सीढ़ियाँ / प्रियंवद

Gadya Kosh से
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मैंने ज़िन्दगी को तीन बार निचोड़ा और मुझे तीन चीज़ें मिलीं। पहले सपने, फिर आँसू और फिर गीत।

बहुत पहले मैंने ख़रगोश के बच्चों के सफ़ेद मुलायम ज़िस्म में मुँह दुबकाकर पूछा,”मैं कौन हूँ?”

“माँस का लोथड़ा।” --सफेद बच्चे की आँखें टिमटिमाईं।

“मैं कौन हूँ? ” --मैंने खिड़की के काँच से चिपके सुर्ख़ गुलाब से पूछा ।

“माँस का लोथड़ा।” --गुलाब की इक्कीसों पंखुरियाँ फड़फड़ाईं।

“मैं कौन हूँ।” --मैंने मरते हुए सूरज, उगते हुए चांद से पूछा।

“माँस का लोथड़ा।” --उदास शाम और पीली बीमार चांदनी फुसफुसाई।

“मैं कौन हूँ?” --मैंने उससे पूछा।

“मेरी आत्मा।” उसने मेरे गले का बायाँ हिस्सा चूम लिया। मैंने तब ज़िन्दगी को निचोड़ा तो उसमें से सिर्फ़ सपने निकले, रंग-बिरंगे सपने, एक के साथ एक गुँथे हुए। वह सपने मेरे पूरे बदन में फैलते गये, किसी बोगनबेलिया की तरह।

ज़िन्दगी में सपना ही सत्य है, मैं सोचने लगा।

"तुम्हारे एक गाल में धूप और दूसरे में चांदनी है..." --मैं उससे कहता और एक सपना अपनी हथेली से उतारकर उसके गालों पर टाँक देता। वह खिलखिलाती और...

“तुम्हारे बाल उस राजकुमारी की तरह हैं, जिसे राक्षस कैद कर लेता है।“ --मैं एक सपना उसके बालों में गूँथ देता हूँ।

“और...” --उसकी आँखें पागल हो जातीं।

फिर सपने के बाद सपने से मैं उसको ढँक देता, उसके होंठ, उसकी उँगलियों की पोरें उसके पंजे तक।

एक दिन उसने पूछा-- ”अगर मैं तुम्हें छोड़कर जाना चाहूँ तो क्या करोगे? ”

“तुम्हारे दोनों पाँव काट लूँगा।”

“काट लो।” उसने अपने पाँव बढ़ा दिये।

“मैं सारी रात उसके पाँवों पर सिर रखकर रोता रहा।

मैंने तब ज़िंदगी को निचोड़ा तो उसमें से सिर्फ़ आँसू निकले। एक के बाद एक और फिर और आँसू। ये आँसू मेरे पूरे बदन में फैल गये, किसी गुलमोहर के गुच्छे की तरह्।

ज़िन्दगी में आँसू ही सत्य हैं, मैं सोचने लगा।

आँसुओं का दरिया चढ़ता रहा और मैं उसमें डूबता गया।

मैंने तब ज़िन्दगी को निचोड़ा तो उसमें से सिर्फ़ गीत निकले। वह गीत मेरे पूरे बदन में फैलते चले गये, हल्दिया अमलतास की तरह्।

ज़िन्दगी में गीत ही सत्य है, मैं अब सोचता हूँ, लेकिन सच तो न सिर्फ़ सपना है न सिर्फ़ आँसू और न सिर्फ़ गीत। सच है एक सिलसिला। पहले सपने, फिर आँसू, और फिर गीत का शाश्वत अपराजेय सिलसिला।