सिहांसन / शशि पाधा
वंदना को अचानक सुबह-सुबह घर में प्रवेश करते देख, उसकी माँ शारदा थोड़ी हैरान हो गई। जब से ब्याही थी हमेशा फोन करके ही आती थी। और आज…
“आओ बेटी आओ। अच्छा किया, तुम आ गई। मुझे भी तुम्हारी बहुत याद आ रही थी। फोन नहीं आया था न तुम्हारा, बहुत दिनों से।” शारदा ने कहा। माँ थी वह, इसलिए कुछ-कुछ समझ रही थी।
वंदना ने अपना पर्स डाइनिंग टेबले पर पटका और कुर्सी की पीठ पर सर रखकर आँखें बंद कर लीं। आज वह बात करने के मूड में नहीं थी।
“चाय बनाऊँ या सीधे नाश्ता ही करोगी? मैंने भी अभी तक नहीं किया है।” शारदा उसे थोड़ा समय दे रही थी।
वह अच्छे से जानती थी अपनी बेटी को, लेकिन आज वही बेटी पहेली बनी बैठी थी।
“अच्छा, और बताओ सब लोग कैसे हैं ?” -वह उसे कुरेदना नहीं चाहती थी पर कुछ तो कहना था।
“हाँ सब ठीक हैं, एक मेरे सिवाय। आप क्या जानो उस घर में मेरा क्या स्थान है। और सौरभ को तो जिम्मेवारियाँ कभी छोड़ती नहीं। मैं तो बस —” -वंदना का स्वर थोड़ा ऊँचा हो रहा था।
चाय के दो कप लेकर शारदा उसकी सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए बोली, “तो तुम सौरभ की जिम्मेवारियों से परेशान हो या ससुराल में अपना स्थान ढूँढ रही हो?”
“माँ! जानती हो न आप कि पापा रिटायर हो गए हैं। गौरव और मेधा अभी तक पढ़ रहे हैं। ऊपर से सासू माँ की दवाइयाँ। बस सौरभ सभी की ज़रूरतें पूरी करने में लगा रहता है। मेरी तो उसे परवाह ही नहीं।” शिकायत-भरे स्वर में उसने मन की बात कह दी।
“बेटी थोड़ा धीरज रखो । एक-दो साल तक सब ठीक हो जाएगा। सारी उम्र पड़ी है अपनी ज़रूरतें पूरी करने की।”
अभी शारदा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि वंदना बिफ़र पड़ी, “आप क्या जानों अभाव में जीना कितना कठिन होता है। कितनी बार अपना मन मारना पड़ता है। आपको तो इस परिवार ने सदा सिंहासन पर बिठाकर रखा है। हर कोई आपका आदर करता है। और वहाँ… वहाँ मुझे अपने को भी ढूँढना पड़ता है। बस अब और नहीं।”
कुछ देर के लिए एक अजीब-सी खामोशी पसर गई कमरे में।
आखिर शारदा ने ही चुप्पी तोड़ी।
“वंदना! सिंहासन नहीं, स्थान कहो। जानती हो यह स्थान मुझे कैसे मिला? मैंने इस घर की ज़रूरतों को प्राथमिकता दी। और सब का प्यार -आदर तो मुझे बोनस में मिला। मैं ब्याह के बाद ही समझ गई थी कि तुम्हारे पापा की खुशी कहाँ पर बसी है। मैंने भी उसी खुशी को अपना बना लिया। मैंने जो सबको दिया, वह दुगना होकर मेरी झोली में पड़ गया।”
“ माँ! आप तो बस …” -वंदना जैसे कुछ सुनना ही नहीं चाहती थी।
वंदना के काँधे पर हाथ धरते हुए शारदा ने बड़े प्यार से कहा- “ बेटी! कुछ पाने के लिए कुछ देना भी पड़ता है। और अगर खुशी-खुशी दे दो तो प्यार-आदर के साथ-साथ सिंहासन भी मिल जाता है। अपने लिए स्थान ढूँढना नहीं, स्थान बनाना पड़ता है । बस थोड़े से संयम और धैर्य की आवश्यकता होती है।”
वंदना चुपचाप सुनती रही। माँ की ओर उसने ऐसे देखा, जैसे अपनी ही माँ के अतीत में झाँक रही हो।
शारदा चाय का कप उठाकर किचन की ओर चल दी। वह जानती थी कि आज के बच्चे ज़्यादा भाषण पसंद नहीं करते।
किचन से उसने सुना- वंदना फोन पर सौरभ से कह रही थी, “ सुनों, मैं माँ से मिलने आई हूँ। ऑफिस से लौटते समय मुझे पिक अप कर लेना। और हाँ! थोड़ा जल्दी आ सकते हो ? मुझे रात को सबकी पसंद का खाना बनाना है।”
किचन में शारदा मुस्कुरा रही थी ।