सीता-सावित्री के देश का दूसरा पहलू / अमृतलाल नागर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कामाचार की उग्र परंपराएँ हमें अपने देश के पौराणिक इतिहास में खूब मिलती हैं। वैसे तो काम-अपराध की आदत मनुष्‍य-समाज में आदिकाल से सर्वत्र व्‍याप्‍त है, पर अपनी स्थिति को पहचानने के लिए मैं स्‍वदेश की ही इन विकृत परंपराओं पर पहले विचार करूँगा। एक तो यह होता है कि स्‍त्री-पुरुष अपनी प्राकृतिक काम-तृष्‍णा से पीड़ित होकर नीति-अनीति का विचार किए बिना पारस्‍परिक इच्‍छा अथवा बलात्‍कार से संभोग-रत हो जाते हैं। यह तो दुनिया-भर में कहीं भी हो जाता है। देश काल से इसका कोई भी संबंध नहीं। परंतु हमारा देश नाना जातियों का सांस्‍कृतिक संगम-स्‍थल होने के कारण नाना-जातीय संस्‍कृतियों की कामाचार संबंधी ढीली नीति के कारण इस संबंध में मानसिक रूप से एक कुनीति का शिकार हो गया। ऋग्‍वेद में शैलूषों अर्थात नटों का वर्णन आता है। अमरकोश में इन शैलूषों को 'जायाजीवी' अर्थात औरतों की कमाई खाने वाला बतलाया गया है। वात्‍स्‍यायन के 'कामसूत्र' में कतिपय जातियों की स्त्रियों को रसिकों की भोग-सामग्री बतलाया गया है। भाटों की स्त्रियाँ पुरुष का मन अवैध रूप से बहनाने के लिए आसानी से हाथ लग जाती थीं। इनके अतिरिक्‍त मणिकारिका अर्थात नगीने-साज की स्‍त्री तथा शिल्‍पकारिका अर्थात शिल्‍पी की स्‍त्री भी इस काम के लिए आसानी से उपलब्‍ध होती थीं। इसलिए ऐसी स्त्रियाँ, जिन्‍हें अपने पति अथवा समाज से अन्‍य पुरुष के भजने के कारण दंड नहीं मिलता था, व्‍यभिचार के लिए बुरा आदर्श बन गईं। इस देश में कहीं-कहीं पर गाँव-समाज में व्‍याहकर आने वाली किसी भी जाति की वधू के साथ पहली रात बिताने का अधिकार मुखिया, राजा अथवा पुरोहित का होता है। सामंती परंपरा के कारण अब तक कुछ हीन मानी जाने वाली जातियों की स्त्रियों का भोग करना ऊँची जाति के पुरुषों के लिए एक प्रकार का नैतिक अधिकार ही माना जाता रहा है। मैं किसी भी छोटी-बड़ी जाति को लांछन लगाने की नीयत से नहीं कहता, फिर भी वस्‍तु-स्थिति को पहचानने की क्रिया में यह देखा जा सकता है कि इस देश के गाँवों में कुछ जातियों की स्त्रियों पर बलात्‍कार करना ऊँची जातियों के पुरुषों का धर्म-सा ही हो गया है। मैं अपने अवध प्रदेश की बात जानता हूँ। गाँवों में चमारिनें प्रायः काम-भोग के लिए व्‍यवहार में लाई जाती हैं। इनके अतिरिक्‍त गाँव की रखैलों में बारिन, अहीरिन आदि का नाम भी मैंने अक्‍सर सुना है। नगरों में कहारिन, मालिन, नाइन, मेहतरानी आदि स्त्रियों के साथ भद्रजनों का काम-व्‍यवहार चलता रहा है। मैं पहले ही कह चुका कि किसी भी जाति को यहाँ कलंकित करने की मेरी नीयत नहीं, केवल वस्‍तु-स्थिति की दृष्टि से कतिपय जातियों के नाम लिए गए हैं‍। शहरों में अनेक भद्र घरों की काम-अतृप्‍त स्त्रियाँ ऐसी जातियों के सेवक पुरुष से अपना नाता जोड़ती हैं। प्रत्‍येक क्षेत्र में कुछ जातियों की स्त्रियाँ सामंती दुराचार का आम शिकार बनीं और अब बीती अनेक सदियों में जैसे उनकी परंपरा ही स्‍थापित हो गई है। पितृसत्‍तावादी, आर्य सामंत पराजित जातियों की स्त्रियों का बलात् भोग करते हुए क्रमशः स्‍त्री-जाति का आदर करना भूल गए। 'कामसूत्र' एक ऐसी कुंजी है, जिसके द्वारा हम अपने सामंती दुराचार के तिलस्‍म का उद्घाटन कर सकते हैं। विलासी पुरुषों की सहायतार्थ 'कामसूत्र' ग्रंथ सलाह देता है कि जो स्‍त्री अपनी सौतों के कारण पति की अधिक प्‍यारी नहीं होती उसका पातिव्रत आसानी से भंग किया जा सकता है; जिनके पति परदेश गए हों उन पत्नियों को अपने मतलब के लिए विलासी जन आसानी से ललचा सकते हैं; रोगी और कुरूपवान पुरुष की सुंदर पत्नियाँ भी आसानी से विलासियों के हत्‍थे चढ़ जाती है। उजड्ड गँवार पति की सुघड़, सलोनी पत्‍नी का पातिव्रत स्‍वयं अपने ही मन से कच्‍चा होता है; बड़े शक्‍की और ईर्ष्‍यालु पति की पत्‍नी भी अपने मानसिक विद्रोह के कारण कच्‍ची पतिव्रता होती है। इसलिए उनको भी रसस्‍वार्थी आसानी से फँसा सकते हैं।

तीज-त्‍यौहार के दिन राजमहलों में नगर-भर की स्त्रियाँ आती थीं और प्रायः दिन-भर वहाँ रहा करती थीं। 'काम-सूत्र' में लिखा है कि राजा इन औरतों को ताकता था, जिस पर मन आ जाता उसके पास कुशल दूती भेजता था। स्‍त्री अगर रसिया हुई तो कलात्‍मक बातों की लपेट में स्‍वयं ही खिंची चली आती थी और यदि बुद्धू अथवा धर्मभीरु हुई तो मीठी-मीठी बातों से बहलाकर महल, उद्यान अथवा पालतू जानवरों के खेल दिखलाने के बहाने दूती उसे नियत स्‍थान पर ले जाती थी। वहाँ उसे बतला दिया जाता था कि राजा उसका भोग करना चाहता है। उसे अपने सौभाग्‍य पर गुप्‍त गौरव-बोध करने की प्रेरणा दी जाती थी, तरह-तरह से ललचाया जाता था। यदि राजी हो गई तो ठीक, वरना राजा वहाँ स्‍वयं उपस्थित होकर उसका बलात् भोग कर लेता था। जब स्‍वयं राजा ही ऐसा गंदा काम करेगा तब उसके मंत्री, आमात्‍य और छोटे कर्मचारी भला क्‍यों चूकेंगे? राजा की गोशाला का अधीक्षक अपने मातहत रहने वाली गोपस्त्रियों का नैतिक आचरण बिगाड़ने का अधिकारी भी होता था। राज्‍य की ओर से नियुक्‍त कपड़ा बुनने वालियाँ, चरखा कातने वालियाँ अपने विभाग के अधीक्षक की भोग-सामग्री हुआ करती थीं। इस प्रकार अफसरी-मातहती में औरतों का सामाजिक आचरण बिगड़ता ही रहता था।

एक ओर समाज में पातिव्रत की महिमा कठोर विधानों द्वारा समर्थित होकर बढ़ती थी और दूसरी ओर सामंती जोम उस महिमा का अपने रस-स्‍वार्थ के लिए रोज मखौल उड़ाता था। मजे की बात यह थी कि दूसरों की लड़कियों-बहुओं को अपने मजे के लिए उड़ाने वाला सामंत स्‍वयं अपनी लड़कियों-पत्नियों को दूसरों के चंगुल में फँसे देखकर आदर्शोन्‍मत्‍त हो कठोर वैधानिक और क्रूर पति बन जाता था। सामंती सदाचार और दुराचार का यह दोहरा न्‍याय मानव-सभ्‍यता को खा गया।

इन सामंतों के कामाचार को उनके दरबारी कवियों ने प्रेम की संज्ञा दे दी। 'कथा-सरित्‍सागर' में पांडव-वंशी महाराज उदयन और उनके पुत्र महाराज नरवाहनदत्‍त के अति कामाचार को प्रेमाचार मानकर उनकी प्रेम-कहानियाँ लिखी गई हैं। सामंती की बहु-विवाह प्रथा ने यहाँ के लोगों को स्‍त्री का आदर-मंडित निरादर करना सिखला दिया।

अब बहाने-सिर कन-कन करते मन जुड़ गया है; अनुभव, अध्‍ययन, देशाटन से अपने समाज के ऐतिहासिक सामाजिक सांस्‍कृतिक विकास का एक मानसचित्र बन गया है। पुरुष अपनी मानसिक और बौद्धिक अ-गति को दूर करने की जिस प्रकार भीतरी झुँझलाहट से उद्दाम काममार्गी होता है उसी प्रकार स्‍त्री के भी अपने कारण होते हैं। ऐतिहासिक कारणों से हमारे देश में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति पुरुषों से भिन्‍न रही है। अब आजादी के बाद यद्यपि वैधानिक रूप से हमारा भारतीय समाज भी अर्द्धनारीश्‍वर के समादर्श पर स्‍थापित हो चुका है, पर अवैधानिक रूप से भी वह कहीं पुराने स्‍तरों पर ही स्‍त्री-पुरुष के संबंध को अधिकांश में निभाए जा रहा है।

अपने स्‍मृतिकारों और पौराणिक के विचारों का विरोधाभास देखकर एका-एक यह समझ में नहीं आता कि हम अपने समाज में नारी की किस स्थिति को सही मानें। नारी की पूजा से लेकर नारी की ताड़ना तक का विधान एक साथ मिलता है। मनुस्‍मृति में ही एक ओर तो स्‍त्री और पुरुष एक ईश्‍वर के अंग होकर अभिन्‍न और समस्थिति पर हैं तथा दूसरी ओर उसमें पत्नियों के लिए कठोर दंड-विधान है जबकि उन्‍हीं परिस्थितियों में पुरुषों के साथ सहानुभूतिपूर्वक दंड-विधान रचा गया है। राजसिंहासन पर स्‍त्री-पुरुष दोनों ही एक साथ प्रतिष्ठित करने की प्रथा थी, पर जो स्‍त्री पट्टमहिषी बनकर अपने समाज की नारियों का प्रतिनिधित्‍व करती, स्‍वयं उसे ही अपने पुरुष से अक्‍सर अच्‍छा व्‍यवहार नहीं मिलता था। राम-माता देवी कौशल्‍या को ही देखिए। उनका सुहाग अन्‍य दो स्त्रियों के साथ बँटा था। बड़ी थीं, सिंहासन पर पति के साथ बैठती थीं, पर रूआब कैकेयी देवी का ही था। सैंयाजी को प्‍यारी वही सुहागन! कैकेयी मँझली होते हुए भी पट्टमहादेवी को नाकों चने चबवा सकती थी, अपनी-सी पर आकर बड़ी रानी के बेटे का अधिकार भी छीनकर अपने बेटे को दिलवा सकती थी। इसी प्रकार स्‍त्री की स्थिति सदा डावाँडोल रहती थी। भगवान राम यदि किसी त्रिया-राज्‍य में कैद रहकर लौटते तो उनके ब्रह्मचर्य की अग्नि-परीक्षा न होती, परंतु भगवती सीता के लिए रावण के यहाँ से मुक्‍त होने के उपरांत अग्नि-परीक्षा देना अनिवार्य था। इतने पर भी किसी उद्धत प्रजाजन के संदेह प्रकट कर देने पर वे निकाली गई। राम अपने मन से सीता देवी के प्रति आश्‍वस्‍त थे, पर उन्‍हें भी समाज का भय था।

इससे पहले और इस समय भारत देश में ऐसी अनेक जातियाँ भी रहती थीं, जिनमें सांस्‍कृतिक एवं वैधानिक रूप से एक-पातिव्रत का नियम न था। यहाँ मातृ-सत्‍तात्‍मक काल की, उसके तथा पितृसत्‍तात्‍मक काल के मध्‍यम युग की बहुजातीय नाना संस्‍कृतियों का जाल फैला था।

उत्‍तर-प्रदेश के कुमाऊँ-गढ़वाल क्षेत्र में नायक जाति के लोग अपनी लड़कियों से पेशा कराते थे; छिपे-ढके शायद अब भी कराते हैं। नायक लोग खस-राजपूतों की लड़कियाँ खरीदकर उनसे विवाह करते हैं, अपनी बहुओं को परदे में रखते हैं, किंतु उनसे उत्‍पन्‍न लड़कियों को कमाई का साधन बनाते हैं। सन 1857 से लेकर सन 1929 तक नायक कन्‍याओं की बिक्री को रोकने के लिए सरकार ने कड़े कानून बनाए। उस क्षेत्र के पढ़े-लिखे लोगों ने भी नायकों में नई चेतना और सुधार लाने के लिए अनेक संस्‍थाएँ स्‍थापित कीं, आर्य-समाजी सुधारकों ने भी अच्‍छी सेवा की परंतु सदियों के संस्‍कार आसानी से नहीं मिटते। नायक लोग अक्‍सर मौका पाते ही अपनी लड़कियों को लेकर बाहर निकल जाते हैं और उन्‍हें बेच आते हैं।

हिमालय की कतिपय जातियों में पतिगण अपनी पत्नियों को खरीदते-बेचते हैं। साल-छह महीने एक पत्‍नी को रखा, जब जी भर गया तो उसे बेचकर नई मोल ले ली। इस प्रकार एक स्‍त्री अनेक पतियों के हाथों बिकते-बिकते प्रायः वेश्‍या ही हो जाती है। मेरे लिपिक चि. लवकुश दीक्षित ने इस संबंध में अपना एक अनुभव बतलाया। उसे लगभग नौ-दस महीने तराई के इलाके में जीविकावश सन 1953 में रहने का अवसर मिला था। जिस स्‍थान पर वह था वह नेपाल के चितौन क्षेत्र में हिथौड़ा से पश्चिम, नारायण नदी के किनारे बसा था। उस गाँव का नाम शिलिंगी है। वहाँ एक फारेस्‍ट रेंजर साहब रहते थे। वे पहाड़ी थे। उनके ग्‍यारह पत्नियाँ थीं। लवकुश के निवास-काल में ही रेंजर साहब की दो पुरानी पत्नियाँ मेलों में बेची गईं तथा दो ही नई खरीदकर लाई गईं। रेंजर साहब की जो दो पत्नियाँ बिकीं उनमें एक जरा बड़ी उमर की थी और दूसरी बिलकुल कमसिन ही थी, परंतु उनकी सब पत्नियों में अपेक्षाकृत कुरूप थी। सब-की-सब स्त्रियाँ बहुत ही भली और सीधी थीं। रेंजर साहब अपनी पत्नियों को जेट्ठी, सायली, मायली, लावरी अर्थात बड़ी-सँझली-मँझली-छोटी आदि कहकर पुकारते थे! रेंजर साहब की आयु पैंतीस-चालीस की थी। उनकी जेठी लगभग तीस वर्ष की थी, सँझली पद में बड़ी होते हुए भी मँझली से उम्र में छोटी थी। इसका अर्थ यह हुआ कि पुरानी सँझली निकालकर उसकी जगह नई को भरती किया। पुरानी मँझली अपनी जगह पर ही कायम रही, उसकी पद-वृद्धि न की गई। लावरी पत्‍नी सबसे छोटी लगभग चौदह-पंद्रह वर्ष की थी। जो नई खरीद कर आई वे सोलह-सत्रह के लगभग रही होंगी। जेट्ठी के हाथ में गृहस्‍थी की बागडोर थी। ग्‍यारहों पत्नियाँ एक कमरे में रहती थीं। रेंजर साहब की दो माताएँ अलग कमरे में रहती थीं। पत्नियों को बार-बार बेचे जाने का भय रहता था, इसलिए हिल-मिलकर रहती थीं। इतनी पत्नियाँ होते हुए भी संतानें केवल दो ही थीं; एक तीसरी से और एक शायद छठी या सातवीं से थी। लवकुश को एक जमींदार के यहाँ भी कुछ समय के लिए रहने का अवसर मिला, उसकी भी तीनों पत्नियाँ एक ही कमरे में रहती थीं। वह एक निर्धन व्‍यक्ति 'ऐतू' को भी जानता था। उसके पास ही लड़की का बड़ा-सा कमरा था जिसमें वह, उसका विवाहित पुत्र और विवाहिता पुत्री तथा उनके कच्‍चे-बच्‍चे, सब एक साथ रहते थे।

उसने वहाँ का एक मेला भी देखा था जो नारायणी नदी के किनारे ही कपिलास डाँड़ा नामक एक पहाड़ी पर लगता है। यहाँ कगार में ही लगे पत्‍थर को काटकर शिवजी की एक मूर्ति प्राचीन काल से स्‍थापित है। इस मेले में कौड़ी, मूँगे, चाँदी की भारतीय चवत्रियों के कंठे, बटन आदि के अलावा हाथ की बनी 'रक्‍सी' अर्थात जौ की शराब बिकती है। लड़कियाँ यहाँ के बाजार में छिपे तौर पर बिकती हैं तथा दूसरे बाजारों में बेची जाने के लिए यहाँ से उड़ाई भी जाती हैं। ये लड़कियाँ थारू एवं अन्‍य गरीब जातियों की होती हैं। थारू जाति के दलाल लड़कियाँ बेचने और खरीदने वालों से संपर्क स्‍थापित करते हैं। सौदा पट जाने पर उन्‍हें दोनों ओर से दलाली मिलती है। यहाँ की जमीन पर केवल जमींदार का ही अधिकार होता है। थारू आदि गरीब जातियों के लोग उनके नौकर मात्र होते है; उन्‍हें जमींदार की ओर से भोजन मिलता है। कपड़ा वे स्‍वयं बुन लेते हैं। पहनावा एक धोती का ही होता है। शराब स्‍वयं बनाते हैं और रात में छुट्टी के समय खूब पीकर और अलाव जलाकर स्‍त्री-पुरुष उसके चारों ओर नाचते हैं। नाच में स्‍त्री-पुरुष अपनी पराई का भान नहीं रखते। खूब मस्‍त होकर नाचते गाते हैं, किंतु अनाचार की सीमा पर कभी नहीं पहुँचते। इन गरीबों में किसी की भी एक से अधिक पत्‍नी नहीं होती। कोई-कोई अभागा तो एक भी नहीं खरीद पाता। जमींदार अपनी ही प्रजा की सुंदर कन्‍याओं का अपहरण करवाते हैं, परंतु उन्‍हें अपने यहाँ नहीं रखते, वे दलालों के द्वारा उन्‍हें दूर के बाजारों में बिकवाते हैं और मुनाफा कमाते हैं।

मलबार के नायरों की कन्‍याएँ वहाँ के नंबूद्री ब्राह्मणों की भोग संपत्ति होती हैं। प्रथम बार रजस्‍वला होने पर इनकी कन्‍याएँ धूम-धाम से पवित्र तीर्थकुंडों में स्‍नान करने के लिए भेजी जाती हैं। इसी से नंबूद्रियों को पता लग जाता है। नंबूद्री ब्राह्मणों में केवल ज्‍येष्‍ठ पुत्र का ही विवाह होता है, अन्‍य पुत्रों का नहीं। अन्‍य पुत्र किसी नायर कन्‍या के साथ रात बिताते हैं जिस नायर के यहाँ नंबूद्री ब्राह्मण रात में जाता है वह उसका श्रद्धा भक्ति से स्‍वागत करता है। एक मजे की बात यह है कि नंबूद्री न तो अपनी प्रेयसी नायर कन्‍याओं से विवाह करते हैं और न उनसे उत्‍पन्‍न अपनी संतानों को ही छूते हैं।

सन 52 में दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए मैं, डॉक्‍टर रामविलास शर्मा और प्रिय राजेंद्र यादव तिरुवेंद्रम में एक ऐसे ही मलयालम भाषा के लेखक और पत्रकार बंधु के अतिथि हुए थे जिनकी माता नायर और पिता नंबूद्री ब्राह्मण थे। माता और पुत्र सदा दरिद्रता से लड़ते ही रहे जब कि नंबूद्री पिता के घर दूधों कुल्‍ले किए जाते थे। उक्‍त लेखक-बंधु में अपनी माता के लिए अनंत श्रद्धा और पिता के लिए तीव्र घृणा थी। उन्‍हीं से मालूम हुआ की शिक्षा-प्रसार होने के साथ-साथ नायरों ने अपनी कन्‍याओं को परंपरा की दासता से मुक्‍त कर दिया है।

दक्षिण की अनेक जातियों में अपनी कन्‍याओं को देवदासी बनाने का नियम भी अब से कुछ वर्षों पहले तक सरकारी कानून होने के बावजूद चोरी-छिपे प्रचलित था; इक्‍का-दुक्‍का केस तो शायद अब भी होते ही रहते हैं। इन विभिन्‍न सांस्‍कृतिक परंपराओं के कारण इस देश के काम-जीवन में उच्‍छृंखलता अनिवार्य रूप से आ गई। गणिका अथवा वेश्‍या इन्‍हीं काम-परिस्थितियों की कलात्‍मक सृष्टि हैं।