सीधान्त / श्याम बिहारी श्यामल
प्रश्न पर प्रश्न। हर उत्तर पर पुतलियों में बिजली-सी कौंध-कड़क खिंचने लगती। भिंचती हुई भौंहें में बवंडर जैसी बेचैनी। गिरमिट की तरह घूमती हुईं आंखें कलेजे में जैसे धंसती ही चली जातीं। तमाम परतें छेदती-बेधती हुई। संदेह, अविश्वास और असहमति के गर्म झोंके... --डा. एस. जायसवाल के लिए डा. जे. पाण्डेय का निकट से खुलता यह रूप चौंकाने वाला था। अपेक्षा के सर्वथा विपरीत। मन के भीतर जैसे विस्फोट के साथ कोई पहाड़ फट रहा हो! गर्दोगुब्बार बन दुगुने बड़े आकार में फुलता-फैलता हुआ। कहां पिछले छह महीनों के दौरान मन में बनी वरेण्य विद्वान- आचार्य की उनकी गुरु-गम्भीर छवि और कहां सनकी जैसा यह ऊटपटांग सलूक! इसे सहन करना तो यातनापूर्ण, किंतु करें भी तो क्या! हाथ फंसा हुआ है! अपने घायल मनोभावों को अतिक्रमित करते हुए वे धैर्यपूर्वक बोलते उन्हें संतुष्ट करने का प्रयास चलाते रहे। अंततः डा. पाण्डेय के चेहरे पर बारीक मुस्कान उभर आयी, “ ठीक है... जब आपके मन में अकारण ही मेरे प्रति ऐसी विकट श्रद्धा उत्पन्न हो चुकी है जो थमने का नाम भी नहीं ले रही है तो अवश्य ही मुझे इसका सम्मान करना चाहिए... मैं तैयार हूं... लेकिन आज नहीं... कल शाम में, ठीक पांच बजे मैं आपके यहां पहुंच जाऊंगा... आप ध्यान रखेंगे मुझे भोजन में चार चपाती और एक कटोरी चने की दाल अवश्य चाहिए... हरी सब्जी आप अपनी इच्छा से कुछ भी शामिल कर लें... हां, भोजन के बाद मैं खरका करता हूं... इसका इंतजाम अवश्य बना लेंगे... न मिले तो मेरे घर से भी नीम का खरका मंगा सकते हैं...”
डा. जायसवाल ने विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर आभार जताया था। घर के रास्ते पर कदम तेज हो गये। मन में भाव-प्रतिभावों की उड़ान। ...छह माह पहले! रांची पहुंचे थे वह, योगदान करने। विश्वविद्यालय में कदम रखने से पहले ही किसी ने कान में कुछ तीव्र सम्मोहक शब्द डाले थे-”...आप अच्छी जगह आ गये हैं, डा. पाण्डेय यहीं हैं... इस खोटे समय में भी एकदम खरा आदमी! चौबीस कैरेट का। सिद्धान्त के पक्के। मौलिक सोच और पातालभेदी दृष्टि वाले शख्स! हर स्थिर व्यवस्था को जड़ता मानने और हमेशा इसके विरोध में सोचने वाले! मन में हर सकार व सम्भावना के लिए अथाह शुभकामना किंतु बोली नीम-करैले जैसी... जब चिन्तन में हों तो गहरे तक सक्रिय नील-निस्सीम मौन। बोलने पर उतर आयें तो आसपास को ठिठका देने वाली गरज-चमक व गड़गड़ाहट! नैतिक निर्भयता से भरा ठनकता हुआ व्यक्तित्व! “
नागरी लिपि बुनते कदम
... डिपार्टमेंट आमने-सामने। डा. पाण्डेय अक्सर आते-जाते दिख जाते। सूखी-टटायी हुई पांच फीट की ढकढक हिलती ठटरी। नागरी लिपि बुनते-गढ़ते-से गोल-गोल बनते-बढ़ते कदम। विचारों के कपास लगातार धुनती गतिमान आंखें। आपस में एक-दूसरे से उलझतीं-सुलझतीं भौंहें। आंखों को परेशान करने में जुटीं बेचैन पलकें। घिसट-घिसट कर खिसकने वाले अशक्त-से पांव। हमेशा खोया-खोया-सा दिखने वाला असमय वृद्धत्व-खंचित चेहरा। अपने सामने उमड़ती विराट खारी अलोकप्र्रियता के अथाह विस्तार को रौंदता-चीरता आगे बढ़ता जाने वाला एक ऐसा शख्स, जिसका उग्र आलोचक-निंदक विश्वविद्यालय का लगभग हर व्यक्ति। कुछ मजाकिया किस्से ‘जे. पाण्डेय’ नाम को लेकर तो कुछ गाढ़े गढ़े नमकीन प्रसंग मंझोली कद-काठी और उनके गांव-घर परिवार को लेकर। यथा: डा. पाण्डेय से अधिक शातिर उनके माता-पिता रहे जिन्होंने रांची पर कब्जे का ख्वाब उनसे पहले ही बुन लिया था। किस्सा यह कि इस पठार-क्षेत्र पर काबिज करा देने की दूरगामी साजिश के तहत ही उनका नाम झारखण्डी पाण्डेय रखा गया! डा. पाण्डेय भी तो आखिर डा. पाण्डेय ही! किसी भी टेढ़े से डेढ़े! ‘झारखण्डी’ को ‘जे’ बनाकर छुपा लिया, ताकि अभी किसी भी झंझट से बचा जा सके और जब बिहार का यह पठार क्षेत्र अलग राज्य बन जाये तो धमाकेदार ढंग से पूर्ण नाम उजागर करते हुए एक झटके के साथ ‘कुलपति’ पद झपट लें!
कद्दावर किस्से
कद का किस्सा यह कि डा. पाण्डेय दो दशक पहले जब पटना विश्वविद्यालय से यहां आये थे तो पूरे सात फीट के थे! ताड़ जैसे। पांव फर्श पर तो सिर छत को छूता हुआ! पहली बार देखने वाला चक्कर खाकर गिर ही पड़ता। हर जगह उनकी लम्बाई की चर्चा, किंतु बीस सालों में धीरे-धीरे एक अजीब बदलाव उनमें देखा गया। यह कद करीब दो फीट कम हो गया! कैसे घिसा यह? इसके जवाब में कसौटी और कठौती की कथा: ...डा. पाण्डेय ने ‘हिन्दी साहित्य का नया इतिहास’ लिखने का काम शुरू किया था। एक ओर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तो दूसरी ओर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी! कभी इस हरे-भरे ऊंचे पहाड़ पर आक्रमण तो कभी उस आबाद गुलजार मैदानी या पठार-क्षेत्र पर हमला। यह सब करते-कराते जब वे थक जाते तो पास ही रखी अपने इतिहास की कसौटी पर लोटने लगते! लेकिन, तलवार तो तलवार! दुधारी के सामने उसका निर्माता लोहार आ जाये या निर्धारित निशाना कोई शिकार, व्यवहार में भला क्या अंतर! सो, उनकी कसौटी का स्वयं उनके साथ भी वही सलूक! लिहाजा, अपनी ही कसौटी पर लोटने में वे क्रमशः घिसते-घटते चले गये!
उसी तरह उनके गांव-घर व परिवार के बारे में कई-कई चरचे-किस्से। पांड़े पलामू के जिस चतुरपुर गांव के थे वह सासाराम से रातोंरात उखड़कर पलायित हो यहां आ बसा था! इसका किस्सा कुछ यों: ...सासाराम के चतुरपुर गांव की ‘चतुराई’ के बारे में जब तत्कालीन शासक शेरशाह को पता चला तो वह बहुत चिन्तित हुआ, बल्कि भीतर ही भीतर घबरा उठा! जानकारों और इल्मदारों के साथ सलाह-मशविरा का गंभीर दौर। गहन मनन-मंथन के बाद अंततः एक रास्ता निकाला गया। चतुरपुर के धूर्तों को चिह्नित करने के लिए सासाराम की तत्कालीन अफगानी रियासत द्वारा एक कूट चाल चली गयी। डुगडुगी पिटवा दी गयी कि जो व्यक्ति बगैर जाल लगाये और बिना अपनी आंखों के इस्तेमाल के दिन भर में एक दर्जन कौआ पकड़ दे, उसे पुरस्कार में एक बीघा खेत मिलेगा! डेढ़ दर्जन पकड़ने वाले को दो बीघा और दो दर्जन वाले को तीन बीघा। इसके अलावा सर्वाधिक कौवे पकड़ने वाले को अलग से पांच बीघा! कहते हैं इस ऐलान के बाद गांव में सबकी आंखें अगिया-चकरघिन्नी बन गयीं। चतुरपुर के हर चतुर की महीन नजर बड़े पुरस्कार पर। कहने वाले कहते हैं, इसके बाद तो ऐसी होड़ मची कि कुछ न पूछिये! इलाके के कौवों पर आफत-शामत आ गयी। सुबह से ही खेतों का खूंखार नजारा। जगह-जगह भरा हुआ लोटा दिखता और पास ही पेट के बल पड़ा आदिमवेशी ‘शिकारी’। कनखी से दिमागी निशाना साधता हुआ! कौवा ज्योंही उतर कर पीछे चोंच भिड़ाता, क्षणांश में शिकारी बिजली की गति से पलट जाता। पंख खड़कने से पहले उसे खपककर पकड़ लेता। एक-एक चतुर ने दिन-दिन भर में एक-दो दर्जन कौन कहे, शताधिक कौवे पकड़ लिये। पहुंचने लगे पेश करने। रियासत का दरबार-ए-आम कौवाखाने में तब्दील। हद यह कि निर्धारित मानक के अनुसार ‘ सर्वाधिक ‘ कौवे पकड़ने के दावेदार कोई एक-दो नहीं, पूरे एक सौ तिरपन! रियासत हैरान, ऐसा शातिरपना! हरम के बड़े-बड़े ग़रम ख़ान या तीसमारख़ानों तक को काटो तो खून नहीं। सोचा, यदि ऐसे शातिरों में यदि कभी ‘बहादुरी’ भी आ जाये तो? तब तो कभी क्षणांश में वे इस रियासत को भी यों ही दबोच लेंगे! अब देर करना खतरे से खाली नहीं था। तत्काल रियासती हुक्म ज़ारी हुआ। चतुरपुर गांव की पूरी आबादी ‘रियासत-खारिज’! तत्काल सरहद छोड़ देने का फरमान! चौबीस घंटे के भीतर नहीं हटने वाले का सरक़लम कर देने का ख़ुला ऐलान। तब क्या, मच गयी खलबली! ऐसा ‘पुरस्कार’, तमाम चतुर चकरा गये। अब चतुरपुर के तमाम चतुर खुद को ही धोखा खाकर फंसा हुआ कौवा महसूस करने लगे। क्या करते, सिर पर पांव धर भागते-हांफते ज़ल्दी-ज़ल्दी घरों को लौटे। उठाने-ढोने पर समेटा और गृहस्थी को सिर पर उठाये या पीठ पर लादे अथवा कांख में दबाये अंडे-बच्चे समेत उधियाते भाग चले। पता नहीं कहां, लक्ष्य केवल यही कि जितनी ज़ल्दी हो अपने गांव की इस मनहूस सरहद से बाहर तो हों लें! पूरा का पूरा हुजूम ढहता-उठता, ढिमलाता- संभलता, सूखे पत्तों-सा उड़ता-खिसकता रहा। कहने वाले कहते हैं, उधियाते हुए वेलोग पलामू में घुसकर ही थमे। टांड़ को आबाद करते हुए यहीं अपना चतुरपुर गांव कायम किया।...
घर-परिवार विषयक सर्वाधिक दुहराये जाने वाला एक किस्सा कुछ यों: ...एक दिन रातू रोड पर पांड़े-पंड़ियाइन साथ-साथ पैदल कहीं से आ या जा रहे थे। पंड़ियाइन अतिसतर्कता में किनारे-किनारे दबकर चल रही थीं। पांड़े तनकर पीच पर कदम बढ़ाते हुए। अचानक सामने से एक लदा-फदा ट्रक सनसनाता हुआ आता दिख गया। पहाड़ जैसा। सामने मौत! पंड़ियाइन ने आव देखा न ताव। आंखें फैलाये-फैलाये दाहिना हाथ बढ़ाया और पांड़े का बायां पंखुरा पकड लिया। एक झटके के साथ खींचते हुए अर्द्धचन्द्राकार घूमाते बगल में ला पटका! ट्रक के सामने आने से कुछ ही सेकेण्ड पहले पांड़े बायीं ओर सड़क से दूर पेट के बल लुढ़के धूल फांक रहे थे!
लायक-नालायक नायक
...तो डा. पाण्डेय अर्थात विश्वविद्यालय परिसर में तैरते ऐसे-ऐसे किसिम-किसिम के किस्सों का लायक-नालायक नायक! प्रायः हर रोज जनमने वाले एक न एक नये किलकते विवाद की धुरी। कभी किसी से नहीं हिलने-मिलने वाला आदमी, किंतु यहां से वहां तक समूची परिधि में गूंजता हुआ-सा इकलौता नाम। योगदान करने के एक-दो दिनों के भीतर प्रायः सभी फेकल्टी- डिपार्टमेंट के ज्यादातर प्राध्यापकों ने विभाग में पहुंचकर या राह चलते रोक-टोंककर गर्मजोश स्वागत-शुभकामना की औपचारिकता निभा दी थी, किंतु डा. पाण्डेय ने नहीं। उनसे सामना का संयोग भी कई बार बना। कभी आते-जाते बरामदे में, तो कभी निकलते-घुसते हुए कक्षाओं के दरवाजे के आसपास। हद कि उन्होंने कभी नजर तक नहीं उठायी। हर बार लगता कि यह संभवतः उनकी चिंतनशील आत्ममग्नता हो या इससे उत्पन्न गाफिली, जो उन्हें अपने में लपेटे-समेटे- सिकोड़े उड़ाये लिये चल रही हो!
जाने-अनजाने दिमाग में उनकी एक अलग छवि बनती चली गयी। लगातार चिन्तन-भूमि में विचरण करने वाला शख्स। न इस ‘माननीय‘ की मिजाजपुर्शी, न उस ‘महामहिम‘ की परवाह! अपने काम से काम और इसके बाद तो विश्वविद्यालय के सारे विषैले ही नहीं, दुनिया भर के तमाम तीसमार खां तक ठेंगे पर! दूसरी ओर, उनके बारे में अलग-अलग शब्दावली में प्रायः सबकी उग्र असहमतियों-शिकायतों का यही निचोड़ कि यह व्यक्ति विद्वान चाहे जितने ऊंचे दर्ज़े का हो, मनुष्य एकदम घटिया है! कभी भी किसी भी बात पर अचानक आक्रामक हो उठने वाला, गरजते-फनियाते हुए किसी को कुछ भी बोल देने वाला। बाद में भी न कोई भूल-सुधार, न अफसोस। कुछ यों जैसे जो भी कह-बोल दिया, वही अंतिम सत्य हो!... अब जैसे यही एक ताजा उदाहरण। सामने उपस्थित हो हाथ जोड़कर भोजन पर आमंत्रित किया जा रहा है, तब भी ऐसा व्यवहार!
घर लौटते हुए डा. जायसवाल का मन आहत: ...आखिर डा. पाण्डेय को किस बात का ठस्सा है! काम न फंसा होता तो मैं पहले ही सवाल पर दांत पीसते हुए उन्हें डपट देता। उल्टे पांव लौट आता! भला ऐसा भी कहीं होता है कि समान ओहदेदार के साथ कोई ऐसे पेश आये! ऐसे-ऐसे प्रश्न करे जिनसे दिमाग की नसें तड़तड़ाने लगें! आखिर क्यों वे स्वयं को एकदम खास और मुझे घास समझ रहे हैं! उम्र के लिहाज से उनके पुत्र के समान होकर भी मेरा प्रोफेशनल प्रोफाइल उनसे उन्नीस कहां है! विश्वविद्यालय में जैसे एक विभाग के हेड वह, वैसे ही दूसरे का मैं। जितनी किताबें उनकी प्रकाशित या पाठ्यक्रमों में शामिल, मेरी उनसे एक-दो अधिक ही। अंतर यही कि दर्शन-शास्त्र का होने के नाते मैं समाज में कुछ कम परिचित-समादृत जबकि हिन्दी साहित्य का आचार्य होने के नाते वह थोड़े अधिक। लेकिन इसी वजह से उन्हें क्या मेरे साथ एकबारगी ऐसा रुखा-सूखा या साफ कहें तो कंटीला व्यवहार करना चाहिए! यह कहां की सज्जनता है, कैसी विद्वता? अजीब बात यह कि ऐसे ऊलजलूल व्यवहार वाले व्यक्ति को भी इस शहर के बौद्धिक-जन देवता बनाकर पूज रहे हैं। वह जिसे जितना ही दुत्कारते हैं वह उतनी ही अधिक श्रद्धा से लबरेज हो खिंचा चला आता है। सेवा में जुट जाता है! अब उसी दिन की बात। विभाग में प्रो. अली और प्रो. सुमन कैसी श्रद्धा-भक्ति के साथ उनकी ताजा छपकर आयी किताब की प्रस्तावना पढ़-पढ़ कर कैसे अभिभूत हो रहे थे! क़िताब के पहले पन्ने की टिप्पणी कि जिसमें उन्होंने अशिष्टता की सारी हदें पीछे छोड़ दी है! क्या किसी लेखक या विद्वान ने पुस्तक की ‘भूमिका’ के नाम पर अपने ही लोगों की ऐसी छीछालेदर कभी पहले भी की होगी ? भला यह भी कोई लिखने या कहने की बात है कि अमुक पुस्तक के लेखन-काल में पत्नी से लेकर फलां-फलां मित्र व सहयोगी आदि तक ने कैसे जरा भी मदद नहीं की! या यह कि सबने अपनी ताक़त भर हर संभव बाधा पहुंचाने की पूरी-पूरी क़ोशिश की है, अतः किसी को धन्यवाद देने का प्रश्न ही नहीं! यह बदतमीजी नहीं तो और क्या है?...
किचेन में कविता
दरवाजे पर ही खड़ी मिली कविता, “ डाक्टर सा‘ब ने स्वीकार किया निमंत्रण? “
डा. जायसवाल बरामदे में कदम रखते ही रुक गये। कुछ देर जैसे काठ बने रहे। पत्नी ने घबराकर हाथ पकड़ झिंझोड़ा तो त्राहिमाम अंदाज में सिर हिलाने लगे, “ बाप रे, वह कैसे आदमी हैं! मेरा अनुरोध सुनते हुए एकदम यह भूल ही गये कि मैं कौन हूं! तमाम तरह के टेढ़े-मेढ़े प्रश्न पर प्रश्न दागने लगे! कुछ यों जैसे मैं यहां बुलाकर उन्हें किसी के हाथों नीलाम भी कर सकता हूं! ...एक बार तो मन में आया कि जोर से डांट दूं, पांव पटकता हुआ लौट आऊं लेकिन... “ बोलते हुए वह भीतर आने लगे।
“ आपने अपना प्रयोजन बताया या नहीं ? “ कविता किचेन में घुस गयी।
“ अरे, तब तो वह आने से सीधे ही इनकार कर देते... दरअसल, यही सब तो जानने- जांचने के लिए वे सवालों के जाल फेंकते रहे.. मैंने चाल समझ ली थी... इसलिए सतर्क हो गया और उन्हें उनके मकसद में कामयाब नहीं होने दिया...” डा. जायसवाल हाथ-पांव धोकर सामने ड्राइंग रूम में ही दीवान पर लम्बे हो गये, “... आज नहीं, उन्होंने कल शाम में आने की स्वीकृति दी है.... अब वे यहीं जब आ जायेंगे और भोजन आदि कर चुके होंगे तब धीरे से अपनी बात कहूंगा... बेशक बहुत कायदे से कहना होगा, तभी बात बनेगी, अन्यथा वह आदमी बहुत खतरनाक लगे...”
कविता कद्दू-चाकू पकड़े किचेन से निकली, “ काम हो जायेगा न? कहीं ऐसा...”
“ अरे, कुछ नहीं! “ डा. जायसवाल उठ बैठे, “...खाना खा लेने के बाद पहले तो मैं उन्हें ठीक से यह बात महसूस करा दूंगा कि अभी चाहे भले मेरा एक छोटा-सा काम उनके हाथ में हो, आखिर मैं भी एक डिपार्टमेण्ट का हेड हूं, कल मैं भी तो उनके काम आ सकता हूं... यह तो दुनियादारी है, कभी नाव पर गाड़ी तो कभी गाड़ी पर नाव! “
“ हां! आप हैं न! “ वह मुस्कुरायीं, “ मुझे विश्वास है, आप काम निकाल लेंगे! “
तीर खुबा
डा. पाण्डेय ने पांच बजते ही दस्तक दे दी। जायसवाल दम्पति ने विनम्रता के साथ स्वागत किया। उन्हें ससम्मान भीतर लाया गया। ड्राइंग रूम में वे घूम-घूमकर दीवारों पर लगी महापुरुषों की तस्वीरें निहारने लगे। बहुत बारीकी और सम्मान के साथ। बैठने लगे तो गौर से ताकते हुए मुस्कुराये, “ भाई, एक बात पूछूं ? “
“ हां... हां! क्यों नहीं... जरूर पूछिये! व्यक्ति रूप में मैं आपसे बहुत छोटा हूं “
“ छोटा तो मैं हूं! मेरी एक चौथाई आयु बची है, जबकि आपकी अभी आधी! “
मन ही मन इस तर्क ने मुग्ध किया किंतु इस चर्चा को यहीं रोक देना अधिक जरूरी लगा। बात बदलने का प्रयास करने लगे, “ आप अभी कुछ पूछना चाह रहे थे... “
“ इतनी सारी तस्वीरें देख मन में एक सवाल उठा है- मित्र, आप कैसे दार्शनिक हैं, मनन-मंथन वाले या दर्शन-पूजन वाले ? “
एकबारगी सीने पर जैसे कोई तीर आकर खुब गया हो। तिलमिलाकर रह गये डा.जायसवाल। बहुत कठिन संयम के साथ स्वयं को नियंत्रित रखा। उल्टे, मुस्कुराये। वह अब गम्भीर हो गये, “ यहां कहीं किताबें नहीं दिख रहीं जबकि तस्वीरों की भरमार है... “
“ ...डाक्टर सा‘ब! अलग कमरा है, उसी में किताबें हैं... बहुत सारी... “
“ ...किताबें साथ नहीं रह सकतीं क्या... उनके लिए अलग से जेल या गोदाम क्यों! “
फिर खट्-से दिल पर जैसे कोई बाण आकर चुभा हो। उनका स्वर समतल और धीमा किंतु लोहे-सा ठोस, “ विचारकों के मिट चुके चेहरों की छवियां आप दीवारों पर टांगे हुए हैं, अधिक कारगर तो यही होता कि उनके अब तक नहीं मिटे अक्षत विचारों को सामने रखते जो कि पुस्तक रूपों में विद्यमान हैं और जैसा कि आप बता रहे हैं, आपके यहां उपलब्ध भी हैं!... “
डा. जायसवाल तिलमिला उठे, लेकिन भीतर ही भीतर। खून का घूंट पीकर रह गये। मन में आया कि उन्हें बरज दिया जाये! यह क्या कि वह अपना ही टेढ़ा-मेढ़ा दृष्टिकोण सर्वशुद्ध और सर्वोच्च मान लादते चले जा रहे हैं! आवश्यक नहीं कि हर आदमी किसी एक ही नजरिये से जीवन-जगत को देखता चले! कैसा लगेगा तब, जब दुनिया भर के लोग एक जैसे रंग-रूप- स्वभाव में ढल जायें या एक साथ एक जैसी हरकतें करते दिखें! क्या तब यह पूरी सभ्यता यंत्रीकृत नहीं हो जायेगी! एक विचारक या लेखक की एकाधिक-दर्जनाधिक और कभी-कभी शताधिक पुस्तकें हो सकती हैं! इन्हें एकमुश्त न तो कहीं कम स्थान में सजाया जा सकता है न चलते-फिरते इन पर दृष्टि डाल इनसे तत्काल प्रेरित-अनुप्रेरित ही हुआ जा सकता है... किंतु महापुरुष की छवि पर एक नजर पड़ते ही उनके विचारों का आत्मा-रूप पल भर में प्राणों के भीतर लौ बन जीवंत हो उठता है! जैसे, दृष्टि-संस्पर्श-लाभ के खयाल से विराट गांधी वाङमय की अपेक्षा अधिक प्रभावी बापू का चेहरा है! इसीलिए तो हमारे यहां मूर्तन-चित्रण की सर्वोच्च प्रतिष्ठा है! धर्म-अध्यात्म से लेकर साहित्य-कला, संगीत और अन्य अनुशासन-क्षेत्रों में! मुंह से निकल गया, “ जानकार व्यक्ति के मन में किसी भी महापुरुष के स्मरण के साथ ही उनके नीति-सिद्धांत भी जागृत हो उठते हैं! “
डा. पाण्डेय की आंखें हिलीं। आवाज टीस जैसी, “ ...नीति-सिद्धान्त? नीतियां तो आज सर्वत्र नत हो चुकी हैं भाई... और तमाम सिद्धान्त तीव्र गति के साथ एक-एककर सीधे अन्त को प्राप्त हो रहे हैं... सीधान्त!...”
मन में असहमति के तर्क-तथ्य डभकते रहे किंतु डा. जायसवाल ने चुप रहना ही लाभप्रद समझा। यह ख़तरा महसूस करते रहे कि मुंह खोलते ही बेमतलब बहस भड़क सकती है! तेज-तेज पलकें झपकाते हुए वे चुपचाप जैसे तमाम प्रतिकूलताओं को फटकारते रहे। कविता का संकेत पाकर वे उन्हें साग्रह लेकर भीतर डाइनिंग स्पेस में आ गये। टेबुल पर कांच के एक जैसे हल्के गुलाबी रंग के कई सारे भरे-पूरे पात्र। भाप व सुगंध के उठते हुए झोंके। आलू-गोभी की खूब भुनी हुई सूखी सब्जी। तैरते-चमकते घी की रंगत वाला पालक-पनीर से भरा कटोरा। करैले की खनखनाती भुजिया। कद्दू व चना दाल की सब्जी। गर्म रोटी की महकती मिठास। गोविन्दभोग चावल की क्षुधोन्माद भड़का देने वाली भीनी-भीनी दानेदार सुगंध। हवा पर फैलता स्वाद का एक समूचा संसार। डा. पाण्डेय की आंखों में पल भर के लिए सविस्मय हर्ष-भाव कौंध गये। दूसरे ही पल फिर सबकुछ पूर्ववत्। चमकती आंखें कभी पास बैठे डा. जायसवाल, तो छटपट दृष्टि कभी सामने खड़ी कविता पर। टेबुल पर दृष्टि दौड़ाते हुए वह प्रश्नवाचक हो गये, “ कैसे करना है? प्लेट में स्वयं निकाल लूं या परोसकर देंगे? “
कविता सम्मान प्रकट करती आगे आ गयीं। खाली प्लेट उठाकर उनके सामने रख दिया, “ कहें तो मैं निकालकर दूं... वैसे यदि आप एक-एककर स्वाद जांचने के बाद स्वरुचि से स्वयं इच्छानुसार निकाल-निकालकर ग्रहण करें तो यह अधिक... “
डा. पाण्डेय ने हाथ बढ़ाकर चार रोटियां उठा लीं। सब्जी की ओर झुके, “ यह नजरिया ठीक है कि स्वादानुसार स्वयं लिया जाये... यह क्या कि एक ही बार लाद लो और स्वाद नहीं जमे तब भी पूरा उदरस्त करने की शिष्टता निभाने में जुटे रहो...”
वह इत्मीनान से बिना किसी चर्चा-परिचर्चा के भोजन ग्रहण करने लगे। थोड़ा-थोड़ा सबका स्वाद लेते हुए। विनम्रता से भरे जायसवाल व कविता सेवा में लगातार तत्पर। चपातियों के बाद उन्होंने सस्मित निरखते हुए थोड़ा-सा चावल भी ले लिया। मुंह चलाते हुए आंखें मूंद लेते तो तृप्ति की चमक कौंधती-सी दिख जाती। अप्रत्याशित यह कि मात्रा तो अधिक नहीं किंतु पर्याप्त समय लेकर उन्होंने खूब पसंद से भोजन किया! हाथ धोने उठे। बेसिन पर एक दृष्टि डाली। पता नहीं क्या सोचा-समझा, तत्काल बाहर की ओर बढ़ गये। बरामदे में दरवाजे के पास स्टूल पर कटोरी रखी थी, नीम के खरकों से लगभग भरी। इसके बगल में ही लोटे में ढंककर पानी। फर्श के कोर पर चुकुमुकु बैठ गये वह। कुला-गलाली की। इसके बाद सींक से दांत खोदने लगे। डा. जायसवाल तौलिया थामे पास ही खड़े रहे, “ डाक्टर सा‘ब! आपका जब कभी संकेत हो मैं भी आदेश मानने को तत्पर रहूंगा... फिलहाल आपसे मेरी एक प्रार्थना है... “ मुंह में पानी भरे वह चौंककर मुड़े। उसी दिन की तरह आंखें फिर भंवर! कान खड़े। विनम्रता से जायसवाल ने बात आगे बढ़ायी, “..कविता प्राइवेट से हिन्दी में एमए कर रही हैं.. परीक्षा हो चुकी है.. कॉपी आपके ही पास... “
खटका और खरका
डा. पाण्डेय का पूरा मुखमण्डल आग का गोला! छाती धौंकनी, सांसें तूफान। जैसे रूई का पहाड़ सुलग उठा हो। आवाज पतली, किंतु आग की लकीर जैसी, “ भाई, जायसवाल जी, लोटा का पानी समाप्त हो चुका है... कृपया पानी और मंगायें... “
दौड़कर भीतर गये डा. जायसवाल। भरा हुआ मग लेकर लौटे। लोटा भर दिया। डा. पाण्डेय ने खरका फेंका। मुंह में अंगुली कर ‘ओऽ... ओऽ... ओऽ... ओऽ...’ करने लगे। नीचे लध-लध उबकाई! लार-खखार के साथ चबाया हुआ खाना! ढेर। जायसवाल हक्का-बक्का। डा. पाण्डेय ने पानी मुंह में भरा और कुला करने लगे, “ भाई जायसवाल, मैंने तुम्हारा जो कुछ खाया-पिया था, सब दाना-दाना निकाल दिया है! आकर नीचे देख-मिला लेना... “ डा. जायसवाल हतप्रभ। डा. पाण्डेय के शब्द अंगारों जैसे, “...तभी मैं कहूं कि इस युग में आखिर कोई किसी को भोजन पर इतने सम्मान के साथ यों ही कैसे आमंत्रित कर सकता है! “