सिलसिला बनाए रखने की जिद / जयप्रकाश चौकसे

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सिलसिला बनाए रखने की जिद
प्रकाशन तिथि :12 अक्तूबर 2017


इस कॉलम के लिखे जाने का यह 23वां वर्ष प्रारंभ हुआ है। यह अवसर पाठकों और प्रकाशक को शुक्रिया अदा करने का है। इसे लिखते हुए मुझे स्वयं को समझने का अवसर मिला है। पहले कॉलम के लेख का शीर्षक था 'इक बंगला टूटे न्यारा' जो दिलीप व सायरा के बंगले का प्रसंग था। हाल में अदालत से फैसला आया कि ठेकेदार ने अनुबंध की शर्तों का पालन नहीं किया और उनकी दी गई राशि लौटाकर दिलीप व सायरा अपना स्वामित्व अक्षुण्ण रख सकते हैं। गुजश्ता वर्षों में मुंबई के अनेक बंगले टूटे हैं और उनके स्थान पर बहुमंजिला इमारतें बनी हैं। तीन दिशाओं से समुद्र से घिरे शहर का विकास आकाश की ओर ही हो रहा है। सड़कों पर बेतहाशा भागते मनुष्यों की लहरें मचलती रहती हैं। पूनम की रात ज्वार आता है परंतु लावा उगलते-निगलते हुए लोग हर दिन और हमेशा जल्दी में होते हैं मानो हवा में लहराता कोई कोड़ा है जो दिखाई नहीं देता परंतु पीठ पर बरसने का भय बना रहता है।

एक बार हाजी अली से चेम्बुर जाने के लिए टैक्सी ली और उसे तेज चलाने का आग्रह किया। उम्रदराज ड्राइवर बुदबुदाया कि यहां सबको जल्दी करते देखा है परंतु किसी को 'पहुंचते' हुए नहीं देखा। यह शहर ड्राइवर को भी दार्शनिक बना देता है। चौपाटी पर भेल बेचने वाले के मुंह से कबीर वाणी सुनी जा सकती है। 'यह शहर बहुत पुराना है, हर सांस में एक कहानी, हर सांस में एक अफसाना, यह बस्ती दिल की बस्ती है, कुछ दर्द है, कुछ रुसवाई है, यह कितनी बार उजाड़ी कितनी बार बसाई है, यह जिस्म है कच्ची मिट्‌टी का, भर जाये तो रिसने लगता है, बाहों में कोई थामे तो आगोश में गिरने लगता है, दिल में बसकर देखो तो, यह शहर बहुत पुराना है'। यह गुलजार का 'माया मेम साहब' के लिए लिखा हुआ गीत है।

उसको छुट्‌टी न मिली, जिसको सबक याद हुआ' की तर्ज पर पढ़ना-पढ़ाना जारी है। विदिशा का एक पाठक गाय का घी लेकर आया कि तंदुरुस्ती कायम रहे। उसने यह भी कहा कि पूरा लेख उसे समझ नहीं आता परंतु लगता है कि सही बात है गोयाकि समझने से अधिक जरूरी है महसूस करना। संवेदना को मांजते रहना दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा है। कविता बांचते रहने से यह काम किया जा सकता है। प्राय: हम एक ही उपन्यास को बार-बार नहीं पढ़ते परंतु कविताएं बार-बार पढ़ी जाती हैं। प्राय: निदा फाज़ली, चंद्रकांत देवताले, कुमार अंबुज, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, दुष्यंत कुमार इत्यादि कवियों को उद्‌धृत किया जाता है जिसका अर्थ यह नहीं कि अन्य कवि सार्थक नहीं लिख रहे हैं परंतु जो जबानी याद है, वही उद्‌धृत किया जाता है। प्रतिदिन लिखना आपको इजाजत नहीं देता कि आप अपनी किताबों के संग्रह को बार-बार टटोलें। इसलिए कई बार वजन और काफिया गलत उद्‌धृत हो जाता है और पाठक तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं। आम आदमी बहुत सजग है और यही बात ज़िंदगी में यकीन को मजबूत करती है। अवाम को कमतर आंकने की चूक प्राय: हुक्मरानों से हो जाती है। यही चूक लेखकों से भी हो जाती है। आम आदमी जीवन नामक महाकाव्य का नायक है। यह बात अलग है कि आम आदमी के सामूहिक अवचेतन में भी घुसपैठ की जा सकती है और 'मरम्मत के लिए रास्ता बंद है' की तरह सूचना पट्‌ट भी लगाया जा सकता है। अवचेतन में घुसपैठ पर अमेरिका में एक फिल्म भी बन चुकी है। 'प्रेस्टीज' नामक फिल्म में अपने प्रतिद्वंद्वी के अवचेतन में घुसपैठ करके उससे ही गलत व्यावसायिक निर्णय कराए जाने का विवरण है। यह क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म है।

इस समय स्वतंत्र विचार प्रक्रिया निशाने पर है। उनकी ज़िंद है कि हम सोचना बंद कर दें तो सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। एक सार्वजनिक गफलत रची जा रही है। शराबनोशी के पक्ष में एक विज्ञापन जारी हुआ था कि नशे से नींद आ जाती है और स्वप्न में हम कोई अपराध नहीं करते, अत: आइये जमकर पियें और सो जायें तथा यही प्रक्रिया स्वर्ग का रास्ता भी तैयार कर देती है। विज्ञान कहता है कि शराब नैराश्य को जन्म देती है, जबकि लोकप्रिय मान्यता है कि शराब से जोश पैदा होता है। सारे प्रहार चेतना पर किए जाते हैं।

कॉलम लेखन के समय पाठक मौजूद होता है, भले ही वह अदृश्य हो। पाठक आप पर निगरानी बनाए रखता है। शांतारामजी की फिल्म थी 'दो आंखें बारह हाथ'। यहां आप पर अनगिनत निगाहें हमेशा निगरानी रखे होती हैं कि पाठक का मनोरंजन करते हुए कुछ जानकारियां उसे दें परतु असल काम है स्वतंत्र विचार प्रक्रिया को मांजते रहना। शब्दों के ठीकरों से दिमाग के बरतन को लगातार घिसते रहना। मेरा इन पंक्तियों में विश्वास है, बकौल दुष्यंत कुमार 'उनकी यह ज़िंद है कि कुछ हो नहीं सकता मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए'।