सीनाजोरी और अजीब घटनाएँ / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
फिर तो चोरी के बजाए सीनाजोरी कर के हम लोग ट्रेन पर चढ़े। हमें जिद्द हो गई कि चाहे कुछ हो, चढ़े बिना नहीं मानेंगे। मैं तो इस प्रकार के अपने स्वभाव का उल्लेख पहले ही कर चुकाहूँ। मनुष्य को समय-समय पर निर्भीक, लापरवाह और साहसी तो होना ही चाहिए। नहीं तो फिर वह मनुष्य ही कैसा?खैर, हमारी ट्रेन चल पड़ी। तेज गाड़ी थी। दोपहर के पहले का समय था। शायद ज्यादा दिन न आया था। जब प्वाइंट्समैन के बताए स्टेशन पर ट्रेन लगी तो हम दोनों ही उसके कहे मुताबिक निश्चिंत हो कर उतरे ही थे कि हमसे स्टेशनवालों ने टिकट माँगा और न दे सकने पर स्टेशन मास्टर ने बिगड़ कर कहा कि “ये दोनों चोर हैं, गार्ड साहब, बीना ले जा कर इनसे झाँसी (क्योंकि जंक्शन है) तक का चार्ज लीजिए” फिर उसने हमें गार्ड के हवाले कर पुन: ट्रेन में चढ़ने को विवश किया। पता नहीं गार्ड ने क्या सोचा। उसने हमें ललितपुर में देखा तो था ही और 'केवल बच्चा' बताया था। वहाँ की बात उलटी हुई। जो स्टेशन मास्टर हमें शरण देनेवाला बताया गया वह पुलिस का पक्का आदमी जैसा निकला। शायद बेचारे प्वाइंट्समैन की जानकारी ठीक न थी, या इस बीच में पहला स्टेशनमास्टर बदल कर कोई नया आया था। मगर उस स्टेशन पर और किसी ने भी हमारे साथ हमदर्दी न दिखाई।
जो हो, हम लोग फिर ट्रेन में बैठे और थोड़ी देर में बीना पहुँच गए। ट्रेन लगते ही हम दोनों फौरन उतर कर जो फाटक पर पहुँचे तो टिकट जमा करनेवाले ने टिकट माँगा। हमने अपनी बात साफ कह दी और उसने कहा “जाइए महाराज” फिर क्या था, हमारी खुशी का ठिकाना न रहा। यहाँ भी उलटी बात हुई फँसने का खतरा पूरा-पूरा था। मगर बाल-बाल बचे। न जाने वह गार्ड बेचारा कहाँ रहा। हम तो स्टेशन के बाहर चले आए और हमें उसका पता क्या?शायद उसने पीछे हमारी खबर ली हो और सोचा हो कि शिकार भाग गया। पर हम तो सामने से आए और साफ कह के आए। कोई छिप-छिपाके तो आए नहीं। और हमारा कोई यह फर्ज भी न था कि गार्ड से कहने जाते, या उसकी इंतजार करते और उसके तशरीफ लाने पर ही बाहर आने की कोशिश करते। हमने तो उन सबों की ऐंठ और निराली समझ देख जिद्दवश यह मार्ग पकड़ा था और साहस के बल हम अपनी सफलता उन्हें दिखाना चाहते थे। सो तो सफल हुए ही।
स्टेशन से बाहर होते ही शहर की ओर चले, क्योंकि भोजन का समय हो गया था। हम यह जानते थे कि उधर शहरों में घीवालों की आढ़तें होती हैं। हमने यह भी अनुभव किया था कि घी-वाले हमारे जैसे साधुओं को देखते ही फौरन पूड़ी-मिठाई खिला कर विदा कर देते थे। बस, हम भी घी के एक आढ़तिया को ढूँढ़ते हुए पहुँचे और उसने फौरन हमें खूब डँट के मिठाई-पूड़ी का भोजन कराया। भोजन के समय भी और उसके बाद भी आज तक याद आने पर हमने सैकड़ों बार सोचा है कि यदि बीना से पहलेवाले स्टेशन पर ही हम उतर पड़ते और कोई छेड़ता नहीं, तो बीनावाली वह मिठाई-पूड़ी कौन खाता?मालूम होता है, उसी ने वहाँ बाधा डाल उतरने न दिया और बीना तक पहुँचा दिया। जहाँ झाँसी तक के चार्ज की वसूली तो खटाई में पड़ी रही ही उलटे हमने अच्छी तरह भोजन किया। ऐसे ही मौकों पर तो लोग भाग्यवाद और तकदीर का सहारा लेते हैं। ऐसे ही मौकों के अनुभव से किसी कवि ने कह दिया है कि,
“अंदलीबो को कफस में आबोदाना ले गया“