सुंदरतम पाप / जगदीश मोहंती / दिनेश कुमार माली
उस स्त्री को देखकर पहली समझ गया था यह मैडम कुछ देगी। आजकल लोगों को देखकर पहली समझ जाता था, कौन देंगे और कौन नहीं देंगे। वह औरत किधर जाएगी देखना बाकी था। पहली की तरफ से आरंभ करेंगी तो कोई बात नहीं। अगर दूसरी तरफ से पैसा देना आरंभ किया तो हो सकता है पहली के पास तक नहीं पहुंचेगी। कोई क्या मुट्ठी भर पैसे लेकर आता है कुष्ठरोगियों को बांटने के लिए।
पहली को आते- आते थोडी देर हो गई थी। दूसरे तो आधी रात को आकर कंबल ओढकर सोए पडे रहते हैं मंदिर के सामने, अपनी- अपनी जगह कब्ज़ा करने के लिए। पहली को जगह नहीं मिली। इसके अलावा नींद टूटने के बाद थोडी-सी चाय नहीं मिलने से उसका नहीं चलता था। रात को तीन बजे नींद टूट गई थी। उस समय स्टेशन पर चाय की दुकान खुली रहती थी। चाय के लिए दो किलोमीटर दूरी तय करना पड़ा था पहली को। इसलिए मंदिर के पास पहुंचते-पहुंचते देर हो गई थी। हर दिन सुनंदा उसके लिए जगह रख देती थी। आज सुनंदा भी नहीं आई थी।
उस औरत ने दूसरी तरफ से पैसे बांटना शुरु किया। एक- एक को एक रूपया। पहली थोडा आशान्वित था । रात को साढे तीन बजे थोडी स्वादहीन चाय पी ली थी। एक रूपया मिलने से उसका खर्च निकल जाता। मगर वह औरत उधर से पैसे बांटते- बांटते उसके पास पहुँच जाती तो। आँखे बंद करके उसने कटोरे में पैसे गिरने के शब्द सुने “ईश्वर! तुम्हारा भला करें। बाल-बच्चें सुखी रहें।” आशीर्वाद उसके कान में पडा। और पांच जनों को पैसे देने के बाद मैडम उसके पहुंची अथवा नहीं, उसी उत्कंठा में प्रतीक्षारत था पहली। मगर ठीक उसके पास पहुँचते वक्त मैडम का बटुआ खाली हो गया। वह पहली की ओर देखकर अप्रस्तुत मुद्रा में थोड़ा मुस्कराई। कहने लगी: “खत्म हो गए। दूसरी बार दूंगी।”
ऐसे ही होता है पहली के साथ। हर बार। उसके पास पहुँचते ही भाग्य की देवी का भंडार खाली हो जाता है। गुरुद्वारे में लंगर लगाते समय उसकी बारी आई तो सब्जी खत्म हो गई थी। ट्रेन में नयना आदि लोग घूम-घूमकर मांगते हैं, कुछ नहीं होता है, मगर वह जिस दिन ट्रेन में चढ़ता है, उसी दिन चेकिंग होती है। इसी तरह कुष्ठाश्रम में उसके समय ही हर बार दवाईयाँ समाप्त हो जाती है। पहली को पता था, उसके पास पहुँचते समय मैडम के पैस खत्म हो जाएंगे। आज सुनंदा नहीं आई। क्यों नहीं आई? कहीं बीमार तो नहीं हो गई? उसको हमेशा सर्दी जुकाम लगा रहता है। बीच-बीच में बुखार भी हो जाता है। कल कह रही थी, मंदिर के सामने जब वह आई थी तो उसके लिए मूढ़ी का लड्डू भी लेकर आई थी।
“मूढी का लड्डू? कहाँ से लाई?”
“मैने बनाया है।”
“जब रसोई करती हो तो भीख क्यों मांगती है।” पहली चिढ़ गया था ।
सुनंदा को भिखारन कहने पर वह चिढ़ गया था। कहने लगी, भिखारन मत कहो। जानती हो मेरा आदमी तहसील ऑफिस में क्लर्क था। तुम्हारे जैसे कोई स्कूटर मैकेनिक नहीं था। हमारे घर पर पैसों की कमी नहीं थी। तहसील ऑफिस में काम करने के लिए लोग मुर्गे- मछली घर पर देकर जाते थे। सुनंदा अपने अतीत में खो गई थी। पहली भी सुनंदा के अतीत को अपनी कल्पना में देखने लगा । एक सुंदर मध्यमवर्गीय परिवार। घर के सामने परदा लगा हुआ था। सुबह- सुबह सुनंदा घर को बुहार रही थी। बिस्तर समेट रही थी। टी.वी के ऊपर की धूल को साफ कर रही थी। सोफासेट के कुशन कवर बदल रही थी। रविवार होने पर घर के जाले साफ करती थी। कल्पना में पहली सोचने लगा , कैसा दिखाई पड़ रहा था सुनंदा का घर। घर के अंदर का वातावरण एकदम शांत था। बाहर से पसीने से तर- बतर होकर लौटने पर घर स्वागत करता था?
बहुत दिन बीत गए उसे उस घर में घुसे हुए। कुष्ठाश्रम में जैसा घर मिला था, वह वैसा नहीं था। केवल एक कमरा था। इतना छोटा कमरा कि केवल हाथ पैर फैलाकर सो सकते थे, फर्श पर। एक खाट भी नहीं डाली जा सकती थी वहाँ। खड़े होने पर सिर से छ अंगुल ऊपर छत थी। बिजली का कनेक्शन भी नहीं था उसमें। गरमी के दिनों में उस घर के अंदर सोना भी मुश्किल था। बाहर में एक कॉमन पैखाना था। वे सारे भी गंदे कचरे से भरे एक-एक नरक कुंड से कम नहीं थे। दुर्गंध से मानो उल्टी होने का मन करता हो। सुनंदा कुष्ठाश्रम में नहीं रहती थी। पति ने एक किराए वाला घर दे दिया था, उसमें वह रहती थी।
सुनंदा का किराए वाला घर, रेलवे लाइन के बगल में जो सारी बस्तियाँ तैयार हुई थी, वहाँ पर। घर का भाड़ा प्रति माह दो सौ रूपए। पहले-पहले उसका पति घर का भाड़ा दे देता था। बीच-बीच में उसका आदमी वहाँ आता जाता रहता था। बच्चों को भी लेकर आता था। खर्चे के लिए पैसे भी देता था। धीरे-धीरे उसका आना बंद हो गया। बच्चों ने भी आना बंद कर दिया। घर का किराया और खर्चे के पैसे मिलने भी बंद हो गए। नाराज होकर सुनंदा पैसे मांगने गई।कुछ दिनों के बाद उसने सुना, उसका आदमी यह शहर छोड़कर किसी दूसरे शहर में व्यापार करता है। आखिरकर वह अपनी नौकरी छोडकर चला गया। पाप।
मगर उस पाप के लिए उसके पति को कुछ नहीं हुआ, सुनंदा को हुआ। सुनंदा ने ऐसा क्या पाप किया था. सुनंदा कहने लगी- “इस जन्म में नहीं किसी पिछले जन्म में पाप किया था उसने, मैकेनिक बाबू। तुम इन बारीक बातों को नहीं समझ पाओगे। मशीनरी का काम करते-करते तुम्हारा दिमाग भी मशीन बन गया है।”
पाप की बात को पहली नहीं समझ पाया । क्या जन्म- जन्मों के अपराध के फल हैं ये सब? क्या प्रमाण है? किस शास्त्र में लिखा है, जन्म- जन्मों के फल इकट्ठे हो जाते हैं? पहली इन सारी बातों को समझ नहीं पा रहा था । मंदिर के सामने भीख मांगना पडता है जिसके लिए। मगर भगवान में बिल्कुल भी विश्वास नहीं। भगवान अगर बात करने लगेंगे तब भी उसे विश्वास नहीं होगा। जैसे भगवान के साथ उसका किसी भी प्रकार का कोई संबंध नहीं हो।
मगर सुनंदा बहुत बड़ी आस्तिक थी। शायद यही कारण रहा होगा कि मंदिर के सामने भीख माँगना उसे पसंद है। यह बात सही थी पहले वह कभी भीख मांगने नहीं आती थी। बाद में वह बाध्य होकर आई, फिर उसको क्या शर्म-लाज। मन के अंदर एक क्षोभ रह गया था। वह अपने भाग्य को कोसने लगी। भीड़ के अंदर हाथ फैलाकर भीख मांगने में उसे बहुत संकोच लगता था। मंदिर के सामने भले ही बैठ जाएगी, मगर ट्रेन में चढ़कर उसने कभी भीख नहीं मांगी। ट्रेन में कितने लोगों का आना-जाना होता है। अगर परिचित लोग दिख गए तो!
इधर सुनंदा का खर्च अधिक। घर किराए के दौ- सौ रूपए के अलावा खाने- पीने के लिए हजार रूपए की निहायत जरूरत पडती थी। कपडे, तेल साबुन का खर्च अलग से। इतने पैसों का रोजगार मंदिर के सामने केवल बैठने से नहीं होगा? सुनंदा कहने लगी, क्यों नहीं होगा? दिन को अगर पचास रूपए मिलते हैं तो महीने के हुए डेढ़ हजार। मेरा खाने वाला कौन है? डेढ़ हजार में चल जाएगा।
किंतु वास्तव में नहीं चलता था। घर का भाड़ा नहीं दे पाती थी। घर का भाड़ा देने से चावल नहीं खरीद पाती थी। चावल खरीदने पर नारियल तेल नहीं खरीद पाती थी। बाद में पहली ने घर के किराए देने का प्रस्ताव दिया। सुनंदा ने उस दिन आपत्ति जताई। बहतु जोर जबरदस्ती के बाद उसने वे पैसे लिए थे, लौटाने का कहकर। उसके एक महीने बाद भी पहली ने पैसे नहीं दिए थे। उसके बाद वाले महीने भी। प्रथम बार पैसे नहीं चुका पाने के कारण सुनंदा का मन दुखी हो रहा था। फिर और नहीं हुआ। पहली ने दौ सौ रुपए देते समय बिना किसी संकोच के रख लिए थे। समय-समय पर वह कहती थी, “इतने पैसे कहाँ से मिलते हैं? चोरी करते हो?”
पहली हँसने लगा था । उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। कहने लगा- “तुम नहीं जानती हो, मैं कौन हूँ। जितना मैं ऊपर से दिख रहा हूँ, उससे ज्यादा मिट्टी के अंदर गड़ा हुआ हूँ।”
पहली की यह कहानी थी। वास्तव में उसकी दुनिया में कोई शादी भी नहीं हुई थी। घर पर भाई बहिन, माँ-पिताजी सभी थे। माँ को स्वर्ग सिधारे कई दिन हो गए। पिताजी बीमारी से सूख -सूखकर कांटा हो गए। किसी को पहचान नहीं पा रहे थे, कोई भी चीज याद नहीं रहती थी। बिस्तर पर मल-मूत्र करते थे। बहिनें शादी होने के बाद अपनी- अपनी दुनिया में मस्त थी। भाई लोग भी जुदा-जुदा हो गए थे। बारी-बारी पिताजी की देखभाल करते थे। पहली के साथ मगर किसी का भी कोई संपर्क नहीं था। वह तो भूल भी गया था, एक दिन उसका उस घर में जन्म भी हुआ था। एक छत के नीचे वह भी उनके साथ मिल-जुलकर पला - बढा था। आज सारे खून के रिश्तें उसे पूरी तरह से अपरिचित लगने लगे थे। अपना बचपन, किशोरावस्था भी लगने लगे थे जैसे किसी और की कहानी हो।
पहली के शरीर पर दाग छोटे समय से ही थे। किसी ने ध्यान नहीं दिया था। धीरे-धीरे हाथ-पैर सुन्न होने लगे। छोटे समय किसी मैकेनिक के पास काम सीखता था पहली। स्कूल का इंजिन खोलते समय एक पाना छिटककर उसके हाथ पर लगा था। मगर उसे आश्चर्य हुआ, उसे लगा जैसे उसके हाथ पर कुछ भी नहीं हुआ हो। चमड़ी फट कर खून बहने लगा था। उस मैकेनिक आदमी ने शाबाशी देकर कहा, “ये हुई न मरदों वाली बात।”
उस समय भी पहली को पता नहीं था अपने बीमारी के बारे में। उसे तब पता लगा, जब उसने पहली बार अपना गैरेज खोला। भाई लोग भी जिसकी जहाँ नौकरी लगी, वहीं अलग-अलग शहर में अपने मकान बना लिए। बहिनों की शादी हो गई। माता-पिता बारी-बारी भाइयों के पास रहने लगे. पहली का घर-संसार नहीं था। पांच रूपए के भाडे पर गैरेज चलाता था, दुकान की तरह घर भी भाडे पर था। बांस के बने मकान के अंदर ही उसकी खाट, बिस्तर, माधुरी दीक्षित वाला कैलेंडर लगा हुआ था। चद्दर का एक टूटा हुआ बॉक्स। पूरी तरह से एक टूटा हुआ और इलैक्ट्री से चलने वाला टू इन वन - वे ही सारी संपत्ति थी उसकी। बीयर की खाली बोतलों में पानी रखता था। पुराने टायर के ऊपर एक और टायर रखकर बनाया था सैण्ट्रल टेबल। दीवार पर लटक रहा था, साठ रूपए में खरीदा हुआ बालियात्रा का एक दर्पण। वही था उसका अपना ड्रेसिंग टेबल।
दिक्कत होने से पहले ही पहली की अंगुलियाँ टेडी हो गई थी। उसको पानी भरने में भी कष्ट होने लगा। नाक भी अस्वाभाविक रूप से फूलने लगा। धीरे-धीरे पहली का यह परिवर्तन लोगों की आंखों में आने लगा। अंत में पहली दवाई खाने गया। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। डॉक्टर कहने लगा, पांच साल पहले अगर आते तो कुछ हो सकता था। अभी रोग आगे और बढना तो बंद हो जाएगा, मगर टेडी-मेडी अंगुलियां सीधी नहीं हो पाएगी।
ये बात मालूम चलने पर धीरे-धीरे पहली के गैरेज में स्कूटर आना कम हो गए थे। गैरेज के लडके भी काम छोड़कर अन्यत्र चले गए थे। नियमित ग्राहक बंद हो गए। कभी कोई रास्ते में जाते समय पंक्चर हो जाने पर स्कूटर खराब हो जाने पर या कोई गाड़ी भूले भटके आ जाती थी, इंजिन काम की तरह बडे-बडे काम नहीं आते थे। बाद में ऐसा हुआ जो पांच सौ रुपए घर का किराया तो दूर की बात, हर दिन की गुजर बसर करने होटल में दो वक्त का खाना खाने के लिए पचीस-तीस रूपए का भी रोजगार नहीं होता था। आखिर में पहली ने गैरेज बंद कर दिया। घर का किराया देने में थी असक्षम।
मगर पहली क्या करता? किस गैरेज में काम करता? स्कूटर कंपनी के सर्विसिंग सेंटर में मेहनत करता था। उसकी मुड़ी हुई अंगुलियां, चपटा नाक और हकलाहट भरी बातें भी रास्ते में रोड़ा बन रही थी। बाद में भाइयों ने भी पहली को दूर कर दिया था। वह जानता था, कोई भी भाई नहीं पूछेगा। भाईयों ने दिखना भी बंद कर दिया। भाभियों ने तो मुंह पर यहां तक कह दिया, पहली तुम और यहां नहीं आओगे। हम बाल-बच्चेदार आदमी हैं। तुम्हें ऐसा रोग लगा है, क्या कर सकते हैं हम?
भाभियों की आँखों में नफरत, बच्चों का डर पहली को किसी परिणाम तक निश्चय ही आहत कर दिया था। वह सबसे रूठ भी गया था। मगर किस पर अपना गुस्सा दिखाता? वह अपने आपको असहाय अनुभव करने लगा। एक बार तो उसने आत्म-हत्या करने की भी ठाण ली थी। मगर आखिर तक वह आत्महत्या नहीं कर पाया, मौत की यंत्रणा से वह डर रहा था। मृत्यु से कुछ समय पूर्व अगर कोई उसे बेहोश कर देता तो वह इच्छा- मृत्यु स्वीकार कर लेता।
आखिर में पहली ने कुष्ठाश्रम में अपना नाम लिखवा दिया। किसी को पकड़कर कुष्ठाश्रम में एक कमरा ले लिया था। भले ही, भले लोगों का संग नहीं मिला मगर सिर ढकने की एक जगह तो मिल गई। वर्षा, गर्मी, सर्दी से यह छत बचाती तो थी। किसी के बरामदे में डर-डरकर सोना नहीं पड़ेगा। कई बार किसी के बरामदे में आधी रात को आधी नींद में डंडे खाए थे। गालियां सुनी थी। लातों से मार खाई थी। हर समय डर के साथ सोता था। अभी कोई आकर उसे फिर मारेगा। एक बार एक कुत्ते ने भी उसके ऊपर पेशाब कर दिया था। उन सभी चीजों से तो रक्षा होगी।
बच गई थी उसके खाने की समस्या। कुष्ठाश्रम के अर्जुन ने उसको बताया था, कुष्ठरोगियों के साम्राज्य के बारे में। इस शहर में कुष्ठरोगियों को दो भागों में बांटा गया है। स्टेशन से लेकर राम-मंदिर तक एरिआ भोवनी साहू का। राम-मंदिर से उस तरफ ओमफेड चिलिंग प्लांट तक का एरिया बिरजा बनिया का। भोवानी साहू के पास अर्जुन उसको बुलाकर लेकर गया था। इधर आमदनी ठीक होती है। उधर गुरूद्वारे को छोडकर कोई खास अमदनी नहीं थी।
सप्ताह में एक बार कुष्ठाश्रम के भिखारी भीख मांगने जाते थे, कुष्ठाश्रम के लिए। इसको कहा जाता था चंदा इकट्ठा करना। इस दिन उनका कोई एरिया बंटा हुआ नहीं रहता था। किसने कितनी भीख मांगकर आमदनी की, उसका हिसाब किताब नहीं रहता था। कुष्ठाश्रम को बारह रूपए पचास पैसे देने का नियम था। बाकी पैसे उनके अपने। दूसरे सभी दिन अपने बंटे हुए एरिया के अंतर्गत भीख मांगना और शाम को अपने एरिया के मालिक को पांच रूपए देना पड़ता था।
भवानी साहू खुद कोढी था। वह कुष्ठाश्रम के ट्रस्ट बोर्ड का मेम्बर था। इसलिए उसने अपना घर नहीं छोडा था। उसने अपने घर के पास एक छोटा पक्का घर भी बना लिया था।
भवानी साहू उसमें रहता था। उसके कमरे में पलंग, सोफासेट, टी.वी, फ्रिज भी था। खाट पर एक मोटा गद्दा भी बिछा हुआ था। गद्दे पर डाली हुई थी एक सुंदर चद्दर। भवानी साहू के इस बाजार में बहुत मकान थे। सभी बच्चों का अलग-अलग व्यवसाय। भवानी साहू के हाथ में अभी भी उन सभी की डोर बंधी हुई थी। शाम के समय प्रत्येक पुत्र अपना हिसाब खाता लाकर उसके सामने प्रस्तुत करते थे।
बिरजा बनिया भवानी साहू की तरह पैसे वाला नहीं था। उसकी कहीं पर सोने की एक दुकान जरूर थी। फिर उसका व्यापार उसकी समझ में नहीं आता था। एक छोटा घर और एक मंदिर बनवाया था। मंदिर में पूजा के लिए एक ब्राह्मण की भी व्यवस्था कर दी थी। मंदिर का खर्च कुष्ठरोगियों से मिलने वाले पैसों से चल जाता था। जो भी हो, उसके पास भीड़ नहीं रहती थी। वह जिस इलाके का मालिक था, उधर वास्तव में उतनी अच्छी आमदनी नहीं थी। फिर भी बिरजू बहुत ही दिलदार आदमी थी। कोढी लोग जितना देते, उससे ही वह खुश हो जाता था।
मगर सुनंदा न तो भवानी साहू को हिस्सा देती और न ही बिरजा बनिया को। इसलिए वह केवल मंदिर के पास ही बैठ जाती थी। इसलिए भवानी साहू को हिस्सा देने की बात थी। भवानी साहू के लिए भी अचरज की बात थी, सुनंदा को कभी भी उसने हिस्सा देने के लिए बाध्य नहीं किया। शायद यह सुनंदा के व्यक्तित्व का प्रभाव हो जो कोई उसे जबरदस्ती नहीं कर सकता था। मगर ऐसा लगता था कि पहली का व्यक्तित्व इतना प्रभावी नहीं था। वह जब स्कूटर का मैकेनिक था, तब अनेक पढ़े-लिखे दोस्तों का साथ उठना बैठना था। मगर अब इस सबका कोई मायने नहीं रहा। शुरु- शुरु में अपने स्कूटर गैरेज के ग्राहकों के सामने हाथ फैलाकर भीख मांगने में संकोच लगता था पहली को। मगर धीरे-धीरे वह संकोच भी खत्म हो गया। किसी ने भी उसकी तरफ सहानुभूति के हाथ नहीं बढ़ाए। देखते हुए भी नहीं देखने जैसे आड लेकर खडे हो जाते थे, मानो वे पहली को जानते तक नहीं हो।
पहली के कपडे भी बदल गए। अगर वह अब अपने को दर्पण में देखता तो पहचान नहीं पाता। मैले-कुचैले कपडे। कभी भी नए पेंट शर्ट नहीं बनवाए पहली ने। सुनंदा को सर्फ का रिफल पैकट देने से वह कपड़ा साफ कर देती थी। केवल कहती थी, सर्फ पैकेट क्यों खरीदते हो। मैं क्या इतनी गरीब हूँ जो साबुन की टिकिया भी नहीं खरीद पाऊँगी।
पहली कुछ नहीं कहता था। प्यार से सुनंदा के बाल को सहलाता था और सुनंदा को अपने गले लगा लेता था। कुछ क्षण के लिए सुनंदा अपने आप को भूल जाती थी। उसके बाद फिर वह हकीकत की दुनिया में लौट आती थी। पहली से दूर चली जाती थी। दोनो साथ-साथ हंसने लगते थे। अनुभूतिहीन पहली के दोनों कान गरम और लाल हो जाते थे। वह दूर जाकर कहती थी, नहीं ये सब पाप है। किसी युग का पाप था जो उसे भुगतना पड़ रहा है। और कोई पाप नहीं।
पाप क्या होता है? पाप और पुण्य के बारे में कभी नहीं सोच था पहेली ने। क्या कहकर वह सुनंदा को समझाता? पाप की परिभाषा जानती हो? दुनिया में और कोई आदमी पाप नहीं करता है। उनको कोढ़ का रोग क्यों नहीं होता? फिर सुनंदा को यह बीमारी होने का कारण? तब क्या उन्होंने गोहत्या या नर हत्या की थी? फिर लूटपाट चोरी या डकैती की थी उन्होंने? आजकल तो आतंकवादी लोग धर्म के नाम पर, आदर्श के नाम पर लोगों की हत्या कर देते हैं। इन सबसे बड़ा और पाप क्या हो सकता है? ये सब क्यों करते हैं, उन्हें तो यह रोग क्यों नहीं होता है?
पहली को याद आ गया, एक बार रास्ते में पुलिस ने उनको रोका था। उस समय वे ट्रेन में भीख मांगते घूम रहे थे। रास्ते में दो तीन लोगों को पकडा भी था। “साले हाथों पर पट्ठियाँ बांधकर कुष्ठ रोगी के बहाने ड्रग्स बेचते हो” कहकर उनको पीटना शुरु कर दिया थ। पहली ने विरोध किया था, “डंडे से इस तरह क्यों पीट रहे हो? हमने कोई चोरी की है? हम कुष्ठाश्रम के रोगी हैं।” पहली के हाथ पर बैण्डेज बंधे हुए नहीं थे। उसकी मुड़ी हुई अंगुलियां ही अपने कुष्ठ-रोगी होने का परिचय दे देती थ। पुलिस वाले की ओर हाथ बढाते हुए कहा था, “हमारे बैग चैक कर लो?”
कांस्टेबल शंकित हो उठा। कहने लगा, “साले, मुझे भी रोग दोगे क्या?”
सभी के अपनी पेटियां खोलकर दिखाते समय, भगिया ने अपने हाथ के बैण्डेज खोलकर दिखाए थे। उसके अंगुली-विहीन हाथों के घावों पर मक्खियां भिनभिनाने लगी और भगिया की यंत्रणा से रोने का दृश्य देखकर पहली को भी उबकाइयां आने लगी। पुलिस वाले चले गए।
पहले भी पहली ने सुन रखा था, भगिया कहीं पर ड्रग्स बेचता था। घूम-घूमकर पान की दूकान वालों को सप्लाई करता था। उस दिन उसके खोले में ड्रग्स पाउडर था। क्या करेगा समझ नहीं पाकर उसने अपने एक हाथ से बैण्डेज खोलकर फेंक दिए थे। पहली ने एक दिन पूछा था, जीवन में और क्या बचा है जो उसके लिए उतने प्रपंच में पड़कर पाप कर रहे हो?
भगिया ने एक लंबी सांस ली थी। जब तक इस शरीर में सांस रहती है तब तक यह मोह- माया लगी रहती है। जब तक जीवन रहेगा, तब तक जीवन के प्रति मोह माया बनी रहेगी, उतने दिन पाप भी करना पडेगा।
जीवन कहने से और क्या रह गया, जिंदा रहना ही तो पाप है। हमारा परिवार वैष्णव धर्म को मानता है। मेरे पिताजी ने कभी भी मांस को हाथ तक नहीं लगाया था। इधर- उधर की बातें उन्हें नहीं आती थी। उनका कीर्तन भला कि वे भले। सुबह उठकर भगवान के लिए फूल तोडने जाते थे। सारा दिन मंदिर में बिताते थे। वही हमारे पिताजी गले के कैंसर से मरे। कैंसर किसको होता है? नहीं, उन्होंने कोई पाप नहीं किया था। हाँ, जिंदा रहने के सिवाय और कोई पाप नहीं है इस दुनिया में।
पहली के भीतर में एक अस्थिरता छा गई। एक घंटा हो गया उसको मंदिर के पास बैठे हुए। केवल एक चौथाई केला और थोडा-सा नारियल से ज्यादा कुछ भी नहीं मिला। इस नारियल और केले से क्या पेट भरता? जो ट्रेन में चढ़कर घूम आने से ज्यादा आमदनी होती। कम से कम दो कप चाय और दो चार गुलगुले के पैसे तो निकलते।
अनेक बार पहली ने सोचा, नहीं और नहीं। भगिया के साथ मिलकर ड्रग्स का व्यापार करेगा। इस तरह सारा दिन घूम-घूमकर भवानी साहू को पालने का कोई अर्थ नहीं है। कुछ पैसे इकट्ठे करके वह सुनंदा को कहेगा, “चलो! हम दोनो घर बसाते हैं। और एक बार शादी करेंगे मंदिर में। हमारे शरीर में रोग लगने का मतलब यह तो नहीं कि हमारा मन भी रोगी हो गया हो। हम फिर से जीवन जीएँगे। शरीर के लिए नहीं, मन के लिए ही सही।”
पहली मंदिर के पास से उठकर चला गया। नयना पीछे से आवाज लगाने लगी- "कहाँ जा रहे हो, पहली? अहमदाबाद का टाइम हो गया है। तुम अगर स्टेशन की ओर जाओगे तो मैं भी चलूंगी!”
पहली ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने एल्युमिनियम का कटोरा उसके झोले में डालकर लंगडाते- लंगडाते चलना शुरु किया। पांव में टायर की चप्पल निकल गई। और नई चप्पलें खरीदनी पडेगी। उसे याद हो आई भगिया की बातें जिंदा रहना ही तो पाप है। आह, मन के ऊपर से एक बड़ा भार उतर गया हो जैसे। इस बार सुनंदा को कहूंगा- तुम्हारे पाप-पुण्य को लेकर जिंदा रहने का मतलब क्या होगा?
सुबह हो गई। पूर्व में सूर्य की लालिमा, नरम धूप धुएं जैसा कोहरा, ठंडी हवा, पत्तों पर झिलमिलाते शिशिर बिंदु, मार्निंग वाक में बाहर निकली सुंदर लडकियों के झुंड, पेपर वालों की साइकिलें, दूधवालों के ट्राली रिक्शे, ट्यूशन पढ़ने जाते बच्चे, मंदिर की ओर से सुनाई देने वाले भजन और मंत्रपाठ, बंद दुकानें, झाडू बुहारते मेहतर, बस का इंतजार करते मजदूर..... सभी की ओर देखने लगा पहली। जीवन बहुत सुंदर लगने लगा। उसको फिर याद हो आई भगिया की बातें- जीवन ही पाप है। पहली ने मन ही मन सोच लिया, आज से वह ड्रग्स बेचेगा। भगिया कहता था, एक दूकान से दूसरी दूकान तक पहुंचाने पर दिन के सौ रूपए पक्के। मतलब महीने के तीन हजार। इसका मतलब, वह सुनंदा से शादी कर सकेगा। उनका अपना संसार होगा। घर के सामने पर्दा लगेगा। सुबह उठकर बिस्तर समेटकर रखे जाएंगे, सुनंदा घर साफ करेगी, टी.वी के ऊपर से धूल साफ़ करेगी, सोफासेट के कुशन बदलेगी। रसोई बनाएगी और दरवाजे के पीछे बैठकर पहली का इंतजार करेगी।
जीवन बहुत सुंदर लगने लगा। उसके दिमाग में एक बात घुस गई, जीवन का मतलब पाप है। उसे लगने लगा, पाप ही सब से सुंदर है। वह मन ही मन सभी प्रकार के पापों की सूची बनाने लगा। उसे और किसी भी पाप ने अपनी तरफ आकर्षित नहीं किया। ड्रग्स बेचना ही सबसे सरल और बिना मेहनत का पाप है। उसके मन में यह बात अच्छी तरह बैठ गई, यही सबसे सुंदरतम पाप है। जिसका एक बार उसे प्रयोग करना चाहिए। सोचते -सोचते पहली, पता नहीं कब, सुनंदा के घर के सामने पहुँच गया। सुनंदा की बैठक घर के सामने परदा झूल रहा था। पहली के मन में आया, यही तो उसका घर है सपनों का घर। सुंदरतम घर और पाप का घर। सुनंदा बैठी हुई थी दरवाजे के पास में। कॉटन की साड़ी पहन कर। देवी की मूर्ति की तरह। पहली को सुनंदा, देवी की तरह लगने लगी। वह उसकी पत्नी हो। उसकी प्रतीक्षा में ही बैठा हो जैसे। पूछने लगा: - कैसी हो?
सुनंदा ने उत्तर नहीं दिया। बैठने के लिए एक आसन सामने कर दिया।
“तबीयत ठीक है?”
सुनंदा ने इस बार भी कुछ नहीं कहा। गिलास में पानी लाकर उसे पीने के लिए दिया।
“मंदिर की तरफ आई नहीं? आमदनी नहीं होने से जीवन कैसे चलेगा?”
सुनंदा ने पूछा- “चाय पीओगे?”
पहली ने समझ लिया सुनंदा का मन ठीक नहीं है। एक बार फिर पूछने लगा- “क्या हुआ तुम्हें? इतना मुंह उतारकर बैठी हो?”
सुनंदा ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। हाथ में लगे हुए बैण्डेज खोलना प्रारंभ किया। पहली ने देखा नहीं था, सुनंदा के हाथ में बंधे हुए बैण्डेज को। ऐसे कैसे बैण्डेज बांधती हो सुनंदा? क्या, पहले देखती नहीं हो? इन कुछ दिनों के भीतर हुआ होगा। सुनंदा ने उसके बैण्डेज खोले, गेज और रूई लगी हुई थी घाव पर। धीरे-धीरे खींचकर गेज और रूई को हटा लिया था सुनंदा ने। खून से भीगी हुई रूई और गेज बाहर निकल गई। बड़ी-बड़ी मक्खियां कहां से कहां उड़कर घावों पर भिनभिनाने लगी। पहली को याद आने लगे भगिया के खून से लथपथ सफेद-सफेद हाथ। दोनों हाथों का एक वीभत्स दृश्य। सुनंदा के हाथ भी उस तरह के हो जाएंगे?
पहली तो निश्चय करके आया था आज सुनंदा को सीधे अपनी शादी की योजना की बात सुनाने। सारे रास्ते सोचते हुए आया था, सुनंदा को कहेगा इस तरह पाप-पुण्य का विचार करना निरी मूर्खता है। जीवन जीने का मतलब ही पाप है। आओ हम जिंदगी को सुंदरतम पाप समझकर मान लेते हैं।
सुनंदा ने अपने एक हाथ को पहली के सामने कर दिया। पहली को लगने लगा, जैसे सुनंदा कह रही हो देख, तुम्हारे सुंदरतम पाप को। आंखों के सामने नजर आने लगा भगिया का वह खून से लथपथ हाथ। पहली को एक बार फिर उबकाइयां आने लगी।