सीट / योगेश गुप्त

Gadya Kosh से
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एक झटके के साथ बस आगे बढ़ी और साथ ही तेज धूप की कुछ किरणें खिड़की से मेरे मुंह पर पड़कर थोड़ी धूल मेरी सांस के जरिये मेरी छाती तक जाकर मुझे त्रस्त कर गई. बस का सफर भी खूब चीज होती है। खासतौर से गांवों के रास्तों का लम्बा सफर। बदन की सब हड्डियों में दूरी के बावजूद एक ऐसा सामीप्य पैदा हो जाता है कि शरीर की हर तरतीब जैसे बस की रेलपेल में धचके खा जाती है, अस्त-व्यस्त हो जाती है। सारा बदन चकनाचूर हो जाता है।

बस ने तेजी पकड़ ली है। सड़क के एक मोड़ ने धूप से मुझे बचा लिया था, पर धूल अब भी खिड़की के रास्ते मुझ तक पहुंच रही थी और साथ ही बस के अन्दर से उठता शोर भी कानों के नर्म-नर्म पर्दों पर मैल निकालने वाले के अनाड़ी हाथों की तरह लग रहा था। मुझे बस का सफर वैसे ही निहायत बेहूदा सफर लगता था, पर क्या करता, लाचारी थी। जिस तरफ मुझे जाना था उस जगह जाने के लिए इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं था। मैंने अपने भावों का गला घोंट लिया और चुपचाप बैठ गया।

बस शहर से निकलकर सुनसान जगह पर आयी ही थी और मैंने पहले ठंडी सांस ली ही थी कि बस रुकी और एक जगह लम्बे-चौड़े डील-डौल का आदमी दरवाजा खोलकर भीतर घुसा। घुसते ही उसका सिर बस की छत से टकराया और सबूत मिला कि वह साधारण से अधिक लम्बा है और उसके शरीर की असामान्य लम्बाई-चौड़ाई का सबूत तब मिला जब वह मेरे बराबर वाली सीट पर आकर बैठ गया और मेरे से बचे सीट के हिस्से पर केवल अपने शरीर के आधे को ही आधार दे पाया। मैंने उसकी तरफ ध्यान से देखा। गांव का आदमी था, खद्दर के मोटे कपड़े पहन रखे थे और उन कपड़ों में से जाने काहे की तीती-तीती बदबू आ रही थी। उसका रंग घना सांवला था और उसके नाक-नक्श उसके शरीर की तरह ही मजबूत और मोटे थे।

जाने क्यों मुझे उसका बैठना बहुत बुरा लगा। मैंने सफेद पापलीन की कमीज और बढि़या फिनले की सुपरफाइन धोती बांध रखी थी। पैरों में दो पट्टियों वाली मराठा चप्पल थी। अपने को पढ़ा-लिखा भी मैं मानता ही था। यह तो चांस की बात है कि मैं बस में सफर कर रहा हूँ, नहीं तो...

बस ने फिर झटका दिया और आगे बढ़ निकली। बस के उस झटके ने मेरे और मेरे पड़ोसी के शरीर को आपस में टकरा दिया। मुझे बड़ा क्षोभ हुआ। अपने को कोसता हुआ-सा मैं उससे बोला, "चौधरी, ज़रा संभल कर बैठो, लम्बा-चौड़ा शरीर पाया है, उसे सम्भालने की ताकत नहीं पायी?"

उस आदमी ने मेरी तरफ देखा और चुपचाप मुंह फेरकर उसी तरह बैठा रहा, जिस रह पहले बैठा था।

मुझे भी चुप हो जाना पड़ा। अपने आपको फैलाने का एक और प्रयास करते हुए मैंने खिड़की से बाहर देखना आरम्भ कर दिया। बाहर सूरज आसमान पर तेजी से ऊपर चढ़ रहा था। रास्ते के पेड़-पौधे आश्चर्य से, थकी-थकी दृष्टि से इस घोर दुपहरी में घर से बाहर निकल पड़ने वाली बस के साहस की प्रशंसा-सी करते हुए लग रहे थे। बस भी तेजी से भागे जा रही थी जैसे प्यासे आदमियों का काफिला, "ओयसिस" के भ्रम में गर्म रेगिस्तान में तेजी से बढ़ निकलता है, बस में बैठे हुए हम लोग...

अचानक कंधे पर किसी भारी चीज का अनुभव कर मैंने भीतर की तरफ देखा। पास के महाश्य मेरे कंधे पर सिर टिकाए सोने की प्राथमिक स्थिति में थे। उनके सिर की धूल से दो-एक रगड़ों में ही मेरा सफेद झकमक कमीज काली स्याह पड़ गयी थी।

मैंने उसके सिर को बालों से पकड़ा और उसे सीधा करते हुए जगाकर कहा, "सीधा नहीं बैठ सकता! सारी कमीज..." मेरा गला गुस्से के मारे रुंध गया।

वह जागा। जागकर उसने सब स्थिति को समझा और फिर धीमे से मुस्कराकर बोला, "जरा नींद की झपकी आ गयी थी बाबू, सारी रात नहीं सो पाया।"

मैंने और भी गुस्से से कहा, "सारी रात नहीं सोया तो क्या मुझ पर अहसान किया है, उसका बदला क्या मुझसे लेगा?"

उसने और भी विनीत स्वर में कहा, "बदला तुमसे क्यों लूंगा बाबू और हम गरीब आदमी क्या किसी से बदला ले सकते हैं, तुमने कौन हमारा..."

मैंने उसकी बात काटकर कहा, "अच्छा, अब आप ज़रा परे को सरककर बैठिए. कम से कम सांस लेने की जगह तो छोड़ दीजिए."

वह कुछ और सरक गया तो मुझे चैन मिली। मैंने अपने शरीर की गांठ को और ज़रा ढीला कर लिया और फिर खिड़की से बाहर देखने लगा।

दोपहरी और भयावह हो उठी थी। आसमान में कहीं किसी पक्षी का नाम-निशान न था। खूब-खूब ऊंचे कहीं कोई चील दीख जाती थी जिसके इरादे कुछ नेक नहीं लगते थे। जमीन पर किसी शिकार पर उसकी दृष्टि थी। पर जमीन उसे रूखी-रूखी लग रही थी। तालाबों में पानी नहीं था, नदी-नहरें सब सिकुड़कर रह गई थीं। मछलियों ने सतह पर आना छोड़ दिया था। पेड़ के पत्तों में छिपे घोंसलों में छिपे पंछी अपनी खैर मना रहे थे। प्यासे थे पर बाहर नहीं निकल रहे थे, ऊपर से चील का डर था। प्यासे पंछियों पर झपट्टा...

झपट्टा शब्द के कल्पना चित्र के साथ ही एक झपट्टा-सा कुछ मेरे सिर पर पड़ा और मेरा सारा सिर भन्ना गया।

लौटकर मैंने बस में देखा, मेरे पड़ोसी महोदय सीट से नीचे ढुलक पड़े थे और इस समय उठने की चेष्टा कर रहे थे। मैंने यह भी समझ लिया कि इन्हीं का हाथ गिरते समय मेरे सिर से टकराया था। क्रोध के मारे मेरा खून खौल उठा। चील की तरह अपना हाथ उनके मुंह की तरफ फेंककर मैं चीखकर बोला, "तेरी वजह से क्या बस से नीचे कूद जाऊं?"

वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाता-सा बोला, "नहीं बाबू, सो बात नहीं, जगह मेरे पास थोड़ी रह गई थी और रात भर सोया नहीं। बहू बीमार थी, उसके पास बैठे रहना पड़ा, वह शायद बचेगी नहीं, दुख और नींद ने झटका खिला दिया। गिरता आदमी हाथ पैर पटकता ही है, वही हाथ...माफी चाहता हूँ बाबू!"

मैंने कहा, "माफी-वाफी कुछ नहीं। आप नीचे ही बैठिए."

"अच्छा बाबू, अच्छा! तुम आराम से बैठो। मैं तो नीचे ही बैठ जाऊंगा, मेरा क्या, हम..."

वह नीचे ही बैठ गया। मैंने खुलकर सांस ली। पर उस दिन तो भाग्य में कुछ और ही लिखा था। बस एक ऐसी सड़क से गुजर रही थी जिसके दोनों तरफ बड़े-बड़े कांटेदार पेड़ खड़े थे। पेड़ मीलों तक फैले हुए थे और उन पेड़ों की बड़ी-बड़ी शाखें दोनों तरफ से बस की दीवारों से टकरा रही थीं। ड्राइवर ने चीखकर हुक्म दे दिया था कि सब खिड़कियां बन्द कर लो, नहीं तो किसी की आंख-वांख चिर जाएगी। खिड़की बन्द होते ही सारी बस एक घुटन से भरा डिब्बा हो गई थी। हवा कहीं से नहीं आ सकती थी। मन बहुत झुंझला रहा था। सोच रहा था कि हमारे बड़े बुजुर्ग भी कितने बेवकूफ थे। न वे इस घने मनहूस जंगल में आकर बसते और न मैं उनकी जमींदारी का मुआवजा लेने इस तरह का सफर करता हुआ इस नरक कुंड में आता। वह तो अच्छा किया मेरे पिताजी ने जो आकर शहर में बस गये, नहीं तो मुझे शायद...और मैं भी जानवर का जानवर ही रहता।

वह चौधरी फिर ऊंघने लगा था पर इस बार उसने नींद से अपनी सुरक्षा करने की खातिर मुझसे बात करनी आरम्भ कर दी, पूछा, "कहां उतरोगे बाबू?"

मैं भी शायद किसी से बात करना चाहता था। चुप बैठे-बैठे मन की झुंझलाहट और बढ़ रही थी। उत्तर दिया, "रसूलपुर।"

उसने खुश होकर कहा, "रसूलपुर किसके यहां, बाबू।"

मैंने कहा, "किसी के यहाँ नहीं।"

"फिर?"

"यों ही।"

मैंने सोचा क्यों बताया जाए. जाने कैसा आदमी हो। पर चौधरी एकदम बेवकूफ नहीं था, बोला, "आप जैसा नखरेबाज आदमी ऐसा सफर यों ही तो नहीं कर सकता।"

मैंने कहा, "अपने पुरखों की जगह है। सोचा, एक बार नजर से निकाल लूं।"

इस बार चौधरी जोर से हंस पड़ा, "कुछ मकान-वकान होया, या कुछ बोंड्स-वोंड्स..."

मैंने कहा, "हां, यों ही।"

चौधरी ने फिर पूछा, "क्यों बाबू किस घर से हो?"

मैंने कहा, "लाला रामरतन के घर से"।

"तुम रामरतन के लड़के हो?"

"हां।"

"दौलत के पोते?"

मैंने कहा, "हां।"

और मैंने देखा कि सुनकर वह कुछ देर टकटकी लगाए मेरी ओर देखता रहा। फिर उठकर उसने खूब जोर-जोर से कपड़े झाड़े और बड़े धीरज से संतुलित स्वर में बोला, "जहा उधर को हो जाओ, मेरा भी ऊपर उठने को मन हो आया है।"

मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा, फिर बोला, "क्यों?"

"क्यों क्या, सीट पर बैठूंगा।"

"क्यों बैठोगे सीट पर, अब तक जो नीचे बैठे थे।"

उसने बैठते हुए कहा, "अब तक नीचे बैठा था, अब सीट पर बैठूंगा, तुमसे रोकते बने तो रोक लो।"

वह बैठ गया। मैं काफी फैलकर बैठा हुआ था। लगभग तीन-चौथाई सीट मैंने घेर रखी थी। उसने एक चौथाई पर अपने को जमा लिया। बस की सब खिड़कियां अब भी बंद थीं। मैं सब आगे की सीट पर बैठा था। मुझे आगे ही बैठने का शौक था। खिड़कियां बन्द थीं, इसलिए इंजिन से उठती पेट्रोल की भभक सिर में चढ़ी जा रही थी। पर मुझे उस पेट्रोल की भभक से भी अधिक कष्टकर उसके पास बैठे चौधरी के कपड़ों की बदबू थी जो मेरे सारे मन मस्तिष्क को जलाए दे रही थी। खिड़कियां लकड़ी की बनी थीं। इसलिए मैं बाहर भी नहीं देख पा रहा था। एकदम सीधे ड्राइवर की पीठ पर नजर टिकाए बैठा रहा।

चौधरी ने आप-ही-आप बोलना शुरू किया, "बाबू मैं भी और मेरे पुरखे भी रसूलपुर गांव के ही रहने वाले थे।"

वही फिर बोला, "मेरा नाम मुकन्दा है और मेरे बाप का नाम सूरजा था।"

मैं चुप ही बना रहा।

"हम लोग तुम्हारे यहाँ चाकर भी थे और तुम्हारी रैयत भी।"

मैं पत्थर की तरह बुत बना रहा।

"और जब कभी बहलवान नहीं होता था, तुम्हारे दादा के जमाने की बात है, मेरा दादा गाड़ी भी चला दिया करता था। तुम्हारे दादा का एक बड़ा खूबसूरत रथ था। एक दिन वही रथ तुम्हारे दादा के शौक के लिए जाने किसे लेने जा रहा था कि मेरे दादा से एक कसूर हो गया। बहलवान के लिए जो बैठने की जगह होती थी, वह बिलकुल रथ से बाहर होती थी जिससे अन्दर बैठे किसी आदमी से उसका शरीर न छू जाए. मेरे दादा का शरीर उस बेस्वा से टकरा गया और मेरा दादा मारा गया। मारने का ढंग भी निराला था। मेरे दादा को जोश दिया गया कि देखें कितने ऊंचे बैठकर रथ हांक सकते हो। दादा एकदम जुए के पास से रथ हांकने लगा। तुम्हारे दादा ने बैलों की पूंछ छू दी। बैल बिदके और मेरा दादा कुछ दूर खिसक कर नीचे गिर गया। अगले दिन जब गांव वालों ने देखा तो वह मर चुका था। कैसा अन्याय था? जो गाड़ी चलाता था, उसी के लिए गाड़ी में जगह नहीं थी, पर वह जमाना गुजर गया, अब हम दूसरे राज में पल रहे हैं, अब हम..."

मैंने उसकी ओर घृणा से देखा और मुंह फेर लिया।

वह बोलता गया, "जमींदारी मिट गयी, अब हम..."

मैंने कहा, "लैक्चर बंद करो, जमींदारी मिटी है। छोटे बड़े की तमीज नहीं मिटी, समझे!"

वह जोर से हंसा। हंसने के साथ ही थूक के कई छोटे-छोटे कतरे दूर तक फैल गये। मन घृणा से भर उठा। मैं तो चुप रहा, पर वही ज़रा मेरी तरफ खिसकता हुआ बोला, "बाबू, ज़रा उधर को हो लो, मैं भी खुलकर बैठ जाऊं।"

मैं लाल हो उठा, बोला, "तुम क्या लड़ना चाहते?"

"ना, अपनी आधी सीट चाहता हूँ।"

"कैसी आधी सीट, तमीज से चुप बैठे रहो।"

पर वह चुप नहीं बैठा। धीमे से सरका और मुझे खिसकाकर आधी सीट पर कर दिया, फिर चुपचाप बैठ गया।

मेरी सारी रगें तन गयीं। मैंने अपना जोर लगाकर उसे खिसकाना चाहा, पर वह मुझसे तनिक भी नहीं खिसका। मैंने चीख कर ड्राइवर को आवाज दी, "ड्राइवर, गाड़ी रोको!"

ड्राइवर ने पहले टालना चाहा पर जब मैं कई बार चीखा तो उसने गाड़ी रोक दी।

मैंने कहा, "ड्राइवर, इसे कहीं और बैठाओ, मैं इसके साथ नहीं बैठ सकता।"

ड्राइवर ने ध्यान से मेरी तरफ देखा, फिर चौधरी से कहा, "तू उधर पीछे जा, चौधरी!"

चौधरी ने कहा, "क्यों बैठ जाऊं पीछे? इसे बदबू आती है तो यही बैठ जाए."

मैंने कहा, "तेरे बाप का हुक्म चलता है। मैं क्यों बैठ जाऊं? तुझे बैठना पड़ेगा।"

"मैं तो नहीं बैठूंगा।"

ड्राइवर ने कहा, "बैठ जा ना जाकर, कुछ हर्ज होता है।"

आसपास के सब लोगों ने भी कहा, "क्यों देर कर रहा है, बैठ जा जाकर। बस रुकी खड़ी है। दीखता नहीं है।"

चौधरी ने कहा, "सब मुझे ही कहते हो, इसे भी कहो ना, यही चला जाए."

सबने एक स्वर में कहा, "तू ही चला जा।"

"नहीं, मैं ही क्यों जाऊं?"

"तेरे बदन से बदबू आ रही है, इसलिए."

चौधरी की मुट्ठी कस गयी। बोला, "मेहनत करता हूँ, पसीना आता है, बदबू क्यों ना आए. मैं अपनी सीट नहीं छोड़ूंगा।"

ड्राइवर ने मुझे कहा, "बाबूजी, आप ही..."

मैंने कहा, "नहीं, मैं पुलिस में रिपोर्ट करूंगा। इसने मुझे धक्का दिया है, यह खून भी कर सकता है।"

ड्राइवर ने इस बार फिर चौधरी से कहा, "चौधरी, जा पीछे बैठ जा, सीट छोड दे। गाड़ी लेट हो रही है।"

चौधरी ताव खा गया, बोला, "इससे डरता है, दबता है साले, मुझे दबाता है। मैं नहीं हटूंगा।"

ड्राइवर ने कस मारा, "नहीं हटेगा?"

"ना।"

"तो हटा कर दिखाऊं।"

"हां।"

और ड्राइवर, कंडक्टर और बस के दो चार आदमियों ने मिल कर चौधरी को नीचे फैंक दिया। चौधरी ने बहुत जोर मारा, सीट को वह जोर से पकड़े रहा और नीचे भी वह तभी गिरा, जब झटकों से सीट भी उखड़ गयी।

उसके उतर जाने के बाद मैंने ड्राइवर से पूछा, "कमबख्त, सीट भी उखाड़ गया। अब कहाँ बैठूं?"

पीछे से किसी ने चुस्की ली, "जमीन पर बैठो। या पीछे आ जाओ."

मैंने अपनी पापलीन की कमीज और फिनले की धोती की तरफ ध्यान से देखा और चुपचाप उपर का डंडा पकड़ कर खड़ा हो गया। पीछे बैठने योग्य न रुचि थी, न वातावरण।

खड़ा रहने पर दम और भी घुटता था। खिड़की नीची हो गयी थी। बाहर देखने की सुविधा भी नहीं थी। वह संकरा रास्ता समाप्त हो गया था। इसलिए सबने खिड़कियां खोल ली थीं, पर मैंने नहीं खोली थी।

खोलकर करता भी क्या?