सीवनें उधड़ती हुईं / चंद्र रेखा ढडवाल
“नीमा दी का फोन आया है कि पापा की तबीयत अच्छी नहीं है।” अभी तक खुद को संभाला हुआ था। पर इन्हें बताते हुए, मैं रूआंसी होने लगी।“मुझे तो एक घण्टे की भी छुट्टी नहीं मिलेगी इन दिनों।” “आप को छुट्टी क्यों चाहिए ?”“जरूरत पड़ सकती है, भई ! मेरा मतलब है ।” “फ़िलहाल आप के किसी मतलब से, कोई ग़रज़ नहीं है मुझे। थोड़ी ही देर में दीदी व जीजा जी, इधर से होकर निकलेंगे। मैं उनके साथ जा रही हूँ।” सख़्त हो गई मैं। इस आदमी के सामने मुझे रोना नहीं है। जिसने यह तक नहीं जानना चाहा कि पापा को हुआ क्या है ।
शाम को करीब छः बजे घर पहुंचे हम लोग। भाई हमसे पहले पहुंचे हुए थे। लम्बे सफर की थकान मिटाने को, बागीचे में घूम रहे थे। जीजा जी व दीदी उनसे बात-चीत करने लगे और मैं सूट-केस उठाए ड्राईवर के पीछे भीतर चली गई। पापा, पलंग पर आंखे बन्द किए हुए लेटे थे। पास रखे स्टूल पर बैठी तो जैसे आहट लगी उन्हें। आंखे खोल कर मुझे देखा पर बोले कुछ नहीं। दीदी ने बताया था कि उनकी जुबान चली गई है। लेकिन भरोसा था कि मुझे देखते ही, ‘गुड्डू’ तो निकलेगा ही उनके मुंह से । भाभी ने चाय की प्याली थमाई तो सहेज नहीं पाई। “और लाती हूं, रानी।” वह बोलीं तो ऊंचे-ऊंचे रो पड़ी मैं। मुझे बाहों में भरकर वह भी सिसकने लगीं।
“मरीज़ के बाजू में यह सब नाटक करने की ज़रूरत है क्या ? ”दरवाज़े में खड़े-खड़े ही दीदी ने कहा तो घुटनों के बल बैठ कर मैं टूटे कांच बटोरने लगी और भाभी रसोई में चली गईं। “तुम जाओ, पापा के पास बैठो भाभी, मैं देखती हूं यहां।” कचरा-पेटी में टूटी प्याली डालते, मैंने कहा। “नहीं रानी, सफर करके आई हो। थोड़ा आराम कर लो।” “तो चलो, तुम भी चलो। बाद में मिलजुल कर बना लेंगे खाना।” “मुझे कर लेने दो, बड़े भैया कह रहे हैं, जल्दी करने को। दोपहर को कुछ भी नहीं खाया उन्होंने।” “पापा को क्या देना है ?” “दिन को खिचड़ी दी थी अभी तो दूध ही दे दूंगी।” “डाक्टर ने क्या कहा है ?” “सेवा करो। धीरे-धीरे ठीक हो जाएंगे।”
सुबह भैय्या और दीदी पापा को अस्पताल ले गये। दोपहर बाद लौटे तो बहुत नाराज़ थे। “कभी तो ढंग का काम किया करो निशान्त। इतना तो तुम कर ही सकते थे कि पापा की जांच करवा कर इनकी असलियत हमें बता देते। बोल नहीं पाएंगे यह, बाकी कुछ नहीं होने वाला है इन्हें। अब चार दिन बाद सच ही ज़रूरत पड़ जाए तो छुट्टी मिलेगी क्या रोज़-रोज़।” पापा के कमरे में ही शुरू हो गये भैय्या। “जब कुछ नहीं होने वाला तो क्यों ज़रूरत पड़ेगी ?” “पता लगता है कुछ ? उम्र तो हो ही गई है।” भय्या की आवाज़ ऊंची हो गई । “यही कहा था मुझ से भी डाक्टर ने, इसीलिए ।” “अब तुम्हारी इसीलिए-उसीलिए सुनने लगा तो पहुंच नहीं पाऊंगा आधी रात तक । अभी निकलना है मुझे। पैसों की ज़रूरत हो तो बोलो।” “हैं मेरे पास।” “तुम्हारे पास हैं ?" भय्या ने चश्मे के ऊपर से निशान्त को घूरते हुए पूछा। “मेरे पास, मतलब कि पापा के एकाऊंट से निकाल लिए है।”
"हम भी निकल चलते हैं रानी ।” दीदी ने कहा। “नहीं, आप सुबह निकलो।” “क्यों, सुबह क्यों ?” “एक तो पहुंचते-पहुंचते रात हो जाएगी । दूसरा ड्राईवर भी थका होगा। यहां आकर भी आराम नहीं किया, न उसने न आपने।” “यही करने आते हैं हम। क्वालिटि टाईम देते हैं। पूरी-पूरी दोपहर पापा के साथ ताश खेल लिया या उनके कमरे में, रात के ग्यारह-ग्यारह बजे तक सीरीयल देख लिए । यह नहीं होता हमसे । ” “तो, यह भी कीजिए न इस बार । छोटी भाभी को अपनी मां से मिले डेढ़ बरस हो गया है । वह बता रहीं थीं।” “तुम बताओ? चल रही हो या नहीं ?” “नहीं।” “क्यों ?” “मैं रहना चाहती हूं पापा के पास।” “पापा के पास हैं ये लोग। वहां सुचेत अकेला है।” “मुझे नहीं जाना है दीदी।” बांह से पकड़कर दूसरे कमरे में ले गईं वह।
“ठीक हैं पापा, कुछ नहीं होगा इन्हें” “भय्या कह रहे थे कि डाक्टर ने कहा है, उम्र हो गई है। क्या पता लगता है ।” “वहां अपने घर का पता है तुझे ?” “क्यों मेरे घर में क्या है ?” “छः-साढ़े छः बजे न पहुंच कर, दस-दस बजे, क्यों पहुंचता है तेरा पति ?” “अब मैं कैसे जानूंगी ?” “सच ही नहीं जानती, या बनती है ?” “मैं क्यों बनूंगी दीदी ? अब, नहीं जानती तो नहीं जानती ।” “नहीं जानती, तो रोना अपनी किस्मत पर दुहत्थड़ मार कर।” “अभी मैं यहां रूक कर पापा के लिए रो लेना चाहती हूं । यह रोना यदि लिखा है नसीब में तो वक्त है उसके लिए। वैसे आप क्यों नहीं रूक रहीं। जीजा जी को जाने दीजिए , उनके साथ तो ऐसी कोई बात भी नहीं शायद।” “फालतू मत बोलो।” “मैं खाली पूछ रही हूं।” “पूछ रही हो तो सुनो, मेरे बच्चे हैं वहां।” “आप की बेटी चौबीस (दीदी अभी बाईस की ही बताती हैं) और बेटा इक्कीस का होने वाला है। बच्चे नहीं हैं वे।” “तुम कैसे जानोगी कि बच्चे कब तक बच्चे रहते हैं मां बाप के लिए।” “मैं जानती हूं दीदी ! पापा से जाना है मैंने।”
भाभी ने रात के खाने के लिए आलू के परांठे और आम का आचार ही नहीं, एक बड़ी सी थरमस में कॉफी भी डाल दी। दीदी और जीजा जी के लिए। भय्या रास्ते में कुछ नहीं खाते। उन्होंने चलने से पहले भर-पेट परांठे खा लिए। सब को भेज कर भाभी ने जल्दी-जल्दी चौका-बरतन निबटाया। फिर पापा के पैताने बैठ कर उनके पांव की तलियों में तेल लगाने लगीं। थोड़ी देर बाद निशान्त ने कॉपी और पेन्सिल दी पापा के हाथ में कि वह बताएं रात को क्या खाना चाहते हैं।
मैंने सहारा दिया तो अधलेटे से पापा ने कापी पकड़ ली। “मुर्गा”, पढ़ा तो मुंह देखने लगी मैं दोनों का। निशान्त ने पापा से कापी लेते, उन्हें देखते हुए बांई आंख दबाई और कमरे से निकल गया। काली मिर्च और नमक डाल कर उबाल लाई भाभी मुर्गे की टांग। चम्मच से वह पानी नुमा सूप पिलाने के बाद हाथों से मीथ-मीथ कर टांग का कुछ हिस्सा भी खिलाने लगीं। खा चुके तो उनके पीछे बैठ कर निशान्त उनकी पीठ मलने लगा और भाभी रसोई में चली गईं। टी0वी0 के लाफ़्टर चैलज में कहे जा रहे एक चुटकुले पर हम दोनों भाई-बहन ज़ोर से हँसे तो भाभी भी रसोई से भागते हुए कमरे में आ खड़ी हुईं।
पापा ने अजीब सी आवाज़ निकाली तो तीनों ने एक साथ उन्हें देखा, वह भी हँसने की कोशिश में थे ।
साभार : कथा देश - जुलाई 2012