सिले हुए ओंठ / जयनन्दन

Gadya Kosh से
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वेसेल में १६०० डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम पर पिघला हुआ (मोल्टेन) इस्पात था, जिसे प्लैटफॉर्म के नीचे स्टील ट्रांस्फर कार पर रखे लैडेल (बाल्टी) में टैपिंग (ढालना) किया जा रहा था। ठीक इसी वक्त ओवरहेड क्रेन के ऊपर से कोई वर्कर ज्वालामुखी से भी तप्त लैडेल में धम्म से गिर पड़ा। कौन था वह अभागा? पूरे शॉप में अफरा-तफरी मच गई। विभाग के काफी लोग जुट आए....लेकिन कोई कुछ नहीं कर सकता था, चूँकि सभी जानते थे कि वह आदमी गिरते ही ठोस से द्रव में बदलना शुरू हो गया होगा। उस बाल्टी से छिटककर एक बूँद भी अगर जिस्म पर पड़ जाए तो गोली लगने से भी बुरा घाव बन जाता है। यहाँ तो भरे लैडेल में ही वह बदनसीब गिर पड़ा। डिविजनल मैनेजर (विभाग प्रमुख) सहित इस स्टील मेकिंग विभाग एल डी-१ शॉप के सारे अधिकारी इकट्ठे हो गए। उनमें खड़े-खड़े तुरंत मँत्रणा हुई और एक निश्चय के तहत सभी वर्करों से कहा गया कि वे इसी वक्त कॉन्फ्रेंस रूम में उपस्थित हों, वहाँ हाजिरी ली जाएगी।

एक शिफ्ट के लगभग सौ आदमी की भीड़ में सभी लोग अपने-अपने नजदीकी आदमी को ढूँढ़ने में लगे थे। इस भीड़ में सीनियर मेकेनिक तरुण भी अब तक शामिल हो गया और वह अपने इलेक्ट्रिशियन दोस्त संदीप की टोह लेने लगा। संदीप उसे हठात् कहीं नजर नहीं आया, फिर भी उसे यह खयाल में भी लाना अच्छा नहीं लगा कि ऐसा दुर्भाग्य उसके दोस्त का हो सकता है।

मौके पर पहले से मौजूद कई वर्करों ने देखा कि महज एक क्षण के लिए लैडेल में जरा-सी तड़फड़ाहट हुई और सब कुछ शांत हो गया। जीवन और मृत्यु के बीच सचमुच कितना कम फासला है और जीवन को बचाने में इस शरीर का कवच कितना क्षणभंगुर है!

मातम, मायूसी और असमंजस में डूबे लोग कॉन्फ्रेंस रूम पहुँचे। अब तक शॉप के कोने-कोने से 'ए` शिफ्ट के पूरे लोग आ चुके थे। तरुण की निगाहें लगातार संदीप को ढूँढ रही थीं, लेकिन वह कहीं दिख नहीं रहा था। वहाँ अटेन्डेन्स की कम्प्यूटर शीट मँगाई गई और उसके अनुसार एक-एक आदमी की मौजूदगी पर टिक-मार्क लगाया गया।

डी एम को यह शक था कि अवकाश-ग्रहण उम्र के करीब पहुँचे किसी बूढ़े कर्मचारी ने जान-बूझकर अपनी मौत मोल ली होगी। चूँकि कारखाने के भीतर सांघातिक (फेटल) दुर्घटना की अवस्था में मरे कर्मचारी के किसी वारिस को सहानुभूति आधार पर तत्काल नौकरी देने का प्रावधान अब भी समाप्त करना संभव नहीं हो पाया था। पहले आम कर्मचारियों को पच्चीस साल सेवा देने के बाद अपने एक बेटे या दामाद के लिए नौकरी पाने की सुविधा बहाल थी, जिसे अब कंपनियों में वैश्विक प्रतिस्पर्धा शुरू होने के बाद खत्म कर दिया गया था। चूँकि अब पुरानी तकनीक पर आधारित ज्यादा लागत पर कम गुणवत्ता के माल उत्पादित करनेवाले शॉप बंद कर दिए गए थे और उनमें काम करनेवाले कर्मचारी वालिंटियरली रिटायर्ड करा दिए गए थे।

डी एम की आशंका से अवगत होकर तरुण में एक बेचैनी समा गई। ज़माने का यह कितना निर्लज्ज, विद्रूप और भयावह दौर था कि अपनी संतान के अनिश्चित भविष्य को एक अदद नौकरी से नवाज़े जाने के लिए अपनी जान तक देनी पड़ जाए।

तरुण का अंत:करण ढेर सारी आकुलताओं से भर उठा। हाजिरी के बाद जो परिणाम सामने आया, उससे डी एम का संशय तो गलत साबित हुआ, लेकिन तरुण का संशय एक हृदयद्रावक सच में बदल गया। लैडेल में गिरनेवाला वर्कर संदीप ही था जिसे उसकी आँखें शुरू से ही नदारद पा रही थीं। संदीप बूढ़ा नहीं बल्कि छब्बीस-अट्ठाईस वर्ष का हृष्ट-पुष्ट नौजवान था। उसने आत्महत्या नहीं की थी बल्कि ओवरहेड क्रेन की कोई इलेक्ट्रिकल गड़बड़ी ठीक करने के लिए फोरमैन ने उसे ऊपर भेजा था और वहाँ से वह काम करते हुए गिर पड़ा। फर्श पर गिरा होता, फिर भी वह मर तो जाता ही, लेकिन तब उसका क्षत-विक्षत पार्थिव शरीर रह जाता संस्कार के लिए....मौत की पुष्टि के लिए।

तरुण की आत्मा एकदम बिलख उठी। आज ही शाम को उसे बहन का तिलक चढ़ाने जाना था। तरुण से भी उसने साथ चलने के लिए कह रखा था। सुबह दोनों ने साथ ही कम्प्यूटर में हाजिरी के लिए अपने-अपने कार्ड पंच किए थे।

देह जलने की एक तीब्र गंध पूरे शॉप में फैल गई। कॉन्फ्रेंस हॉल में सबने यह गंध महसूस की और भीतर ही भीतर सभी घुटकर रह गए। लग रहा था जैसे वे किसी श्मशान में चिता के पास बैठे हों। तरुण के भीतर इस गंध ने एक हाहाकार जैसा मचा दिया। लगा वह फफक कर रो पड़ेगा। उसकी आँखें पसीज गईं।

डी एम ने सबको संबोधित किया, “दोस्तो, संदीप एक मेहनती और काफी अनुभवी इलेक्ट्रिशियन था। इस सदमे से मुझे गहरा धक्का पहुँचा है। मैंने तो सोचा था कि कोई रिटायरिंग एज वर्कर जान-बूझकर मरा है। संदीप जैसा डायनेमिक और स्मार्ट लड़के के बारे में तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता था। लेकिन होनी पर अख्तियार ही किसका है! हमें अब एक बड़ी चुनौती का सामना करना है।”

डी एम ने कुछ देर के लिए एक विराम ले लिया। सबके चेहरे पर अगले वाक्य की उत्सुकता टंक गई। उसने आगे कहा, “आप सबको मालूम है कि आई एस ओ ९००२ प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए पिछले एक साल से हमारी तैयारी चल रही है। आप इससे भी अवगत हैं कि अंकेक्षण करनेवाली टीम यहाँ आई हुई है और हमारे डॉक्यूमेंटेशन सिस्टम की ऑडिट कर रही है। कभी भी वह टीम शॉप फ्लोर में आकर आपलोगों से भी कोई सवाल कर सकती है। आज इस दुख की घड़ी में मेरा यह सब कहना अटपटा लग रहा होगा।”

डी एम ने रुककर सबके उदास चेहरे की प्रतिक्रिया देखी और आगे कहने लगा, “लेकिन इस हादसे के कारण जो परिस्थितियाँ बन गई हैं, उसी के मद्देनजर यह सब कहना ज्यादा जरूरी हो गया है। आपको बताया जा चुका है, फिर भी मैं खास तौर पर आज एक बार और दोहराना चाहता हूँ कि आई एस ओ ९००२ का विश्वस्तरीय गुणवत्ता प्रमाणपत्र हमें नहीं मिला तो हमारा बनाया हुआ माल कोई नहीं खरीदेगा और दुनिया के सामने मुकाबले में हमें कोई तवज्जो नहीं देगा। परिणाम यह होगा कि हमारा यह विभाग बंद हो जाएगा और सबका भविष्य मुश्किलों में फँस जाएगा।”

डी एम ने तनिक रुककर कर्मचारियों के चेहरे पर उभर आई चिंता को एक बार फिर लक्ष्य किया और अपना वक्तव्य जारी रख रखा, “उस ऑडिट टीम को अगर मालूम हो गया कि इतनी बड़ी दुर्घटना यहाँ हो गई है तो हमारे प्रति उनका इम्प्रेशन डगमगा सकता है और वे निगेटिव रिमार्क कर सकते हैं। इस शोकाकुल अवस्था में मुझे यह सब कहते हुए बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा, लेकिन क्या करूँ, आखिर जो छोड़कर चले जाते हैं, उसके परिजन भी उसके गम में अपनी जिंदगी रोक नहीं देते। फ्रेंड्स, आपको जरूर बुरा और नागवार लगेगा सुनकर, लेकिन हमें यह करना होगा। संदीप की मौत की खबर हमें अपने सीने में ही दफ्न कर देनी होगी। हमें छाती पर पत्थर रखकर यह कहना होगा कि यहाँ कोई ऐसी अप्रिय घटना नहीं हुई। संदीप को आज हम अनुपस्थित दिखा देंगे। आपको अपने और अपने परिवार की परवरिश के लिए भूल जाना होगा कि आपने यहाँ कोई हादसा होते देखा है।”

कुछ देर गहरी खामोशी छा गई जैसे काली अँधेरी रात की भयानक नीरवता उतर आई हो।

तरुण रोक नहीं पाया स्वयं को और कह उठा, “ऐसा कैसे हो सकता है सर?” वह अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया, उसकी आँखें आँसुओं से डबडबा गईं, “सुबह संदीप मेरे साथ ही आया था ड्यूटी। आज शाम उसे वर्षों से विवाह की प्रतीक्षा कर रही बहन के लिए तिलक चढ़ाने जाना था। उसके माँ-बाप को यह तो पता होना चाहिए कि उसके लाड़ले बेटे की ड्यूटी इतनी लंबी हो गई कि वह अब कभी घर वापस नहीं आएगा। मुझसे ही वे पूछने आएँगे.....मैं कैसे उनसे झूठ बोल सकूँगा सर?” बोलते-बोलते तरुण का बिलखना जोर पकड़ गया।

डिविजनल मैनेजर ने हमदर्दी जताकर सांत्वना देने का ढोंग करते हुए तरुण को एक ऑफिसर के साथ अपने चैम्बर में भिजवा दिया। अफ़सोस की मुद्रा में देखते हुए उसने फिर कहा, “मैं तरुण की भावना समझ सकता हूँ, लेकिन हमें इस मौके पर प्रैक्टिकल होना ही पड़ेगा। मैं नहीं समझता कि उसके परिवार के चार-पाँच जनों को संतुष्ट करने के लिए यहाँ काम करनेवाले चार सौ आदमी को जोखिम उठाना चाहिए। इसलिए यह मेरा अंतिम फैसला है कि आप में से किसी के मुँह से किसी के भी सामने यह नहीं निकलना चाहिए कि आपने यहाँ कोई दुर्घटना देखी है। इसी में सबकी खैर है.....ठीक है, अब आपलोग जा सकते हैं।”

जब सभी वहाँ से चलने लगे तो ऐसा लगा कि हरेक के माथे पर धर्मसंकट का एक पहाड़ लद गया है, जिसे बहुत दूर और देर तक ढोना आसान नहीं है। उन्हें यह भी लगा कि डी एम के कहने के लहजे में सिर्फ परामर्श नहीं आदेश भी है जिसकी अवहेलना करने पर वे अनुशासनात्मक कार्रवाई के तहत सख्ती भी बरत सकते हैं।

डी एम ने तरुण को अपने ठंढे कमरे में बैठाकर ठंडा पानी पिलवाया और उसके जज्बात को कद्र करने की भंगिमा दिखाकर समझाने की कसरत शुरू कर दी, “तरुण, मैं जानता हूँ कि संदीप तुम्हारा बहुत घनिष्ट दोस्त था, तुम्हारे लिए मुश्किल है उसकी मौत को पचा लेना। लेकिन तुम पढ़े-लिखे एक होशियार आदमी हो, कंपनी और सभी कर्मचारियों के हितों को देखते हुए तुम्हें अपने-आप पर काबू रखना होगा।”

“मुझे कुछ मत कहिए, सर......मुझे कुछ मत कहिए। इस समय मैं कुछ भी सुनने की स्थिति में नहीं हूँ।” तरुण अश्रुविह्वल बेचैनी के साथ उसके कमरे से बाहर निकल आया और स्टील ट्रांस्फर कार के पास, जिस पर संदीप की चिता बना हुआ वह लैडेल रखा था, जाकर खड़ा हो गया। उसकी आँखें ठहर गईं खौलते हुए लाल द्रव पर। देह-दहन की एक तेज गंध अब भी बाल्टी से बाहर निकल रही थी। उसका क्रन्दन कर रहा अन्त:करण पूछने लगा –

संदीप, मेरे दोस्त! मरने की यह कौन-सी शैली हुई यार? लोग बड़े-बड़े हादसों में दबकर, कुचलकर, कटकर मर जाते हैं.....लाशें विकृत हो जाती हैं.....टुकड़ों में बँट जाती हैं.....लेकिन तुम्हारी यह मौत तो ऐसी मौत है जिसमें लाश निकली ही नहीं.....कहीं है ही नहीं तुम्हारा पार्थिव शरीर। ऐसी मौत तो कभी नहीं देखी-सुनी गई यार। सबकी आँखों के सामने तुम मौत के मुँह में गए.....फिर भी सबको असहाय कर गए.....कुछ भी करने की किसी के पास कोई युक्ति नहीं। सबके सामने निकले तुम्हारे प्राण.....फिर भी किसी को पता नहीं कि तुम्हारी अस्थि कहाँ है....तुम्हारा धड़ कहाँ है.....तुम्हारा शारीरिक ढाँचा कहाँ है? ऐसा लगता है तुम कभी थे ही नहीं....कभी हो ही नहीं।

तुम थे इसका प्रमाण तो है....लेकिन अब तुम नहीं हो, इसे हम कैसे प्रमाणित करें, संदीप? कई दिनों से तुम यही कर रहे थे। मैंने पिछले सप्ताह ही तुम्हें टोका था, “संदीप, कोई छोटा-मोटा नुक्स भी हो तो बिजली ऐसी खतरनाक चीज है जिससे इतना ऊपर चढ़कर अकेले कभी छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। मेंटेनेंस के लिए दो आदमी के एक साथ रहने का चलन यों ही नहीं बना दिया गया है।”

तुमने कहा था, “सिर्फ पैनल में कोई ओवरलोड स्विच ट्रिप कर जाता है यार। फोरमैन घोचूँ मुझे इस काम के लिए अकेले हाँक देता है.....तुम तो जानते हो कि वह मुझसे कुछ ज्यादा ही मोहब्बत करता है....मैं ऐसा लल्लू हूँ कि मुझे इनकार करना आता ही नहीं।”

अब मैं किससे पूछूँ संदीप कि आज डी एम तुम्हारी मौत की खबर देने से मना कर रहा है, मैं इनकार कैसे करूँ?”

तरुण गहरे अन्तर्द्वन्द्व में निमग्न था तभी अचानक उसे कंधे पर एक सांत्वना भरा स्पर्श महसूस हुआ। वह उसका एक करीबी दोस्त केतन था। उसने कहा, “आओ, चलें तरुण। रुककर भी कुछ पा न सकोगे, यार।”

पीछे विभाग के अन्य अधिकारी प्रबंधकीय रौब में उसे घूर रहे थे। उनकी मुद्रा सख्त और तनी हुई थी, जैसे वे धमका रहे हों कि बहुत नौटंकी हो गई.....शराफत से नहीं मानोगे तो हमें टेढ़ा बनना भी आता है।

कुछ ही देर बाद देखा गया कि स्टील ट्रांस्फर कार पर से लैडेल ओवरहेड क्रेन द्वारा उठाया जाने लगा। तरुण हैरानी से देखने लगा कि आखिर क्या करनेवाले हैं ये लोग इस चिता में बदले हुए अजूबे कैम्बिनेशन से बने इस मोल्टेन स्टील का? क्रेन ने उसे ले जाकर १६०० डिग्री सेंटीग्रेड पर गर्म वेसेल में दोबारा हीट करने के लिए उढ़ेल ढाला। अब संदीप के जिस्म की बची-खुची गाँठें भी पिघलकर तरल बन जाएँगी। इस चरम दुर्गति पर तरुण और भी कातर हो उठा। उसकी आत्मा चीत्कार उठी - हाय संदीप! तुम्हारा जिस्म अब पूरी तरह इस्पात में एकाकार हो गया। मतलब अब तुम पुल बन जाओगे....रेल की पटरी बन जाओगे....डब्बे बन जाओगे.....जहाज बन जाओगे....कूलर, फ्रिज, गैंता, कुदाल, पाइप, खंभे, छुरी, चाकू, बंदूक, रिवाल्वर, तोपखाना और पता नहीं किस-किस चीज में रूपांतरित हो जाओगे। लेकिन नहीं ढलोगे तो फिर से आदमी में....और आदमी में नहीं ढलोगे तो अपनी नवविवाहिता के सुहाग, बूढ़े कृशकाय पिता की लाठी और शादी की उम्र पार कर रही अपनी कुँवारी बहन की राखी से तुम्हारा कोई संबंध नहीं रह जाएगा। आज भले ही आदमी की कीमत इस्पात से सस्ती हो गई हो, लेकिन इस्पात बनानेवाली कंपनी आदमी नहीं बना सकती, मेरे दोस्त। जबकि आदमी ही हजारों-लाखों मिलियन टन इस्पात बनाता है और बनाता चला जाएगा।

केतन ने तरुण की पीठ थपथपाई, “चलो तरुण, घर चलें.....अब संदीप कहीं नहीं है।”

“लेकिन केतन....संदीप यहाँ था सुबह से इसी जगह।”

“कोई साक्ष्य अब नहीं है उसके यहाँ होने का।”

“कम्प्यूटर है....यहाँ के दर्जनों लोग हैं....मैं हूँ....।”

“कम्प्यूटर में उसकी हाजिरी थी, अब नहीं है। लोगों ने उसे देखे थे, अब वे भी अनदेखे हो गए हैं। एक तुम हो, तुम्हें भी अब तय कर लेना है कि ज्यादा जरूरी क्या है....संदीप की मृत्यु का पर्दाफाश करना या अपनी नौकरी की सांस कायम रखना।”

संदीप के पिता इसी कारखाने से एक रिटायर वर्कर थे। कई दिनों तक वे संदीप के लापता होने की टोह लेते रहे, तरुण से भी कई बार मिले। सबके चेहरे पर चढ़े मुखौटे की परख कर लेने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। तरुण अपने झूठ पर एक मर्मांतक तकलीफ से जूझता रहा। अंतत: उसने कुछ तय किया और एक शाम उसके कदम संदीप के घर की तरफ बढ़ते चले गए। रास्ते में ही संदीप के पिता मिल गए.....एक मातम से घिरे हुए हताश, उदास। तरुण ने कहा, “मैं आपके ही घर जा रहा था।”

बूढ़े ने ताज्जुब से निहारा, “तुम क्यों तकलीफ कर रहे थे.....मैं तो आ ही रहा था तुम्हारे घर.....तुम्हारी चुप्पी को सुनने....तुम्हारी बदहवासी को पढ़ने।” उसकी बेचारगी को भाँपते हुए उन्होंने आगे कहा, “आज से बीस-पच्चीस साल पहले मजदूरों में इतनी आग और एकता हुआ करती थी कि किसी भी बेईमानी एवं नाइंसाफी के खिलाफ लोग एक साथ आन्दोलन करने पर उतारू हो जाते थे, जबकि उस समय प्राय: लोग गहन अभावों और मुश्किलों में जीने को बाध्य थे।”

तनिक रुककर उन्होंने तरुण की खामोशी की नब्ज टटोली, फिर कहा, “आज लोगों के पास साधन हैं, सुविधाएँ हैं, फिर भी इनकी मानसिकता इतनी तटस्थ और नपुंसक हो गई है कि कंपनी के अंदर या बाहर किसी भी नाजायज बात पर होंठ फड़फड़ाने की भी हिम्मत नहीं रह गई।”

वे जरा रुके और अपनी लय फिर पकड़ ली, “मेरे एक साथी का हाथ कट गया था। प्रबंधन उसकी असावधानी बताकर मुआवजा देने से आनाकानी करने लगा था। उसे हक दिलाने के लिए विभाग के सारे कामगारों ने काम बंद कर दिया था। विकास के रास्ते में असहमति का होना बहुत जरूरी है.....और इस असहमति को व्यक्त करने का माद्दा न हो तो समझ लेना चाहिए कि बहुत बुरे दिन आने वाले हैं।”

तरुण की आँखें संदीप के पिता के तात्पर्य टटोलती हुई विस्फारित होती जा रही थीं। वे कुछ देर के लिए चुप हो गए और फिर उनका गला भर आया। आँखों से आँसू की कई बूँदे टप-टप चू पड़ीं। लरजते स्वर में उन्होंने कहा, “तरुण, सात दिन हो गए, तुम्हारे होठों से एक लफ्ज तक नहीं फिसला। तुम्हारे भीतर जो एक द्वन्द्व चल रहा है, उसे मैं समझ सकता हूँ बेटे। संदीप तुम्हारा जिगरी दोस्त था.....इसलिए पुष्टि तो तुम्हें ही करनी होगी....तुम बोलोगे तभी मैं इसे अंतिम सच मानूँगा। लैडेल में जो आदमी गिरकर पूरी तरह खत्म हो गया, वह मेरा बेटा संदीप ही था न.....बोलो तरुण, बोलो.....संदीप ही था न वह?”

तरुण रोक न सका खुद को और उनके गले से लिपटकर फफक पड़ा, “हाँ अंकल, हाँ....वह अभागा संदीप था....आपका बेटा संदीप.....मेरा दोस्त संदीप। मुझे माफ कर दीजिए अंकल....मैं तो संदीप से भी अभागा हूँ और उससे भी ज्यादा मरा हुआ कि उसके मरने की खबर तक देने की प्राणशक्ति जुटा नहीं सका.....।”

संदीप के पिता उसकी पीठ थपथपाते रहे.....वह जार-जार रोता रहा....।