। अब लोग मुझे मिसेज़ कोहली कहते हैं। पति अब भी सुलु कहते हैं। अधेड़ होने लगी हूँ। कभी खाली सुलु और कभी सुलु डार्लिंग। सुलक्षणा नाम इनको बहुत लम्बा-सा लगता है। कहते हैं, 'देखो सुलु, यह सुलक्षणा नाम कुछ ऐसा लगता है जैसे नाम लेना शुरू करो तो रात है और जब तक नाम खत्म हो तो सुबह हो जाती है। और मुझे तो रात के समय नाम लेने के अलावा भी कुछ करना होता है। सो, मैं तो अपना काम सुलु कह कर ही चला लूँगा। माँ तो तब भी मुन्नी ही कह कर बुलाती थी आर अब भी मुन्नी ही कहती है। उसे तो मेरी कोई भी बात समझ नहीं आती। वह बेचारी तो सारा जीवन एक ही बात कहती रही हैं, 'अब मुन्नी को कौन समझाए!' माँ को मुझ से यही शिकायत है कि मैंने कभी उनकी बात नहीं मानी, मनमानी करती हूँ। शिकायत तो मुझे भी है। विशेष रूप से अपने पति से। विवाह के समय उन्होंने मुझे एक वचन दिया था। किन्तु अपने व्यापार के चक्कर में वे अपने वचन को भूल गए थे। और यह भी भूल गए थे कि मेरा तो सारा जीवन ही उस वचन, उस दुर्घटना पर आधारित है। आधार जब डगमगा जाए तो कोई क्योंकर जीना चाहे। मैं भी यही सोचती हूँ कि अब इस जीवन का अन्त हो ही जाए तो मेरे लिए बेहतर होगा।...और सम्भवत: मेरे पति के लिए भी। क्योंकि अब मैं बीमार रहने लगी हूँ। पहले केवल मानसिक रूप से परेशान थी। अब तो शरीर भी रोगी हो गया है। जान चली जाएगी तो पति को भी इस रोगी शरीर से छुटकारा मिल जाएगा।... आखिर उनका क्या दोष है...वे क्यों, सारा जीवन, इस रोगी शरीर को सुलु या सुलु डार्लिंग, कहते रहें । मेरी बीमारी से उन्हें भी तो परेशानी होती होगी। परेशान तो मैं भी कम नहीं। खुद अपने बेटे गौरव को भी अपने पास नहीं रख पाती। उसकी उपस्थिति मुझे फिर उस दुर्घटना की याद दिला जाती है और मैं और बीमार हो जाती हूँ। गौरव के रहते मैं अपने पति से और खिन्न रहने लगती हूँ। क्रोध भी आता है कि यह इन्सान अपनी पत्नी के लिए शारीरिक सुख की सभी वस्तुएँ उपलब्ध कराने की चेष्टा कर रहा है, किन्तु जो काम मुझे असीम सुख दे सकता है, वह काम मेरा पति क्यों नहीं करता।...किन्तु वह दुर्घटना घटी कैसे? वो घाव मुझे लगा कैसे...मेरे सीधे सादे जीवन में वो सिलवटें कैसे पड़ गईं!...थक-सी गई हूँ। शायद नींद आ जाए! सचमुच यह नींद ही तो मेरी दुश्मन है। इतनी गहरी नींद भी किसी की होती है क्या! एक बार बिस्तर पर गिरी तो घण्टों सोई रहती थी। चाहे मेरे सिर पर बैठकर ढोल भी बजाता रहे, तो भी मेरी नींद नहीं खुलती थी। इसी नींद ने एक दिन मेरा सुख चैन लूट लिया था। और आज कोशिश के बावजूद भी नींद नहीं आती। उस दिन बहुत थक गई थी मैं। शाम को काी समय तक हॉकी का अभ्यास किया था। मेरी 'रूम पार्टनर' कविता उस दिन विशेष अवकाश लेकर अपने किसी सम्बन्धी के यहां गई थी। होस्टल में बत्ती चली गई थी। रोज़ ही तो बत्ती गायब रहती थी। फिर भी अच्छा था कि उस दिन ठण्डी हवा चल रही थी। शाम को ही रात का-सा आभास होने लगा था। मैंने मोमबत्ती जला ली थी। हवा के झोंकों के साथ मोमबत्ती जूझ रही थी। कब मोमबत्ती बुझी और कब मैं निद्रा देवी की गोद में समा गई मुझे पता ही नहीं चला। सपने भी बहुत देखती थी। उस रात भी एक मधुर सपने में खो गई थी। लगा कोई हाथ आहिस्ता-आहिस्ता मेरे बदन पर रेंग रहे हों। वह हाथ कभी मेरे उरोज़ों पर रुक जाता था तो कभी गुप्तांगों से खेलने लगता। शरीर में एक ज़ोरदार तनाव-सा उत्पन्न हो रहा था...एक आनन्दमयी अनुभूति-सी हो रही थी। स्वप्न भंग हुआ जब दो जलते हुए होंठों ने मेरे होठों को अपनी कैद में ले लिया। तब कहीं मालूम हुआ कि यह स्वप्न नहीं था। मैंने चिल्लाना चाहा था, किन्तु उसने अपने होंठों का दबाव और भी बढ़ा दिया।...मैंने स्वयं को उसकी ज़कड से छुड़ाना चाहा, पर हाथ-पाँव तो बँधे हुए थे...पहली बार अपनी नींद पर गुस्सा आया...उस अधम के शरीर के नीचे मेरा कमज़ोर शरीर छटपटा रहा था...किन्तु वह तो पूरी तैयारी के साथ आया था...मेरे मुँह से अपने होंठ हटाने से पहले ही अपनी हथेली मेरे मुँह पर रख दी और फिर एक कपड़ा मेरे मुँह में ठूँस दिया। मैं निसहाय अपना शील भंग होते महसूस कर रही थी। अन्धेरा इतना था कि कुछ भी सुझाई नहीं दे रहा था, दिखाई देने का तो प्रश्न ही नहीं था। सब कुछ पलभर में नष्ट-भ्रष्ट हो गया था। यह सब इतनी शीघ्रता से घटित हुआ कि मुझे कुछ भी सोचने या करने का अवसर नहीं मिला। काी समय तक यूँ ही निढाल पड़ी रही थी। बहुत यत्न करके अपनी रस्सियाँ खोल पाई थी...सिसक रही थी, रो रही थी। तन और मन दोनों बुरी तरह से घायल थे। इतने में बत्ती जल उठी। मेरे बिस्तर की सिलवटें, बल्ब की रौशनी में मेरे सर्वनाश की कहानी सुना रही थीं। बत्ती बन्द कर दी। किन्तु कब तक ऐसे ही बैठी रहती। एकाएक दिमाग़ में एक विचार कौंधा। फुर्ती से बत्ती फिर जलाई। खोजने लगी-सम्भवत: उस पापी की कोई निशानी जल्दी में छूट गई हो। पर कहीं कुछ नहीं था। अपने आप को समेटा। वार्डन के पास पहुँची। उसे अपने लुटने की बात बताई। उसे एकाएक विश्वास नहीं हुआ। किन्तु प्यार तो वह भी मुझे बहुत करती थीं। उसी क्षण वह मुझे लेकर प्रिंसीपल के पास पहुँची। प्रिंसीपल ने भी कमाल ही कर दिया था। सब कुछ सुनने के बाद बोली, 'सुलक्षणा, भूल जाओ तुम्हारे साथ कुछ भी हुआ है। हमारे समाज में जो भी लड़की विवाह से पहले कौमार्य खो बैठती है, उसकी ओर कोई ऑंख भी उठाकर नहीं देखता। अपनी प्रतिष्ठा के बारे में सोचो, अपने माँ-बाप के बारे में सोचो और फिर होस्टल और कॉलेज की भी तो बदनामी होगी ना!' यहाँ मैं लुटी-पिटी खड़ी थी और प्रिंसीपल को कॉलेज और होस्टल की बदनामी की चिन्ता हो रही थी। नारी होकर भी नारी की व्यथा को नहीं समझ पा रही थी वह। ऐसा क्यों हो जाता है? मनुष्य इतना निष्ठुर कैसे हो पााता है? क्या वह अपनी बेटी को यह सब कह पाती? पराए के दु:ख को समझना कितना कठिन होता है ना! ऐसे में हमारी वार्डन ने मेरा पूरा साथ दिया था। पुलिस में रिपोर्ट भी उसी ने ही लिखाई थी। पुलिस आई भी थी। तब तक पुलिस वालों के बारे में केवल सुना ही था। उनसे मिली तो अपनी प्रिंसीपल तो देवी समान लगने लगी थी। पुलिस अधिकारियों से मिलने के बाद पता चला कि निष्ठुरता की सीमाएँ कितनी विस्तृत हैं। भट्ठे अश्लील सवाल, हवस भरी निगाहें आज भी याद करती हूँ तो शरीर में सिहरन-सी दौड़ जाती है।

चार-चाँच दिन में ही टूट गई थी। अपने आप पर कितना भरोसा, कितना गर्व था मुझे। किन्तु सब कुछ अस्त व्यस्त हो गया था। सोचा, कुछ दिनों के लिए माँ के पास चली जाती हूँ। सम्भवत: उसकी ममता की छाँव मेरे घावों पर मरहम लगा सके। प्रिंसीपल ने एक बार फिर कहा था, 'अपने माँ-बाप को कुछ मत बताओ। इसे एक दु:स्वप्न की तरह भूल जाओ। समय सब कुछ भुला देता है। पढ़ाई में मन लगाने की चेष्टा करो। इसी में तुम्हारी भलाई है।' प्रिंसीपल की पहली बात ना मानने का परिणाम देख चुकी थी। उनसे बहस करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। उनकी बात मान ही ली। किन्तु क्या सहज हो पाना इतना ही सरल है? और फिर उन सब में तो बात फैल ही चुकी थी जो मेरे अपने नहीं थे। तो जो अपने हैं उनसे यह बात क्योंकर छुपाऊँ। यदि उन्हें किसी बाहर वाले से पता चला तो क्या होगा? सवाल तो बहुत से थे, किन्तु किसी एक सवाल का भी जवाब मेरे पास नहीं था। सामने केवल अन्धेरा था। सुरंग के दूसरी ओर रोशनी दिखाई पड़ जाए। किन्तु रोशनी तक पहुँचने के लिए घुटन भरे अन्धेरे की यात्रा भी तो मुझे ही करनी थी। अकेले! निपट अकेले! सभी चेहरे एक-एक करके उस अन्धेरे में गुम होते जा रहे थे-माँ, पिताजी, वार्डन, प्रिंसीपल, सहेलियाँ! अभी तक तो पुलिस के सवाल ही दिमाग पर छाए हुए थे। 'हाँ तो आप कैसे लेटी हुई थीं?...यानि कि आपको पता ही नहीं चला कि कोई आपके साथ कुछ कर रहा है?...कमाल है!...फिर भी, आपको किस स्टेज पर पता चला कि आपके साथ जो हो रहा है वह हो रहा है?...यानि कि आप उसका चेहरा भी नहीं देख पाईं...मेरा मतलब है वह तो आपके बहुत करीब रहा होगा ना?...आप कहना चाहती हैं कि फिर भी आप उसका चेहरा नहीं देख पाईं...अजीब बात है...। अच्छा, आपको उसके शरीर की गन्ध तो याद होगी...क्या इससे पहले ऐसी गन्ध वाले किसी पुरुष से आपका...' मैं रोने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकती थी। कई बार इन्सान के लिए रोना कठिन हो जाता है, किन्तु अधिकतर तो रोना रोकना अधिक कठिन हो जाता है। गर्मी, उमस! साँस लेना तक दूभर हो रहा है, इस उमस के मारे। इस उमस में भी एक ठण्डी हवा का झोंका-सा महसूस हुआ था। विजय! हाँ विजय! मेरे साथ नाटक में दुष्यंत का रोल कर चुका था। अधिकतर चुप ही रहता था। ना जाने रंगमंच पर अपने संवाद कैसे बोल पाता होगा। मेरा तो बहुत ही आदर करता था। मेरे नाम के साथ सदा जी लगा कर बात करता था। सुन्दर, सभ्य, शिष्ट इन्सान! "सुलक्षणा जी, कई दिनों से आपसे मिलने के विषय में सोच रहा था, किन्तु तय नहीं कर पा रहा था।' "...' "बात यह है कि मुझे बात घुमा-फिरा कर करने की आदत नहीं है। मैं आपको केवल इतना कहने आया हूँ कि मुझे अपना मित्र समझिए। इस दुर्घटना को भूल जाइए और जीवन की शुरुआत एक बार फिर दिल लगा कर कीजिए।' "विजय, क्या तुम समझते हो कि मुझे इस तरह बीमार बने रहना अधिक सुहाता है?...मैं लुट चुकी हूँ विजय...टूट चुकी हूँ।...' "सुलक्षणा जी, ज़िन्दगी में इतनी जल्दी हार नहीं मान लेनी चाहिए। हिम्मत रखिए हम आपके साथ हैं। अगर मैं आपके काम आ सह्लाूंँ तो मुझे काी खुशी होगी।'-वह कुछ देर चुप रहा, 'मेरा मतलब है अगर आपको एतराज ना हो तो मैं आपसे शादी करने को तैयार हूँ। हाँ, आपके माता-पिता नहीं आए, उन्हें इस हादसे के बारे में मालूम हो चका है या नहीं?'...वह कुछ क्षण रुका। मेरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा था शायद-'कोई जल्दी नहीं है अप अच्छी तरह सोच लें मैं कल फिर आउँगा।'

और मैं उसे जाते हुए देखती रही। क्षण भर के लिए समझ नहीं पाई कि यह एक इन्सान है या कोई देवता जो इस हालात में भी मुझे स्वीकार करने को तैयार है। कहाँ एक और पुलिस, प्रिंसीपल और अन्य सहपाठी थे जिनके लिए मैं एक हास्य का विषय बन चुकी थी तो दूसरी ओर विजय! किस सरलता और सभ्यता से अपनी बात कह गया था। आज तक तो किसी में भी यह साहस नहीं हुआ था। विजय के नयनों की मूक भाषा सदा ही कुछ कहती-सी प्रतीत होती थी, केवल एक दुर्घटना मुझे इतना क्षीण बना गई थी। किन्तु मुझे विजय की बात का बुरा तो नहीं ही लगा था। सचमुच मुझे उस वक्त किसी ऐसे ही सहारे की आवश्यकता थी जो मुझे उठाकर खड़ा कर सके और मैं फिर से चलने लायक हो सकूँ और शायद कभी उस दरिन्दे से अपने ऊपर हुए जुल्म का बदला ले सकूँ । यही सोचकर, विजय को दिमाग़ में रखकर, भविष्य का ताना-बाना बुनने लगी थी। कहीं यह मुझ पर दया तो नहीं कर रहा? नहीं मैं किसी की दया का पात्र बन कर अपना बाकी जीवन नहीं बिता देना चाहती। यह सचमुच मुझे प्यार करता है या मेरी विवशता का लाभ उठाना चाह रहा है? किन्तु जो कुछ कह रहा है, वो सब है तो मेरी भलाई के लिए ही ना!... आज यदि माँ यहाँ होती, तो कम-से-कम उनके कन्धे पर सिर रखकर रो लेती।

हॉकी खेलना भी छूट गया था। लगता जैसे हर खिलाड़ी मेरा मज़ाक उड़ा रहा हो। बॉल कभी मेरी हॉकी पर आती ही नहीं थी-जैसे हॉकी को मुँह चिढ़ाकर दूर से ही निकल जाती थी। स्टेज के बारे में तो सोच ही नहीं पाई थी। विजय भी तो मुझे नाटक के कारण ही जानता था। उसने नाटक के दुष्यंत की तरह अपनी शकुन्तला को नहीं भुलाया था। समय ने ही शकुन्तला को उपहास का पात्र बना दिया था। यह मैं क्या सोचने लगी थी। विजय तो नाटक में ही दुष्यंत बना था। वह शकुन्तला का दुष्यंत तो हो सकता था-पर मेरा दुष्यंत! क्या विजय मेरा दुष्यंत हो सकता था। कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। अन्तत: माँ के पास जाने का इरादा कर ही लिया। एकाएक ज़ोर की उबकाई हुई। चक्कर आ गया। वहीं र्श पर बैठ कई। कविता ने मेरी हालत देखी तो घबरा-सी गई। वार्डन को बुला लाई। डॉक्टर भी आ गई। नाड़ी की परीक्षा करने लगी। डॉक्टर और वार्डन थोड़ी देर के लिए कमरे से बाहर चले गए। थोड़े ही समय बाद दोनों कमरे में वापिस आए। वार्डन ने बड़े ममता भरे अन्दाज़ में मेरे सिर पर हाथ फेरा, 'सब ठीक हो जाएगा, सुलक्षणा। तुम घबराना नहीं।...पर आपरेशन से पहले तुम्हारे मम्मी-डैडी को बुलवाना ही पड़ेगा।' "आपरेशन!...कैसा आपरेशन..! मुझे हुआ क्या है?' "सुलक्षणा...तुम...माँ बनने वाली हो। तुम्हारे... मेरी ऑंखों के सामने काला भयानक अन्धेरा ताण्डव करने लगा था। वार्डन की आगे की बात तो सुन भी नहीं पाई थी। आत्महत्या ही एक रास्ता सुझाई दे रहा था। क्या अब भी विजय मुझे अपनाने की बात करेगा। अब तक तो मेरे तन पर केवल एक घाव ही था। किन्तु क्या विजय एक नासूर के साथ अपना बाकी जीवन व्यतीत कर पाएगा। वार्डन अब भी मेरे सिर पर हाथ फेर रही थी। फिर शाम हो आई! मेरे जीवन की सन्ध्या तो काली रात में बदलती जा रही थी। सुबह, दोपहर, शाम, रात में मुझे कोई अन्तर प्रतीत नहीं हो रहा था। मन में अजीब से ताने-बाने बुने जा रहे थे। यह होगा तो क्या होगा-और वो होगा तो क्या होगा। यदि यह होता तो क्या होता और यदि वो होता तो क्या होता। किन्तु होना तो वही था जो हो रहा था। बहुत से विकल्पों के बारे में सोचा। अन्तत: यही निर्णय किया कि कोई भी निर्णय लेने से पहले एक बार केवल एक बार विजय से अवश्य सलाह करूँगी। केवल वही तो एक इन्सान है जो बिना किसी मतलब के मेरा भला सोच रहा था। अगली ही सुबह विजय आ पहुँचा था। वार्डन भी उसके साथ ही थी, 'देखो तो सुलक्षणा, कौन आया है!' अपने पसन्दीदा नीले कपड़ों में विजय मेरे सामने खड़ा था। मैं मन-ही-मन शब्द खोज रही थी कि किस तरह विजय को स्थिति से अवगत कराऊँ। विजय ने धीरे से मेरे कन्धे पर हाथ रखा। वार्डन की उपस्थिति भी उसे ऐसा करने से नहीं रोक पाई। 'सुलु, वार्डन दीदी ने मुझे सब कछ बता दिया है।' वार्डन ने मुझे एक बहुत कठिन स्थिति से उबार लिया था। अपने लुटने की बात मैं स्वयं अपने मुँह से कैसे विजय को बता पाती। मैं ऑंखें ऊपर नहीं कर पा रही थी। पाँव के अंगूठे से जमीन को कु रेदती रही थी बस। "सुलु, जो होना था वह तो हो चुका। उसका तो अब कोई इलाज नहीं है। किन्तु जो बच्चा तुम्हारे पेट में पल रहा है उसका क्या दोष है। फिर भला उसकी बलि क्यों चढ़ाई जाए।...मैं तुम्हें तुम्हारे इस होने वाले बच्चे सहित स्वीकार करने को तैयार हूँ। तुमसे केवल एक ही प्रार्थना है। अपने आपको दोषी मानना छोड़ दो, दूसरे मुझे देवता मानना बन्द कर दो और इस दुर्घटना को अपने 'सिस्टम' में से पूरी तरह से निकालने की कोशिश करो। जो तुम्हारे बस में नहीं, उसके बारे में दिमाग़ खराब करने का क्या लाभ!' मैं एकटक उस इन्सान को देखे जा रही थी। ऐसे भी इन्सान होते हैं! किस जन्म का रिश्ता है मेरा इस इन्सान से! क्या ऐसे लोग इस युग में भी जन्म लेते हैं?...नारी स्वतन्त्रता की एकनिष्ठ सिपाही होते हुए भी मेरा मन चाह रहा था कि सामने खड़े इन्सान के चरण छू लूँ। पर ना जाने मुझे एकाएक क्या जो गया। मुझे लगा जैसे मेरा अपना स्वर मेरा ना होकर किराए का स्वर है, 'विजय जी, (आज पहली बार मैंने विजय के नाम के साथ जी का प्रयोग किया था) मैं शर्तें रखने की स्थिति में तो नहीं हूँ। किन्तु आपसे एक वचन चाहती हूँ। विजय प्रश्नवाचक दृष्टि से मुझे देखते रहे। "मैं आपसे एक वचन चाहती हूँ। केवल एक वचन, कि आप जीवन भर, मेरे साथ हुई दुर्घटना को भूलेंगे नहीं। और मेरी खातिर, केवल मेरी खातिर, उस इन्सान...नहीं..उस जानवर को खोज निकालेंगे जो मेरी इस हालत के लिए उत्तरदायी है। ताकि मैं उसका न्याय कर सकँ ।' विजय कुछ नहीं बोले। केवल मुझे अपने गले से लगाकर मेरी पीठ पर हाथ फेरते रहे, 'सब ठीक हो जाएगा सुलु, सब ठीक हो जाएगा।' अब ठीक होने को रह ही क्या गया था। फिर भी उनका मौन आश्वासन मुझे खासी शक्ति प्रदान कर रहा था कि अन्तत: यह इन्सान मेरे उस शत्रु को खोज ही निकालेगा जिसने मेरे जीवन की नींव ही हिला दी थी।

नए जीवन की नींव पड़ गई थी। मेरे माता-पिता मेरे विवाह के निर्णय से हतप्रभ रह गए थे। विजय तो माता-पिता की इकलौती संतान थे। उनकी तो सारी आशाएँ ही धूल-धूसरित हो गई थीं। वे एक गर्भवती लड़की को अपनी बहू मानने को बिल्कुल तैयार नहीं थे। किन्तु विजय में गजब का हौसला था। किसी की परवाह नहीं की। बस मुझे अपनी पत्नी बना लिया। सारा संसार देखता रहा। कुछ एक लड़कियाँ तोर् ईष्या भी कर रही थीं। बहुत-सी लड़कियाँ विजय को देखकर आहें भरा करती थीं। दुष्यंत के सपने देख कर आहें भरा करती थीं। सब की सब आश्चर्यचकित थीं, 'यह विजय देखकर भी मक्खी कैसे निगल गया!' कुछ लोग विजय की महानता की तारीफें कर रहे थे। उनके लिए एकाएक विजय सचमुच का हीरो बन गया था। और फिर काम भी तो उसने ऐसा ही किया था। मैं तो उनके एहसान तले दब ही गई थी। उनके प्यार को केवल प्यार तो मान ही नहीं पा रही थी। यकीन ही नहीं होता था कि विजय भी केवल एक इन्सान ही है। हमारी सुहागरात भी क्या विचित्र सी सुहागरात थी। ना दुल्हन का घँघट, ना शरमाना, ना छेड़छाड़। एक विचित्र सी चुप्पी छाई हुई थी सारे कमरे में। विजय को देवता मान चुकी थी फिर भी ना जाने किन आशंकाओं में घिरी बैठी थी। विजय मेरा सिर अपनी गोद में लेकर मेरे बालों को सहलाते रहे। कब मैं सो गई कुछ मालूम ही नहीं हुआ। सुबह नींद भी खुली तो विजय के जगाने पर। मेरे सामने ट्रे में चाय लिए खड़े थे। शर्म से गड़ गई थी मैं। अपने आप को रोक नहीं पाई। जैसे गिर ही गई थी उनके कदमों पर। बहुत प्यार से मुझे उठाया। गाल पर हलकी सी चपत लगाई। सिर पर प्यार किया, 'आजकल अपना ख्याल रखा करो। एकदम झटके से उठना बैठना तुम्हारे लिए ठीक नहीं। फिर हमारा भी तो ख्याल रखा करो। हमें भी तो आपसे बेटा चाहिए ना!' "विजय इतने अच्छे क्यों हैं?' इस प्रश्न का कोई भी उत्तर मैं नहीं खोज पाती थी। मेरे कारण अपने माता-पिता को भी त्याग दिया था। उनकी माँ तो एक-दो बार मिलने भी आ गईं किन्तु मेरे ससुर जी ने तो जैसे हमसे नाता तोड़ ही दिया था। विजय अकेले ही हर समय मेरा ध्यान रखते। और फिर एक नर्स भी घर पर ही रखवा ली थी। घर का काम नौकर करते और मेरी देखभाल नर्स व स्वयं विजय। मैं केवल बैठे-बैठे मुटिया रही थी। फिर गौरव का जन्म हुआ। विजय तो पहले ही उसका नामकरण कर चुके थे। कई बार कह भी देते, 'सुलु, मेरे लिए इस बच्चे का जन्म बहुत गौरव की बात है। इसका नाम हम गौरव ही रखेंगे। हमें और बच्चा तो चाहिए ही नहीं। और ना ही हमारा कोई और बच्चा होगा भी। कहीं गौरव के प्रति हमारे प्यार में कोई कमी ना आ जाए।' विजय के चेहरे पर गौरव के जन्म की प्रसन्नता देख-देख कर मैं अपराध बोध से ग्रस्त हो जाती थी। सोचने लगती यदि गौरव स्वयं विजय का पुत्र होता तो विजय उसके लिए क्या-क्या करते? किन्तु क्या कोई भी पिता अपना पुत्र उत्पन्न होने पर इससे अधिक कुछ भी कर सकता है जो विजय ने गौरव के जन्म पर किया है। ढोल, नगाड़े, फंक्शन, मिठाइयाँ, हिज़डे, दान, बा्रह्मणों को भोजन, ना जाने क्या-क्या। गौरव थोड़ा बड़ा हो गया तो उसका शरीर भी भरने लगा। छोटा-सा गोल-मटोल बोनी बेबी दिखाई देने लगा। मेरी तरह गोरा रंग और बड़ी-बड़ी ऑंखें। किन्तु उसका माथा काी चौड़ा है और नाक एकदम तीखा। मेरी नाक को लेकर तो विजय भी कई बार मज़ाक कर बैठते हैं, 'सड़क का रोलर हमारी मेम साहिब के नाक पर फिर गया। पता नहीं बेचारी साँस कैसे लेती होंगी।' चुप रह जाती हँ। कई बार शीशे में देखती हूँ। मन को सान्त्वना देती हूँ। आखिर इतनी भी तो चपटी नाक नहीं है मेरी। दोस्त सम्बन्धी आते और आकर विजय के दिल पर घावों के निशान छोड़ जाते, 'अरे सारे का सारा विजय पर ही गया है। नाक देखो, माथा देखो और होंठ सब के सब बाप पर ही गए हैं। विजय है दूसरा विजय!' विजय नज़र चुराकर मेरी ओर देखते तो दिल पर ना जाने क्या गुज़रती थी। मन-ही-मन सोचती कि यह रिश्तेदार ना ही आया करें तो अच्छा है। समय बीतते भी तो समय नहीं लगता है। विजय अपने व्यापार में व्यस्त थे और मैं गौरव में। हर बार गौरव को देखती तो एक ओर तो उस छोटे से बच्चे पर प्यार उमड़ता तो दूसरी ओर मेरे मन का घाव फिर से हरा हो जाता। विजय तो जैसे अपने वचन को भूल ही गए थे। ज्यों-ज्यों गौरव बड़ा हो रहा था, उसे देखकर मैं चिड़चिड़ी होती जा रही थी। उसका अस्तित्व मुझे उस दुर्घटना को भूलने नहीं दे रहा था। अब गौरव मुझे अपना पुत्र कम और अपने अपमान की निशानी अधिक लगने लगा था। विजय में भी तो गज़ब की सहनशक्ति है। उन्हें मेरा रूखापन, चिड़चिड़ापन, गुस्सैल व्यवहार-कुछ भी तो क्रोध नहीं दिख पाते थे। हर बार उनका एक ही जवाब रहा, 'सुलु, धीरे-धीरे तुम भी यह सब भूल जाओगी। अब तो तुम्हारा एक पुत्र भी है। उसकी देखभाल करो, अपने पति को प्यार करो।...अपने शत्रु को क्षमा कर देने में ही महानता है। अपने घर को संभालो।' मैं उन्हें कैसे समझाती कि मैं उनके समान महान नहीं हो सकती। मैं एक हाड़-माँस की बनी साधारण स्त्री हूँ। मुझे जब चोट लगती है तो दर्द होता ही है। मुझे देवी बनना नहीं, इन्सान बने रहना ही अधिक रुचिकर लगता है।...और फिर गौरव की देखभाल ही तो सबसे कठिन और दुष्कर कार्य लग रहा था। उसे देखते ही जैसे कलेजे में एक टीस सी उठती थी। मेरे साथ अन्याय हुआ था और मैं न्याय चाहती थी। कुछ अधिक भी तो नहीं चाहती थी। गौरव स्कूल जाने योग्य हुआ तो मैं अड़ गई। गौरव को बोर्डिंग स्कूल ही भेजूँगी। जिना मुझसे दूर रहेगा उतनी ही मैं सहज हो पाऊँगी। उसकी उपस्थिति मुझे पागल किए जाती थी। विजय मेरी ओर अविश्वसनीय निगाहों से देखते रहे, 'सुलु, कोई भी व्यक्ति यह मानने को तैयार नहीं होगा कि तुम गौरव की माँ हो। अरे उस छोटे से बच्चे को किस दोष का दण्ड दे रही हो। वह बेचारा हमारे बिना कैसे रह पाएगा!' किन्तु मैं तो तय कर चुकी थी और फिर लगा, इस दु:ख को सहन ना कर पाने की स्थिति में सम्भवत: विजय मेरा काम कर ही दें। भूल गई थी कि गौरव पुत्र तो मेरा ही है विजय तो बस...। कहीं अपने अपराध की सज़ा मैं अनजाने में विजय को देकर सुकून तो नहीं पा रही थी। आखिर विजय भी तो पुरुष ही हैं ना!

गौरव का दसवाँ जन्मदिन आ पहुँचा। मेरी सूरत देखकर कोई भी मुझे क्षय रोगी समझ रकता था। इतने वर्षों से दिल पर एक बोझ लिए जी रही थी। हताश होकर मर जाना ही अब अपनी नियति लगने लगी थी। अब तो विजय से भी इस विषय पर बात करनी छोड़ दी थी। इस विषय पर तो क्या अब तो उनसे वैसे ही बहुत कम बात होती थी। एक ही छत के नीचे रहते हुए भी अजनबी से होते जा रहे थे। किन्तु विजय ने ना तो मुझे कभी डाँटा ना ही शिकायत की। मुझे देखकर परेशान अवश्य रहते थे। गौरव का जन्म दिन गर्मी की छुट्टियों में ही आता है। वह भी होस्टल से आया हुआ था। जन्म दिन को अभी दो दिन बाकी थे। गौरव बड़े चाव से अपने पापा को अपनी रमाइशें बता रहा था। और मैं निर्लिप्त-सी अलग एक कोने में बैठी किसी उपन्यास के पन्ने उलट-पुलट रही थी। एकाएक विजय उठकर मेरे पास आ गए थे। उनसे शायद वातावरण का बोझिलपन सहन नहीं हो पा रहा था। मेरे से भी यह सब कहाँ सहन होता है। किन्तु अब तो यह सब जीवन का एक अंग ही बन गया है। गौरव उठ कर बाहर चला गया। मैं विजय की ओर देखती रही। "देखो सुलु, मनुष्य को चाहत तो बहुत-सी वस्तुओं की होती है। किन्तु हर मनुष्य हर वस्तु पा जाए, ऐसा तो नहीं होता है ना! मैं कितने वर्षों से तुम्हें यूँ घुलते हुए देख रहा हूँ। अब तो हद हो चुकी। परसों तुम्हारे बेटे का जन्म दिन है और तुम्हें इसका कोई शौक ही नहीं। अब तो मेरा भी दम घुटने लगा है। जीवन का इस तरह आगे चल पाना अब सम्भव नहीं लगता।...आज तक मैंने तुम्हें कुछ नहीं कहा है, केवल तुम्हें सुना ही है। आज मैं कहूँगा और तुम केवल सुनोगी। मैं उस इन्सान को जानता हूँ जिसने तुम्हारे साथ बलात्कार किया था।' मैं विजय की ओर एकटक देख रही थी। "मैं उसे केवल जानता ही नहीं पहचानता भी हूँ। क्योंकि...क्योंकि...वह इन्सान...मैं स्वयं हूँ।...हाँ, मैंने ही उस रात अन्धेरे और तुम्हारी नींद का लाभ उठा कर तुम्हारा शील भंग किया था।...मैं तुम्हें बहुत चाहने लगा था। तुम्हें कह पाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। किन्तु तुम्हें पा लेने की लालसा बलवती होती जा रही थी। मुझे लगा यदि तुम्हारा आत्मबल टूट जाए तो तुम अवश्य ही मुझे स्वीकार कर लोगी। और मैंने वही किया और तुम्हें पा लिया। अब तो तुम्हें अपने अपराधी का ज्ञान हो गया। अब तुम्हें जो भी सज़ा मुझे देनी हो दे दो। किन्तु अपना और मेरा जीवन यूँ ना बरबाद करो।' विजय एक ही साँस में सब कुछ बोलते जा रहे थे और मैं उन्हें देखते जा रही थी। वे बोलते-बोलते हाँफने से लगे थे। मुझ पर अपनी बात की कोई प्रतिक्रिया ना देखकर वे और भी परेशान लगने लगे थे। और में उन्हें चुप देखती जा रही थी। उन्हें उलझन होने लगी थी। मेरी चुप्पी उन्हें दुविधा में डाले हुए थी, 'अब कुछ कहो भी, या यूँ ही मुझे परेशान किए जाओगी?' "आप तो मेरे कुछ कहने पर भी परेशान हो जाते हैं और कुछ ना कहने पर भी।...आप जो बात मुझे आज बता रहे हैं, वह मुझे कई वर्षों से मालूम है।...कभी सोचा, क्यों मैं गौरव की उपस्थिति बरदाश्त नहीं कर पाती थी। क्यों उसके घर आते ही मैं बीमार हो जाती थी। क्योंकि उसकी सूरत हू ब हू आप से मिलती है। मेरी बीमारी का कारण अब केवल वह दुर्घटना नहीं थी, मेरी बीमारी का सबसे बड़ा कारण आप स्वयं हैं। मैं तो यह सोच-सोच कर घुलती जा रही हूँ कि मैं उस व्यक्ति की पत्नी हूँ जिसमें अपना गुनाह कबूल करने की हिम्मत नहीं।...जब वह कुकृत्य करते हुए आप नहीं डरे तो इतने वर्षों अपनी पत्नी को क्यों अन्धेरे में रखा? आप तो मेरी दो मिनट की चुप्पी नहीं सह पा रहे, मैंने तो आपकी चुप्पी को वर्षों तक सहा है।' विजय अवाक् मेरी ओर देखे जा रहे थे। उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं हुआ कि मैं सच बोल रही हूँ। और मैं आज तक यह तय नहीं कर पा रही हूँ कि क्या मैंने अपने पति को सचमुच क्षमा कर दिया है।