सुंदर सब कर लेगा / मोहम्मद अरशद ख़ान
कुछ स्मृतियाँ ऐसी होती हैं जो मन-मस्तिष्क पर ऐसी छाप छोड़ जाती हैं कि समय की धूल भी उनकी चमक धुँधली नहीं कर पाती। ऐसी ही एक स्मृति मेरे बचपन की है, जो भुलाए नहीं भूलती।
मैंने आठवीं पास कर लिया था। लिखने-पढ़ने में तेज था। आज्ञाकारी और विनम्र होने के कारण गुरूओं की विशेष कृपा रहती थी। घर-परिवार में भी सबका लाडला था।
आठवीं पास कर चुका तो समस्या आई कि आगे की पढ़ाई का क्या हो? गाँव में आठवें दर्जे के बाद स्कूल था नहीं। आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना ज़रूरी था। पर मुझे शहर भेजने को लेकर माँ-पिता जी उहापोह में थे। मेरे संकोची स्वभाव को लेकर उन्हें चिंता थी।
पर एक दिन हमारे कक्षाध्यापक प्रेमनारायण मिश्र जी घर आए। उन्होंने माँ-पिता जी को ऐसा समझाया कि उनके मन का संशय निकल गया और वे मुझे शहर भेजने को राजी हो गए। मुझे घर छोड़ने में हिचक तो थी, अकेला कभी बाहर गया भी नहीं था, पर शहर की बात सोच-सोचकर मन में गुदगुदी होती थी। सजे-सजाए घर, दौड़ती मोटर-गाड़ियाँ, बने-ठने लोग। शहर का आकर्षण मुझे अपनी ओर खींच रहा था।
आखिरकार पिता जी ने शहर में एक नातेदारी ढूँढ निकाली। रामनाथ जी हमारे दूर के रिश्ते में मामा लगते थे। शहर में उनकी एक छोटी-सी दुकान थी। घर में पत्नी और एक बेटी के सिवा कोई नहीं था। पिताजी एक दिन शहर जाकर उनसे मिल आए। रामनाथ जी ने भी राजी-ख़ुशी सहमति दे दी।
पर जिस दिन पिता जी को मुझे शहर लेकर जाना था, उन्हें एक ज़रूरी काम आ पड़ा। वह बहुत परेशान हुए। मगर जब समस्याएँ आती हैं तो उनके हल भी निकल आते हैं। हुआ यों कि संयोगवश उसी दिन मास्टर जी को भी शहर जाना था। उन्होंने मुझे साथ ले लिया। मास्टर जी के हवाले करके पिता जी इतने संतुष्ट हुए कि शायद ख़ुद ले जाकर नहीं होते।
दोपहर होते-होते हम शहर पहुँच गए। जब मास्टर जी मुझे रामनाथ जी के हवाले छोड़कर चलने लगे तो उन्होंने माँ की तरह लिपटाकर प्यार किया। ढाढस बँधानेवाली बातें कहीं और भीगी आँखें लिए लौट गए। वात्सल्य से भरा उनका चेहरा मुझे आज भी याद है।
मैंने रामनाथ जी को पिता जी की चिट्ठी दी। उन्होंने हौले-हौले चिट्ठी पड़ी। चिट्ठी में पिता जी ने ऐसा कुछ लिखा था कि पढ़कर उनकी आँखें पनीली हो गईं। कहने लगे, ‘‘मेरी एक ही बेटी है। पर अब मैं समझूँगा कि ईश्वर ने मुझे एक बेटा भी दे दिया है। कमला मुझे बाबू जी कहती है। तुम भी मुझे बाबू जी कहना। आज से इसे अपना ही घर समझो। संकोच करने की कोई ज़रूरत नहीं है। कभी किसी चीज की ज़रूरत हो तो बेहिचक कह देना।’’
बाबू जी का मकान छोटा-सा था। एक कोठरी उन्होंने छत पर भी बना रखी थी। शायद उसका इस्तेमाल वही करते थे। उन्होंने अपने काग़ज़-पत्तर वहाँ से समेट लिए और कहा, ‘‘तुम्हारे लिए यही जगह ठीक रहेगी। यहाँ शोर-शराबा नहीं है। सुकून से बैठकर पढ़ाई-लिखाई करना। किसी चीज की ज़रूरत हो तो कमला से कह देना।’’
कमला दीदी सचमुच बड़ी बहन की तरह मेरा ख़्याल रखती थीं। शुरू-शुरू में वह मुझे कमरे में ही खाना दे जाया करती थीं क्योंकि उन्हें पता था कि नए लोगों के बीच बैठकर खाने-पीने में मुझे संकोच होगा। खाली समय में इधर-उधर की बातें करके वह मेरा मन बहलाने की कोशिश किया करती थीं।
दूसरे दिन से मैं स्कूल जाने लगा। पर गाँव में जिस बेफिक्री के साथ पढ़ाई-लिखाई होती थी, यहाँ वैसी बिल्कुल नहीं थी। अध्यापक बच्चों से उस तरह घुलते-मिलते नहीं थे। वे आते, पढ़ाते और चले जाते। काम इतना देते थे कि घर लौटकर पूरा दिन उसी को निपटाने में निकल जाता। गाँव में तो चाहे जिस तरह से स्कूल चला जाता था। पर यहाँ साफ-सफाई का बड़ा ध्यान रखा जाता था। बिना जूतों के या मुड़े-तुड़े कपड़े पहनकर आने पर अध्यापक टोकते थे।
मुझे कपड़ों पर इस्त्री करनी बिल्कुल नहीं आती थी। इसे लेकर मैं बड़े तनाव में था। दीदी को बताया तो कहने लगीं, ‘‘इसमें परेशानी की क्या बात? चौराहे पर इस्त्री करनेवाला बैठता है। उसी को कपड़े दे दिया करो।’’
पर बाहर निकलते मुझे बड़ी घबराहट होती थी। सर्राटे से आती-जाती गाड़ियाँ, शोर-शराबा, अनजान लोग। दीदी ने मेरी परेशानी पढ़ ली। कहने लगीं, ‘‘कोई बात नहीं। कपड़े दे देना। मैं सुंदर को भेजकर इस्त्री करवा दूँगी।’’
सुंदर कौन था मुझे नहीं पता। मैंने जानने की ज़रूरत भी नहीं समझी। मेरी समस्या का हल तो निकल ही आया था। मैंने दीदी को धन्यवाद दिया और मन ही मन सुंदर को भी।
एक दिन बाबू जी दूकान से लौटे तो उन्होंने मुझे बुलवाया। हाल-चाल पूछे। पढ़ाई-लिखाई के बारे में बात की। फिर कहने लगे, ‘‘कल गाँव से तिरबेनी भैया आ रहे हैं। तुम्हारे पिता जी ने उनके हाथों कुछ सामान भिजवाया है। पर वह बस अड्डे से ही कचहरी निकल जाएँगे। सामान लेने किसी को वहाँ जाना पड़ेगा। मुझे दूकान संभालनी रहती है, नहीं तो मैं ही चला जाता।’’
मैं बड़ा घबराया। मुझे स्कूल जाने के एक रास्ते के अलावा दूसरा रास्ता भी नहीं मालूम था। हर तरफ़ भीड़ भरी सड़कें, ऊँचे-ऊँचे घर, चमकदार दूकानें, अनजाने-अनचीन्हे लोग। शहर मुझे भूल-भुलैया से कम नहीं लगता था। पर इससे पहले कि मैं कुछ बोलता चाची बोल उठीं, ‘‘बस अड्डा तो यहाँ से दूर है। यह बेचारा कैसे जाएगा?’’
बाबू जी असमंजस में बैठे रहे। तभी दीदी कहने लगीं, ‘‘बाबू जी, क्यों न सुंदर से कह दें, वह ले आएगा।’’
‘‘सुंदर से...? यह काम हो पाएगा उससे...?’’ बाबू जी बुदबुदाए। पर अगले ही पल वह जैसे ख़ुद से बोले, ‘‘सुंदर भला कौन-सा काम नहीं कर पाएगा। हाँ, ठीक है, उसी से कह देता हूँ।’’
दूसरे दिन स्कूल से लौटा तो दीदी कहने लगीं, ‘‘भैया, ज़रा सहारा दे दो तो थैले तुम्हारे कमरे तक पहुँच जाएँ। सुंदर, सामान ले आया है।’’
थैले उठाए तो लगा दोनों हाथ कंधे से उतर आएँगे। इतने भारी कि उठाते नहीं बन रहा था। थैले का एक टँगना दीदी ने पकड़ा और एक मैंने तब जाकर दो बार में दोनों थैले ऊपर पहुँचे। एक थैले में चावल, दालें और अनाज था और दूसरे में कपड़े, मीठी टिकियाँ, बेसन के लड्डू, मठरियाँ और तमाम खाने की चीजें। मैं मन ही मन सुंदर के प्रति कृतज्ञ था। उससे मिलना भी चाहता था। पर यह सोचकर हिचक होती कि वह शहर का लड़का है। मुझ गँवई से मिलकर जाने उसकी क्या प्रतिक्रिया हो।
एक दिन जब मैं स्कूल पहुँचा तो देखा सारे मास्टर कक्षा से बाहर खड़े आपस में बातें कर रहे हैं। पता चला कि मुख्य मार्ग पर दुर्घटना हो गई है। एक कार अनियंत्रित होकर पेड़ से टकरा गई है। सवारियों को काफ़ी चोटें आई है। ड्राइवर की हालत गंभीर है। अगर समय रहते उन्हें अस्पताल न पहुँचाया गया होता तो कोई भी अनहोनी हो सकती थी।
बड़ी कक्षाओं के मुँह लगे लड़के मास्टरों के पास जाकर खड़े उनकी बातें सुन रहे थे और ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिला रहे थे। सुनना तो मैं भी चाह रहा था, लेकिन पास जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मुझे लगा कि जैसे वहाँ सुंदर का नाम लिया जा रहा है।
छुट्टी के बाद घर लौटा तो दीदी ने बताया कि सचमुच वे लोग सुंदर के कारण ही बच पाए। उसने ही उन्हें समय पर अस्पताल पहुँचाया। मैं हैरत में था। सुंदर अब मेरे लिए किसी हीरो से कम नहीं था।
एक दिन मैं अपनी कोठरी में बैठा पढ़ रहा था कि बाहर गली में किसी आवाज़ आई, कोई कह रहा था, ‘‘सुंदर...! बाज़ार चलोगे?’’
‘‘चलो,’’ एक पतली-सी आवाज़ आई।
मैं रोमांचित हो उठा। सुंदर नीचे ही था। आज उसे देख पाने का अच्छा मौका था। मैंने खिड़की के सीखचों से अपना चेहरा सटा दिया। पर भरसक कोशिश से भी उसकी झलक पा सकने में सफल न हुआ। मैं बाहर छत पर निकल आया और छज्जे से झाँकने की कोशिश करने लगा। मन में यह संकोच भी था इस तरह झाँकते हुए वह मुझे देख लेगा तो क्या सोचेगा। पर जब तक मैं कोशिश करता सुंदर वहाँ से जा चुका था।
एक दिन गाँव से पिता जी आए। उनकी सूरत देखते ही जैसे मुझे रोना आया और मैं दौड़कर उनसे लिपट गया। लिहाज़ के कारण पिता जी से मेरी सीधी बात नहीं होती थी। कुछ कहना होता तो माँ माध्यम बनतीं थीं। पिता जी से डर तो नहीं लगता था, पर एक हिचक रहती थी। पर आज मेरी हिचक जाने कहाँ भाग गई थी। मुझे देखकर पिता जी की आँखें भी भीग गईं।
मेरे चेहरे पर संतुष्टि और प्रसन्नता देख उन्हें बड़ा सुकून मिला। बात-चीत के दौरान पिता जी ने पूछा, ‘‘बेटा, कुछ चाहिए तो नहीं। अबकी आऊँगा तो लेता आऊँगा।’’ मैंने अब तक पिता जी से एक क़लम तक के लिए नहीं कहा था, पर आज कह उठा, ‘‘हाँ, एक कुर्सी-मेज भिजवा दीजिएगा। खाट पर बैठकर पढ़ने-लिखने में दिक्कत होती है।’’
पिता जी के जाने के तीसरे ही दिन संदेश आया कि तिरबेनी चाचा तारीख पर कचहरी जाएँगे, उन्हीं के हाथ कुर्सी-मेज भिजवा रहे हैं। कुर्सी-मेज आने की जितनी ख़ुशी थी, उससे कहीं अधिक इस बात की चिंता भी थी कि बस अड्डे से सामान कौन लेकर आएगा? पर मेरे पास हर समस्या का एक ही हल था--सुंदर। मैं यह कहते हुए नीचे उतरा कि ‘दीदी, सुंदर को बस अड्डे भेज दो, मेरी मेज-कुर्सी ले आए।’
नीचे बाबू जी भी बैठे हुए थे। मुझे देखकर बोले, ‘‘हाँ, भाई साहब ने कहलावाया था। किसी को बस अड्डे भेजना पड़ेगा।’’
पर दीदी के चेहरे पर असमंजस था। सुंदर के नाम पर जैसे वह राजी नहीं थीं। चाची भी कुछ अनमनी-सी बैठी थीं। कुछ देर की ख़ामोशी के बाद बाबू जी ही बोले, ‘‘और कौन जाएगा भला, सुंदर से ही कह दूँगा। मेरी दूकान से ठेला लिए जाएगा और एक रस्सी भी ताकि ठेला खींचने में दिक़्कत न हो।’’
‘‘लेकिन...’’ दीदी कुछ कहनेवाली थी कि बाबू जी बात काटकर बोल उठे, ‘‘अगर सुंदर नहीं तो फिर यही होगा कि मैं जाऊँ।’’
खैर बात तय हो गई कि कुर्सी-मेज लेने सुंदर ही जाएगा।
बाबू जी दूकान चले गए।
दो घंटे बाद नीचे से दीदी की आवाज़ आई, ‘‘भैया, कुर्सी-मेज आ गई है। उठवा ले चलो।’’
मैं बैठा पढ़ रहा था। आवाज़ पर लपककर नीचे पहुँचा। दरवाज़े ठेला खड़ा था, जिस पर कुर्सी-मेज रखी थी। कुछ दूर पर पुराने कपड़े पहने एक दुबला-पतला लड़का दोनों कंधों पर अँगोछा डाले और गले में एक रस्सी लटकाए वापस जा रहा था।
मुझसे न रहा गया। मैंने हिचकते हुए पुकारा, ‘‘भैया...!’’
अनजानी आवाज़ पाकर वह लड़का पल भर को ठिठका। उसने चेहरा पीछे घुमाया।
‘‘तुम्हारा नाम सुंदर है?’’ मैंने पूछा।
‘‘हाँ,’’ वह लड़का घूम गया। उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई। पर इससे पहले कि वह कुछ कहता या कुछ पूछ पाता, उसके कंधों पर पड़ा अँगोछा खिसक गया।
फिर जो दृश्य मैंने देखा, शायद उसे जीवन भर नहीं भूल सकता। मुझे यक़ीन नहीं हुआ कि जो मैं देख रहा हूँ, वह सच है या सपना? सच्चाई ऐसी भी हो सकती है? मैं हैरत में था।
सुंदर के दोनों हाथ कोहनियों के पास से कटे हुए थे।
आज अरसा बीत गया है। मैंने ढेरों किताबें पढ़ीं, ढेरों सबक सीखे, बहुत से अनुभव हुए पर धीरे-धीरे सब स्मृतियों से उतर गए। लेकिन सुंदर ने जीवन का जो पाठ सिखाया था, वह कभी भूल सकता हूँ क्या?