सीढ़ी से उतरते हुए / जगदीश कश्यप
'मुझे तुमपर दया आती है ! आठ सौ रुपल्ली की ख़ातिर तुम लोगों के दिन-भर पैर पकड़ते हो और उन्हें जूते-चप्पल पहनाते हो । अब तो तुम्हारा लेखन भी छूट गया है । लानत है तुम पर !'
दोस्त की लंबी झाड़ वह काफ़ी देर से सुन रहा था । पर चुप रहा । उसने बची मूंगफली निकालकर दोस्त को थमा दीं और लिफ़ाफ़े को एक ओर उछाल दिया । अब बाग़ में ऊँचे-ऊँचे पेड़ों को देख वह बेंच पर पसर-सा गया । एकाएक उसको फुरफरी-सी चढ़ी ।
'चलो चलते हैं, ठंडी ओस गिरने लगी है ।'
दोनों बाग़ के बाहर चाय की दुकान पर आकर रुक गए । पहले ने उँगली के इशारे से दो चाय का आर्डर दुकानवाले को दिया । और बोला— 'वो तूने एक्जीक्यूटिव पोस्ट के लिए एप्लाई किया था, क्या हुआ ?'
'उसका तो कल इंटरव्यू है । ढंग के कपड़े नहीं, जूते नहीं । दरबान भी घुसने नहीं देगा । उस एयरकंडीशंड शीशे वाले दरवाज़े में ।'
'तू फ़िक्र मत कर यार ! मैं तुझे अपनी दुकान से रेडीमेड पेंट और शर्ट दिलवा दूँगा । जूते भी । पैसे कटते रहेंगे मेरे हिसाब से । तू ढंग से इंटरव्यू देकर आ ।'
चाय पीते-पीते शायद मुकेश के दिमाग में कुछ आया । वह धीरे से बोला- 'दोस्त कुछ नहीं होगा । वहाँ पहले ही उन्होंने अपना आदमी फ़िट कर लिया होगा । किराया भी बेकार चला जाएगा आने-जाने का । तू मुझे बता रहा था-‘तेरे शोरूम में एक आदमी की ज़रूरत है । क्या मुझे नहीं खपा सकता अपने यहाँ....'
राजू यह सुनते ही चौंक गया । उसे लगा मुकेश उसका मज़ाक उड़ा रहा है । पर उसकी नम हो आईं । आँखें देख, वह बोला—'हिम्मत मत हार, तुझे इंटरव्यू देना होगा । मैं तुझे....' और राजू का गला भर आया ।